हिजाब, सुहाग और स्त्रीवाद / धर्म, समाज, राजनीति और स्वचयन का अधिकार स्त्रीवादी लेंस से
स्त्रीवाद पर्दा प्रथा, हिजाब, बुर्क़ा, घूंघट एवं सुहाग चिन्हों की प्रासंगिकता पर हमेशा सवाल खड़े करता आया है। ये सभी प्रतीक मूलतः धर्म द्वारा स्त्री पर आरोपित किए गए हैं और जीवन पद्धति में इस तरह शामिल हो चुके हैं कि इनके औचित्य पर उठाया गए किसी भी प्रश्न को धर्म और संस्कृति पर आक्रमण की तरह देखा जाने लगता है। यहाँ यह बात स्पष्ट रहे कि इन प्रतीक चिन्हों के औचित्य पर सवाल सिर्फ़ स्त्रीवादी लेंस से करने का प्रयास है, एक ऐसा लेंस जो धर्म, संस्कृति, समाज के रूढ़ नियमों के विरोध में निरन्तर स्वयं को विकसित करता आया है। जो उन सब वस्तुओं, प्रथाओं के विरुद्ध निरन्तर आवाज़ बुलंद करता आया है जो स्त्रियों को समाज में दोयम दर्जे का नागरिक बनाते आए हैं।
स्त्रीवाद और स्त्री का ‘शील’
धार्मिक आकाओं ने जिस तरह से स्त्री के इर्दगिर्द सभी धार्मिक
प्रतीकों को बुन कर, उसे स्त्री के 'शील', 'इज़्ज़त' से जोड़ दिया है, स्त्रीवाद की
स्त्रियों के लिए एक समतामूलक समाज की माँग भी हाशिए पर चली जाती है। स्त्री को 'वस्तु' , व्यक्तिगत
संपत्ति नहीं समझे जाने का जो आग्रह स्त्रीवाद दशकों से करता आ रहा, उसके विरोध में धर्म के आक्रामक पहरुए इन विभिन्न प्रतीकों
द्वारा स्त्री की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को क़ैद कर उसे वस्तुतः पुरुष की संपत्ति
में तब्दील करते रहे हैं। स्त्री लगभग हर समाज में दोयम दर्जे की एक ऐसी नागरिक
मान ली गयी है जो उस समाज के विकास में पुरुष की तुलना में कम महत्वपूर्ण है। अगर
है भी तो उसकी भूमिका परिवार, मातृत्व तक ही सीमित है और चूंकि वह
कमज़ोर सेक्स है, उसे सुरक्षा की, सरपरस्ती की
दरकार है।
यहीं स्त्रीवाद हस्तक्षेप करता है। वह स्त्रियों के लिए एक ऐसे
समतामूल, न्यायप्रिय, समान अवसरों वाले समाज की संकल्पना
करता है जहाँ सभी समान नागरिक अधिकारों, सुविधाओं के
साथ उनकी व्यक्ति रूप की सर्वोच्चता, अखण्डता, और स्वनिर्णय
का अधिकार सुरक्षित रहे। उन्हें खानपान, पहनावे, शिक्षा, विवाह, मातृत्व, रोज़गार आदि सभी
मामलों में स्वनिर्णय का पूरा अधिकार मिले।
स्वनिर्णय का अधिकार लेने का रास्ता ही स्त्रीवादी विमर्श के लिए सबसे
अधिक काँटों से भरा रहा है। अपना मत देने के सामान्य नागरिक अधिकार से लेकर अपनी
देह से जुड़े मुद्दे जैसे गर्भपात तक का अधिकार प्राप्त करने के लिए उन्हें लम्बी
लड़ाइयाँ लड़नी पड़ी हैं। आज भी स्वयं को एक परिपक्व दिमाग़ की तरह आदर दिए जाने और
अपनी देह पर अपने सम्पूर्ण अधिकार की उनकी लड़ाई निरन्तर जारी है। समाज या परिवार
अपने कंस्ट्रक्शन के मूल में ही स्त्रीद्वेषी, स्त्री विरोधी
है जो मूलतः धर्म द्वारा विकसित एक ऐसी संस्कृति से स्वयं को संचालित करता आया है
जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण का, तर्कों के सम्पूर्ण निषेध पर आधारित
है। एक व्यक्ति के जन्म से लेकर मरण तक समाज ने उसके लिए विभिन्न धार्मिक नियम और
संस्कार नियत कर रखें हैं जिनमें से अधिकांश समय के साथ रूढ़ हो चले हैं, जिनपर
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सोचे समझे जाने, तार्किक रूप से
उनपर सवाल खड़े किए जाने की निरन्तर आवश्यकता बनी रहती है। ये नियम, संस्कार सबसे
ज़्यादा व्यक्ति के चयन के अधिकार को, उसकी नागरिक
स्वतंत्रता को बाधित करते हैं। स्त्रियाँ लगभग हर समाज में आर्थिक रूप से कम सुदृढ, आश्रित , शैक्षणिक रूप
से कमज़ोर हैं तो उनपर इन नियमों, परम्पराओं की गाज़ सबसे ज़्यादा गिरती
आयी है। उन्हें पुरुषों की तुलना में दैहिक रूप से कम सबल बल्कि यूँ कहें कि अबला
माना गया है और ज़ाहिर है फिर उनकी देह, उनका सौंदर्य
किसी पुरुष के अधीन रखकर, उन्हें चारदीवारियों के बीच सुरक्षित
करने के सारे जतन किए गए हैं। सभी धर्मों में स्त्रियों को लेकर यही प्रवृत्ति रही
है जिसके लिए उनके बीच से ही सजग, चेतनशील स्त्रियों ने आवाज़ उठाई है
और अब भी उठा रही हैं।
स्त्रीवादी विमर्श दरअसल एक अभ्यास है जो निरन्तर समय के अनुरूप स्वयं
को गढ़ रहा है। यह एक लंबी परम्परा में लगातार नए विचार जोड़कर विमर्श की एक परिपाटी
विकसित कर रहा है जिसका मुख्य उद्देश्य स्त्रियों को एक मनुष्य के तौर पर खुलकर
साँस लेने की आज़ादी दिलाना है। हम सबके अंदर धर्म, परिवार, समाज द्वारा गढ़
दी गयी निर्मितियाँ हैं, जिनपर लगातर दृष्टि रखते हुए, स्वयं को
परिष्कृत करते रहने की ज़रूरत पड़ती रहती है।
हिजाब, घूँघट और स्त्री अस्मिता: स्वचयन बनाम आरोपित निर्णय
इन दिनों हिजाब या बुर्क़ा की प्रासंगिकता पर दुनिया भर में बहसें चल
रही हैं। यूरोपीय देशों में लगाए गए निषेध से लेकर अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के
दुबारा नियंत्रण के बाद स्त्रियों को पुनः अदृश्य करने की हालिया घटनाओं से लेकर
हमारे देश भारत में कर्नाटक में उपजे विवाद तक ने स्त्रीवादियों को न सिर्फ़ चिंता
में डाला है, वे अल्पसंख्यक संस्कृति पर हुए हमले के मद्देनजर
एक वैचारिक उद्ध्वेलन की स्थिति में हिज़ाब के समर्थन में खड़े हो गए हैं और
हिजाब/बुर्के को एक स्त्री (नागरिक) का चयन, उसकी धार्मिक
अस्मिता के चयन से जोड़कर देख रहे हैं।
यह कुछ ऐसी ही स्थिति है जहाँ समय-समय पर हिन्दू संस्कृति के रक्षक
स्त्रियों को उनके ड्रेसकोड के बारे में आगाह करते आए हैं। कभी फ़टी हुई फ़ैशनेबल
जीन्स से उनकी संस्कृति और सामाजिक ढाँचा ढ़हने लगता है तो कभी स्कर्ट, जीन्स पर निषेध
लगाकर वह स्त्रियों से उनके स्वनिर्णय का अधिकार, उनकी पहनने
ओढ़ने की व्यक्तिगत स्वतंत्रता छीनने को आमादा हो जाते हैं। तब हिन्दुओं का एक बड़ा
तबका भी उनके साथ अपनी आवाज़ शामिल करता है। उसके अंदर स्वयं के अल्पसंख्यक होते
जाने, अपने अधिकारों के हनन का भाव भरता जा रहा है या भर दिया गया है।
हालिया समय में हिन्दू अस्मिता और संस्कृति के लिए अतिरिक्त
सजग/चिंतित एक वर्ग तो स्त्रीवाद के चयन के अधिकार को भी अपनी संस्कृति, संस्कारों को
मिटा देने के प्रयास के रूप में देख रहा है। उसे सुहाग चिन्हों, सुहाग एवं
संतान रक्षा के लिए किए जाने व्रत, उपवासों, स्त्री की
वैवाहिक स्थिति के अनुरूप उसे मंगल के अवसरों पर त्याज्य या स्वीकार्य मानने की
प्रवृत्ति पर उठाए गए तार्किक सवालों से दिक़्क़त है। उसे अपनी हर हिन्दू परम्परा का
दूसरा पक्ष दिखाते विज्ञापन या कला माध्यमों का विरोध करना है, उन्हें नष्ट कर
देना है। उसे परिस्थितिवश या स्वनिर्णय से एकल रह स्त्री से भी दिक़्क़त है क्योंकि
वह घर और परिवार की भारतीय मान्यता पर एक संकट की तरह है।
यह हाल के दो दशकों में पनपा एक नए क़िस्म का धार्मिक आतंकवाद है जो
अगर इसी तरह प्रभावी बनता रहा तो परिवार, संस्कृति, धर्म बचाने के नाम पर इसका सबसे अधिक दुष्परिणाम मुक्तिकामी, चेतनासम्पन्न
स्त्रियों को ही भोगना होगा।
यहाँ मैंने जानबूझकर मुक्तिकामी स्त्रियों को अलग से रेखांकित किया है
जो निरन्तर स्त्रीवादी विमर्श के अभ्यास द्वारा अपने अंदर और अपने ऊपर आरोपित
पितृसत्ता से स्वयं के परिष्कार के लिए अभ्यासरत हैं। यह संख्या अब भी अपेक्षाकृत
बेहद कम है।
समाज का एक बड़ा तबका अब भी भीड़ की तरह अपनी निर्मितियों पर सवाल करने
से बचता है। यथास्थिति को बनाए रखकर, धर्म, और सत्ता (
परिवार और राज्य दोनों की) के अनुरूप चलना उनके लिए सुविधाजनक और लाभकारी होता है
धारा के विपरीत चलने का पर्याप्त साहस जुटाकर समाज/परिवार से अलग थलग पड़ जाने का
भय, समाज और राज्य द्वारा द्रोही घोषित कर दिए जाने का भय भी एक प्रमुख
कारक है।
युगों बाद भी जब हिन्दू समाज मनुस्मृति के इस श्लोक से अदृश्य रूप से
संचालित हो - पिता रक्षति कौमारे/ भर्ता रक्षति यौवने/ रक्षन्ति स्थाविरे
पुत्रा:/न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हति:
या मुस्लिम समाज जो कुरान की इन आयतों द्वारा संचालित हो - say
to the believing women that: they should cast down their glances and guard
their private part (by being chaste)....(24:31)
....and not display their beauty except
what is apparent, and they should place their khumur over their bosoms...(24:31)
ऐसे सामाजिक परिदृश्य में यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि स्त्रियों
द्वारा किया गया कोई भी चयन वास्तव में उनके स्वविवेक से है या अप्रत्यक्ष रूप से
धर्म, सत्ता परिवार ने उसमें हस्तक्षेप कर उसे उनके मस्तिष्क में आरोपित
किया है।
सुहाग चिन्ह धारण पति की आयु
की रक्षा के लिए व्रत उपवास करने वाली अधिकांश हिन्दू स्त्रियाँ इसे या तो प्रेमवश
लिया गया निर्णय बताती हैं या अपने विवेक से उठाया गया क़दम जबकि इस निर्णय के पीछे
सामाजिक, धार्मिक निर्मिति का एक लंबा हस्तक्षेप है जो व्यक्ति के जन्म के साथ
ही उसके परिदृश्य में संचालित हो जाता है और धीरे- धीरे उसकी सोच का हिस्सा बनकर
ख़ुद को 'नॉर्मलाइज़' कर लेता है।
ग़ौरतलब है कि ये सभी धार्मिक ग्रन्थ स्त्रियों के साथ पुरुषों के लिए भी
नैतिकता के मानक तय करते हैं लेकिन जिन्हें बड़ी ही सहजता से दरकिनार किया जाता रहा
है। स्त्रियों के मामले में उन्हें कोड ऑफ़ कंडक्ट की तरह प्रतिष्ठित कर दिया गया
है जिसका उल्लंघन होने की स्थिति में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सामाजिक दण्ड
का विधान भी है।
धार्मिक प्रतीक: भय और असुरक्षा से संचालित
विरोध और समर्थन
बात फिर चयन के अधिकार की आती है। इस बाबत तस्लीमा नसरीन से पुस्तक
मेले के दौरान हुई एक अनौपचारिक वार्ता याद आती है। मुस्लिम स्त्रियों द्वारा
स्वेच्छा से बुर्का या हिजाब के चयन पर उन्होंने एक बड़ी महत्वपूर्ण बात कही थी।
उनका मानना था कि यह दरअसल किसी समुदाय में अपनी अल्पसंख्यक पहचान को बचाए रखने की, अपनी विविधता को
क़ायम रखने का प्रयत्न अधिक है। यह एक तरह की असुरक्षा और भय है जो उन्हें रूढ़ हो
चुके प्रतीकों में भी अपनी सुरक्षा देखने को बाध्य करता है।
इसे पाकिस्तान या अन्य मुस्लिम राष्ट्रों में हिन्दू स्त्रियों द्वारा
अपनी हिन्दू पहचान के प्रतीकों के बारे में अत्यंत सजग रहने की कोशिश से समझा जा
सकता है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि तस्लीमा स्वयं एक मुखर स्त्रीवादी
एक्टिविस्ट हैं जो लगातार बुर्का, हिजाब आदि के विरोध में खुलकर लिखती आई हैं। हाल में
ही संगीतकार ए.आर. रहमान की बेटी ख़दीजा के बुर्कानशीं रूप पर उनका विरोध और फिर
उसके उत्तर में उन दोनों का लंबा ट्विटर युद्ध भी याद आता है। तस्लीमा का विरोध था
कि ए. आर. रहमान जैसे संवेदनशील कलाकार भी अपने परिवार की स्त्रियों को बुर्के की
क़ैद में रखते हैं जिसके उत्तर में ख़दीजा उसे स्वचयन बता रही थीं।
यह स्वचयन की बात ही बहुत पेचीदा है जिसके कई आयाम हैं। अलग अलग देशों
और वहाँ के समाज के अनुरूप इस स्वचयन शब्द के भी कई अर्थ खुलते हैं और इसके पीछे
की धार्मिक राजनीति भी अपनी प्रबल भूमिका में दृष्टिगत होती है।
अपनी स्त्रियों को जीवन के आधारभूत अधिकारों से भी वंचित कर, उनकी उपस्थिति को
काले नक़ाब और घर की चारदीवारियों में क़ैद करने वाले तालिबान शासित समाज के क्रूर
दमन के बाद भी वहाँ कुछ जागरूक स्त्रियों ने अपने नागरिक अधिकारों के लिए मुखर
आंदोलन ज़ारी रखा है। वे बुर्क़े और हिज़ाब को अनिवार्य करने के तालिबानी आदेश के
ख़िलाफ़ सड़कों पर उतरी थीं। काबुल की वक़ील असरा स्टनिकजाई उनमें से एक हैं। वह बताती
हैं कि तालिबानी सत्ता के औरतों से उनकी नौकरियाँ, शिक्षा का
अधिकार छीन कर उन्हें अदृश्य कर देने की साजिश के पीछे उन जैसी कई औरतें बेख़ौफ़
होकर बोल रही थीं, आंदोलन रत थीं जबकि उनकी जान को ख़तरा था।
तालिबान ने रेस्त्रां और अन्य सार्वजनिक स्थलों पर यह पोस्टर लगा दिए हैं कि शरिया
के अनुसार मुस्लिम औरतों के लिए हिज़ाब पहनना ज़रूरी है। वहाँ ज़बरन अपनी नौकरी,
अपनी शिक्षा छोड़कर घर बिठा दी गयीं औरतों का मानना है कि बुर्क़ा
तालिबान के लिए वह औज़ार है जिसके ज़रिए वह औरतों को सामाजिक स्तर पर निर्वासित कर
देना चाहते हैं। यही वज़ह है कि कुछ औरतों ने सार्वजनिक रूप से अपना बुर्क़ा जलाया लेकिन
उन्हें रातों रात ग़ायब कर दिया गया। फ़िलहाल औरतों ने सड़क पर आंदोलन बन्द किया है।
तालिबान के व्यवस्था को नहीं स्वीकारने के हालत में देश छोड़ देने के आदेश के बाद
भी असरा जैसी कई स्त्रियाँ वहां स्त्रियों के अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं और देश
नहीं छोड़ना चाहतीं।
वहीं फ्रांस ने 2011 में स्त्री के समान अधिकारों की बात करते हुए बुर्के और नक़ाब पर पूरी तरह प्रतिबन्ध लगा दिया था जिसके विरोध में मुस्लिम
स्त्रियाँ लगातार प्रदर्शन करती रही हैं। वहाँ वे बुर्के को अपनी सांस्कृतिक पहचान
के तौर पर देखने हुए उसे पहनने या नहीं पहनने का निर्णय स्वयं करना चाहती हैं। सरकार
के इस निर्णय को अलगाववादी बताते हुए वे लगातार इसके विरुद्ध आंदोलनरत हैं जो
हिंसक रूप भी अख़्तियार करता जा रहा है।
चीन, डेनमार्क, जर्मनी, बेल्जियम, श्रीलंका, नीदरलैंड, इटली आदि कई देशों ने अपने सार्वजनिक स्थलों पर बुर्क़ा पहनने को प्रतिबंधित कर रखा है।
कई देशों के अनुसार ऐसा उन्होंने आतंकी हमलों से सुरक्षा के मद्देनज़र किया है।
जबकि मानवाधिकार कार्यकर्ता इसे दुनिया में बढ़ते 'इस्लामोफ़ोबिया'
से भी जोड़ते हैं। वे इस प्रवृत्ति की लगातार ख़िलाफ़त करते हैं जो
धर्म विशेष को आतंक से जोड़कर देखती है। यही कारण है कि एक फरवरी को ये मानवाधिकार
कार्यकर्ता विश्व हिज़ाब दिवस के रूप में मनाने लगे हैं।
भारत और इस्लामोफ़ोबिया
भारत में भी 'इस्लामोफ़ोबिया' की यह स्थिति
धीरे धीरे बहुत प्रभावी होती जा रही है। हमारे संविधान की प्रस्तावना जिस सामाजिक,
आर्थिक, राजनैतिक न्याय के साथ व्यक्ति मात्र
को विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास,
धर्म और उपासना की स्वतंत्रता देती है, लोक
द्वारा चुने जाने के बाद भी प्रजातांत्रिक सरकार अपने व्यक्तियों को वह विश्वास
नहीं दे पा रही है कि उनके अधिकार इस देश में सुरक्षित हैं। राजनीति ने भय और
विभेद की स्थिति उत्पन्न कर हमेशा से ही धर्मों , जातियों को
आपस में लड़वाया है और अपना वोट बैंक तैयार किया है। हाल के दशकों में अप्रत्यक्ष
रूप से राज्य सत्ता भी एक विशेष धर्म द्वारा संचालित होकर अल्पसंख्यकों के लिए भय
और असुरक्षा का वातावरण तैयार कर चुकी है। धर्म द्वारा संचालित इस सत्ता द्वारा
स्कूलों में सरस्वती वंदना का गान तो एक ‘नॉर्मलाइज़’ आचरण है लेकिन वहीं हिजाब या बुर्का पहनकर आना एक ख़ास धार्मिक पहचान का
सूचक है।
जब एक धर्म विशेष के नारे के साथ आप किसी की मज़हबी पहचान को छीन लेने के लिए गुंडागर्दी पर उतर आएंगे तो वह उस पहचान के प्रति विशेष रूप से सजग होगा ही, भले ही वह कितनी भी रूढ़, प्रतिगामी एवं अतार्किक हो। ऐसी स्थिति में एक आरोपित चयन भी उन्हें अपना चयन लगने लगता है।
बुर्क़ा, हिजाब आदि के मामले में होना तो यह चाहिए कि उनके विरुद्ध आवाज़ समुदाय के भीतर से उठे। होना यह चाहिए कि तस्लीमा, असरा, शीबा असलम फहमी जैसी अन्य और स्त्रियाँ बेख़ौफ़ होकर अपने धर्म द्वारा स्त्रियों के शोषण पर बात करें और आंतरिक सुधार, वैज्ञानिक, तार्किक दृष्टिकोण से संचालित जीवनशैली, स्त्रियों की बेहतर सामाजिक स्थिति के लिए निरन्तर प्रयास जारी रखें। यह हो भी रहा है और शिक्षा, आर्थिक स्वतन्त्रता के साथ ऐसी मुक्तिकामी मुस्लिम स्त्रियों की संख्या बढ़ेगी जो अपने समुदाय की स्त्रियों के नागरिक अधिकारों के लिए आवाज़ बुलंद कर पाएँगी।
स्त्री को आवरण या पर्दे में रखने से सम्बंधित हर प्रयास हर धर्म में, हर समाज में
प्रतिगामी ही है जो स्त्रियों को उनके मनुष्य होने के अधिकार से वंचित करता है। यह
ज़रूरी है किसी भी बाह्य दबाव में ऐसे प्रतिगामी प्रतीकों का समर्थन नहीं किया
जाये। एक धार्मिक कट्टरता के विरोध में हम दूसरी धर्मांधता को बढ़वा नहीं दे सकते
जो स्त्री मुक्ति के सदियों पुराने संघर्ष को एकदम से बहुत पीछे धकेल सकता है।
धर्मांधों के विरुद्ध मुक्ति का आह्वान करती सैकड़ों मुस्लिम स्त्रियों की बेखौफ़
आवाज़ भी इससे कमज़ोर ही पड़ेगी। हमारे देश के बुद्धिजीवियों और स्त्रीवादियों को यह
समझने की आवश्यकता है।
कोई भी चेतना सम्पन्न, जागरूक स्त्री ख़ुद
पर समाज द्वारा थोपे गए हर आवरण के पीछे की मानसिकता को देर सवेर समझ ही लेगी और
उसके विरुद्ध तन कर खड़ी होगी। वह समझेगी कि किस तरह हर धर्म और समाज अंततः उसकी
व्यक्ति गरिमा का हनन कर उसे देह में रिड्यूस करने को ही आमादा है। ऐसी देह जो
अंतिम अवस्था तक उपभोग मात्र की चीज़ है, जो पुरुषों द्वारा
संचालित समाज के लिए हर दृष्टि में लाभकारी रहने के लिए ही तैयार की जाती है।
फ़िलहाल तो हमारा भारतीय समाज
धीरे -धीरे इतना कट्टर और आतंकी होता जा रहा कि वह मुस्लिम स्त्रियों को ऑनलाइन
बेचने जैसा जघन्य अपराध करने में भी नहीं हिचक रहा है। जहाँ भोजन और परिधान जैसे व्यक्तिगत
निर्णय के कारण भीड़ द्वारा किसी को खुलेआम मौत बाँटी जा रही हो और जहाँ यह सब ईश्वर
के जयकारे के साथ हो रहा हो तो मुस्लिम समुदाय में बढ़ती असुरक्षा और अपने प्रतीकों
को सहेजने के प्रति उनके अतिरिक्त लगाव को समझा जा सकता है। यह ज़रूरी है कि इस समय
धर्मों के बीच आपसी संवाद और सम्मान बढ़ाने की कोशिश की जाए और धर्म संचालित
राजनीतिक षड्यंत्र को पहचान कर हर क़िस्म की कट्टरता के खिलाफ़ एकजुट हुआ जाए।
स्त्रियों के लिए एक भयमुक्त और समतामूलक समाज के निर्माण की कोशिश जारी रखी जाए जहाँ
हर स्त्री को वास्तविक अर्थों में स्वनिर्णय का अधिकार मिले।
अंतत: हम सब को ऐसा देश ही चाहिए जहां ‘मस्तिष्क बिना भय के हो, जहां सिर गौरव से ऊंचा रहे’।
* रश्मि भारद्वाज लेखक, अनुवादक और स्त्री विमर्शकार हैं