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मैसेंजर (‘संवदिया’ के अमर शिल्पी फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ से क्षमा याचना सहित)- राकेश बिहारी





राकेश बिहारी कथा और कथालोचना दोनों विधाओं में समान रूप से सक्रिय एक सुपरिचित नाम हैं।  आज फणीश्वरनाथ रेणु की पुण्यतिथि के अवसर पर पढिए राकेश बिहारी की नयी कहानी 'मैसेंजर' जो रेणु की प्रसिद्ध कहानी 'संवदिया' से आगे की कथा कहती है। 

              



आज सुबह से ही रेणुग्राम की आबोहवा में एक खनकदार हलचल है। सियादुलारी रसोई पानी का काम जल्दी निबटा लेना चाहती है। सुना है, कोलकाता से नीलाम्बर संस्था की एक टीम आई है। उन्होंने बड़ी बहुरिया की कहानी पर कोई फिल्म बनाई है और आज रेणुजी के दरवाजे पर उसका पहला प्रदर्शन करने वाले हैं।  

 

बड़ी बहुरिया बहुत कम उम्र में चली गईं। अबतक उनके बारे में उसने जो कुछ भी जाना है, सब मोदिआइन काकी के मार्फत। आज वह साक्षात उन्हें फिल्म के पर्दे पर देखेगी। मोदिआइन काकी की उम्र कोई नब्बे-पंचानवे साल होगी। नज़र जरूर उनकी धुंधली हो गई है, पर आवाज़ में अब भी पीतल की-सी खनक मौजूद है। जब कभी वे अपनी लय में होती हैं, सियादुलारी से यह कहना नहीं भूलतीं कि तुम्हें देख मुझे बड़ी बहुरिया की याद हो आती है। मोदिआइन काकी ने उसे पाँच दिन पहले से कहलवा रखा है- "कनिया, हमको भी ले चलना, बड़ी बहुरिया की फिलम देखने, बड़का बउआ से कहकर हमने अपने चश्मे की कमानी ठीक करवा ली है।"

 

वैसे तो हर साल आज के दिन गाँव की रौनक बढ़ जाती है। जिला प्रशासन के लोग रेणु की मूर्ति पर माला चढ़ाने जरूर आते हैं। पर इस बार उनकी सौवीं जयंती है, इसलिए खास भी। उनके घर को गेंदा-गुलाब के फूल, केले के थम्ब और अशोक के पत्तों से सजाया गया है। रामेसर साह की बैलगाड़ी, जिसे अब कोई नहीं पूछता, को आज के खास दिन के लिये सजा-संवार कर रेणु जी के दरवाजे पर लगे पंडाल के बाहर बाईं तरफ लगाया गया है। बैलगाड़ी की सजावट को देख ऐसा लगता है जैसे अभी उसके पर्दे के भीतर से हीराबाई झांकेगी और हिरामन उससे मुट्ठी भर चूड़ा के साथ पाव भर दही के जलपान का आग्रह करेगा। कार्यक्रम में आनेजाने वालों के लिये यह बैलगाड़ी सेल्फी पाइंट का काम कर रही है।

 

रेणुजी के घर का ओसारा मंच बना हुआ है, जिस पर लोग बारी-बारी से भाषण कर रहे हैं। इन भाषण करनेवालों में स्थानीय साहित्यकार से लेकर प्रशासन के अधिकारी तक सब शामिल हैं।  ओसारे के पीछे आँगन में बैठीं उनकी छोटी बहन मनोरमा, जिसे रेणुजी के छोटे पुत्र उनकी कहानी 'ठेस' की मानू बताते हैं, हर आनेजानेवालों को आशीष दे रही हैं...   

 

सिनेमा की प्रतीक्षा में आसपास के लोग भाषण सुनने को मजबूर हैं। पूरे तीन घण्टे की प्रतीक्षा के  बाद पंडाल में खास इस अवसर के लिए लगाये गए एल ई डी स्क्रीन पर बड़ी बहुरिया की कहानी जीवंत हो उठी है।     

 

टोले की कुछ महिलाएं अपना कामकाज निबटा कर तो कुछ उन्हें बीच में ही छोड़कर पंडाल के मेन गेट पर आ खड़ी हुई हैं। उनके साथ कुछ बुजुर्ग स्त्रियाँ भी हैं। कोलकाता से आई टीम का एक प्रतिनिधि उनसे पंडाल में लगी कुर्सियों पर बैठने का आग्रह करता है, पर वे सकुचाई सी बाहर ही खड़ी हैं। दो नौजवान भाग-भागकर वहीँ कुछ कुर्सियाँ लगा देते हैं। सबसे आगे की कुर्सी पर अपने चश्मे की कमानी संभालती मोदिआइन काकी के नब्बेसाला कानों में उन्हीं के शब्द सुनाई पड़ रहे हैं- "फिर काबुल का नाम लिया तो जीभ पकड़कर खींच लूंगी।" कौन कहेगा साठ साल बीत गये, जैसे कल की ही बात हो..."चुप रह मुंहझउँसे, निमोछिये..." अपने ही शब्दों पर पहले सकुचाती हैं मोदिआइन काकी और फिर मुस्कुरा उठती हैं, जैसे उन्हें याद भी नहीं कि तब काबुली वाले का नाम सुनते ही कैसे उनका गुस्सा सातवें आसमान पर जा चढ़ता था।

 

पंडाल के गेट को अपनी मुट्ठियों में थामे सियादुलारी की आँखें पर्दे पर चिपक-सी गई हैं। बड़ी बहुरिया की कहानी के हर टुकड़े में उसे अपने जीवन की छवियां दिखाई पडती हैं। वह अचरज में है कि साठ साल पहले किसी ने उसकी कहानी कैसे लिख दी थी।  

 

हरगोबिन अचेत बिस्तर पर पड़ा है। बड़ी बहुरिया गर्म दूध में एक मुट्ठी बासमती चूड़ा डालकर मसक रही है। सियादुलारी को माँ की याद हो आई...माँ साल में दो बार बिना नागा सनेस भेजा करती थीं। सनेस के दउरे में बासमती चूड़ा जरूर होता था, ढेंकी का कूटा बासमती चूड़ा। एक बार छठ में, ठेकुआ के साथ और दूसरी बार तिला सकरात में लाई, गुड़, तिलवा और दही के साथ। हालांकि तब गाँव में भी ढेंकी का चूड़ा मिलना बंद हो चुका था। लेकिन माँ इस मौके पर खास किसी से कहकर इसका इंतजाम करवाती थीं। उसके पति विजय बाबू को हर साल तिला सकरात के सनेस का खास इंतजार होता था। सनेस आते ही वे स्वयं मलाईदार दही के साथ बासमती चूड़ा लेकर बैठ जाते थे। वह दो-दो महीने तक माँ का भेजा बासमती चूड़ा बचाकर रखती और धीरे-धीरे उसके स्वाद सुगंध का आनंद लेती रहती। साल के बाकी दिन तो वही मील का चालानी चूड़ा मिलता था...माँ के जाने के बाद एक बार भईया ने भी ठीक तिला सकरात के दिन सनेस भिजवाया था। उस बार का सनेस हर साल से अलग था, दउरा की जगह डाबर च्यवनप्राश का कार्टून, ढेंकी के बदले मील का कूटा बासमती कतरनी चूड़ा, मिट्टी की हांडी में माँ के हाथ जमाई मलाई वाली दही की जगह सुधा डेयरी की दही का पाँच किलो का डब्बा, काले तिल के लड्डू की जगह गया का खस्ता तिलकुट और साथ में भईया के हाथ लिखी एक छोटी सी चिट्ठी...

 

प्रिय दुलारी,

 

पिछले कई दिनों से बाजार में तिला सकरात की चहल पहल दिखाई पड़ रही थी...माँ लगातार याद आती रही... वह होती तो सबकुछ अपने हाथ से बना कर भेजती...मैं उनकी जगह तो नहीं ले सकता, पर जो भी हो सका है, भेज रहा हूँ...ऑफिस की एक जरूरी मीटिंग है, इसलिए खुद नहीं आ पा रहा हूँ, जल्दी ही आऊँगा।

 

विजय बाबू को कहना लैब पर ध्यान देंगे...शेयर के धंधे में पड़ने की जरूरत नहीं, उस चक्कर में बड़े-बड़े लोग कैसे डूब जाते हैं, पता नहीं चलता।

 

साथ में ओप्पो का एक मोबाइल है। ड्राइवर, नईम अपने गाँव का ही है, इजहार चाचा याद हैं न, उन्हीं का छोटा बेटा। उसे कह दिया है, वह तुम्हें मोबाइल चलाना सिखा देगा। मोबाइल में लाइफ टाइम वाला सिम कार्ड डलवा दिया है। बैलेंस की चिंता मत करना, मैं हर महीने रिचार्ज करवा दूंगा। हाँ, विजय बाबू कभी फोन के नाम पर ताना दें तो कोई जवाब मत देना।

 

अपना ध्यान रखना, फोन करना...

 भईया

 

चिट्ठी के हर्फ़-हर्फ़ में सियादुलारी को कभी भईया का तो कभी माँ का चेहरा दिखता रहा। माँ के नहीं होने का दुख तो कभी नहीं जानेवाला, पर भाई के भीतर भी एक माँ होती है, यह सोच-सोच कर उसकी आँखें गंगा-जमुना हुई जा रही थीं।

 

नईम उसके गाँव का है, यह जानना भर ही जैसे काफी था। इसके बाद वह महज ड्राइवर नहीं रहा। उसने कार्टून खोलकर सबसे पहले उसे ही दही चूड़ा परोसा। जाते वक्त उसके ना-ना कहने के बावजूद उसकी मुट्ठी में पचास रुपये का एक नोट जबरन थमा दिया था सियादुलारी ने।   

 

अगले ही साल नौकरी बदलकर भईया दुबई चले गये।  

 

माँ और भईया के साथ बासमती चूड़ा का स्वाद भी चला गया...

 

बड़ी बहुरिया की कहानी ने सियादुलारी के मुँह में बासमती चूड़ा के स्वाद की वही मिठास घोल दी थी…  

 

विजय बाबू मेडिकल लैब टेकनीशियन थे। फारबिसगंज में अपना लैब था। घरारी के अतिरिक्त दो  बीघा खेती की जमीन भी थी दो भाइयों के बीच, जो साल के छह महीने बाढ़ के पानी में डूबी रहती। फसल क्षतिपूर्ति के नाम पर हर साल सरकारी अनुदान मिलता पर उसका आधा हिस्सा अंचल कार्यालय का कर्मचारी एडवांस में रखवा लेता था। ऐसे में खेती का होना न होना दोनों ही बराबर था। इसलिए लैब की नगद कमाई के भरोसे ही बाबूजी ने उनसे सियादुलारी की शादी तय की थी। शुरुआती दो-तीन साल तो ठीक रहे विजय बाबूपर डॉक्टर बनकर बेतहासा पैसा और इज्जत कमाने का असफल सपना, जिन्हें घर परिवार के दबाव में उन्होंने अपनी शादी तक के लिये सुला रखा था, बीच-बीच में कुनमुनाता रहता। कभी शेयर बाजार की तरफ कदम बढ़ाते तो कभी कमेटी और चिटफंड की तरफ। पर हरबार कुछ न कुछ घर से ही पूंजी टूटती। लैब  की तरफ भी ध्यान कम हो जाता।

 

विजय बाबू बचपन से ही डॉक्टर बनना चाहते थे। इंटर पास करने के बाद चार साल तक पटना के मुसल्लहपुर हाट स्थित साहू लॉज में रहकर उन्होंने मेडिकल की तैयारी भी की थी। पर तब उनका मन पढ़ाई से ज्यादा कहीं और लगता था। साहू लॉज, महतो लॉज और परमार लॉज के त्रिकोण की राजनीति में मेडिकल की तैयारी पिछड़ती गई और वे...एक बार मोदिआइन काकी ने बताया था कि मेडिकल इंट्रेंस एग्जाम का परचा आउट कराने के केस में जेल जाने से बाल-बाल बच गये थे विजय बाबू।

 

शादी के तीसरे-चौथे साल किसी जोड़-जुगाड़ से विजय बाबू ने नेचुरोपैथी या एक्युप्रेसर का कोई सर्टिफिकेट खरीद लिया और देखते ही देखते विजय कुमार से डॉक्टर विजय कुमार हो गये। कुछ ही महीने में लाइफ लाइन जाँच घर की तख्ती लाइफ लाइन हॉस्पिटल के ग्लो साईन बोर्ड में बदल गई। बिना किसी औपचारिक प्रशिक्षण और पढ़ाई लिखाई के ही विजय बाबू के यूं रातोंरात डॉक्टर बन जाने से सियादुलारी भयभीत रहा करती थी। खासकर जब वे किसी गर्भवती स्त्री का पेट खोल देते, उसकी साँस तबतक अटकी रहती जबतक कि वह डिस्चार्ज होकर चली नहीं जाती। सरकारी चेकिंग के दौरान जब वे हॉस्पिटल बन्द कर भागे-भागे फिरते वह कई-कई रातें हनुमान चालीसा के भरोसे काट देती।  

 

ऐसी ही किसी चेकिंग में एक रात जो फरार हुए फिर लौटकर नहीं आये विजय बाबू...

   

उँगलियाँ घिस गईं दिन का हिसाब रखते-रखते, पर विजय बाबू का कोई पता नहीं चला। इधर कुछ दिनों से चुप-चुप ही रहा करते थे वे। उन्होंने कभी खुद से तो बताया नहीं पर एक दिन कपड़ा धोने के वक्त उनकी जेब में एक कागज देखकर उसे पता चला था कि उन्होंने कमिटी से तीन  लाख रुपये ब्याज पर उठाए हुए हैं। बैंक से पर्सनल लोन लेकर शेयर का कारोबार शुरू करने की बात तो उसे एक दिन बैजूजी से पता चल गई थी, पर कमिटी वाली बात उसके लिए बिलकुल नई थी। तब उसने बैजूजी की बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया था, पर अब उसके भीतर तरह-तरह की आशंकाएं सर उठाती हैं। कौन जाने अस्पताल के चेकिंग की बात झूठी हो और प्राइवेट बैंक के वसूली एजेंट ही उन्हें उठाकर ले गए हों...विजय बाबू स्वभाव से गुस्सैल और बहुत ही तुनकमिजाज हैं, कहीं किसी पेशेंट का केस खराब होने के बाद उसके दोस्त-रिश्तेदारों से ज्यादा उलझ न गए हों वे और उन्हीं में से किसी ने बदला...किसी अनिष्ट की कल्पना भर से भी मन सिहर उठता सियादुलारी का...

 

महीनों विजय बाबू के इंतज़ार में गाँव से फारबिसगंज और फारबिसगंज से पूर्णिया कलेक्टेरियट के चक्कर काटती रही सियादुलारी, लेकिन कुछ नहीं हुआ...

 

हरगोबिन पर्दे पर करवट बदल रहा है...उसे नींद नहीं आ रही। यह क्या किया उसने...वह किसलिए आया था और क्या कर गया...नहीं, वह सुबह उठते ही बूढ़ी माता को उनकी बेटी का संवाद सुना देगा- अक्षर-अक्षर, मायजी आपकी इकलौती बेटी बहुत कष्ट में है...आज ही किसी को भेजकर बुलवा लीजिये। नहीं तो वह सचमुच कुछ कर बैठेगी। आखिर वह किसके लिये इतना सहेगी...बड़ी बहुरिया ने कहा है, भाभी के बच्चों के जूठन खाकर वह एक कोने में पड़ी रहेगी...!"


सबने धीरे-धीरे आना-जाना छोड़ दिया। पर लैब के स्टाफ बैजूजी कुशल क्षेम पूछने हर शाम आया करते थे। उन्होंने ही एक दिन सलाह दी थी - “हर कोशिश तो कर ही रही हैं। क्यों नहीं डॉक्टर साहब के गुम होने की सूचना आप फ़ेसबुक पर भी डाल देती हैं?”

 

फ़ेसबुक की बात सुनकर सियादुलारी को एकबार फिर भईया के सनेस और मोबाइल की याद ताज़ा हो आई...विजय बाबू ने तब खुद आगे बढ़कर उसके मोबाईल में फ़ेसबुक अकाउंट बना दिया था। शुरू में उसका अकाउंट वे खुद ही चलाया करते। कभी कोई मैसेंजर में मैसेज करता तो उसकी तरफ से स्वयं ही जवाब भी दे देते। सियादुलारी को शुरुआत में यह सब ज्यादा समझ में नहीं आता था। पर धीरे-धीरे उसने भी फ़ेसबुक चलाना सीख लिया। अब वह खुद से प्रोफ़ाइल फ़ोटो बदल लेती, लोगों के मैसेज के जवाब भी दे दिया करती। एक दिन किसी ने मैसेंजर पर उससे अपनी तस्वीर भेजने को कहा था। सियादुलारी ने जब यह बात विजय बाबू को बताई वे उस पर बेतरह नाराज हुए थे। उस रात उन्होंने खाना भी नहीं खाया था। सियादुलारी ने बहुत सर खपाया पर उसे अपनी गलती का पता नहीं चला। दो-एक बार अपनी बात रखने की असफल कोशिश करने के बाद वह विजय बाबू के आगे चुप जरूर हो गई थी, पर उनके इस बेवजह गुस्से के जवाब में उसने अगले दिन न सिर्फ अपना फ़ेसबुक अकाउंट बंद कर दिया था बल्कि बिना कोई हील हुज्जत उस स्मार्ट फोन को डब्बे में पैक कर शादी में मिली उस लोहे की आलमारी में बंद कर दिया था, जिसे ब्रांडेड न होने के बावजूद सब गोदरेज ही कहा करते थे। दो-एक बार विजय बाबू ने उससे मोबाइल निकालने को कहा भी, पर उसने जो निर्णय ले लिया था उससे हटने का सवाल ही नहीं था...उसके भईया ने भेजा था मोबाईल, कोई उन्होंने खरीद कर नहीं दिया कि उनकी मर्जी से चलेगा...शायद मन ही मन विजय बाबू भी सियादुलारी के इस निर्णय से सुकून ही महसूस कर रहे थे इसलिए उन्होंने भी उस बावत पूछना छोड़ दिया था।

 

बैजूजी की सलाह सियादुलारी को ठीक लगी थी। उसने मोबाइल फोन को कैद से मुक्त कर कोई डेढ़ साल से सोये पड़े अपने फ़ेसबुक अकाउंट को एक्टिवेट किया और विजय बाबू की गुमशुदगी के बारे में एक पोस्ट लिख डाला। लोग उसकी पोस्ट पर आते, सहानुभूति के दो शब्द लिखते और चले जाते। फेसबुक ने सियादुलारी का दुःख तो दूर नहीं किया पर दुखों का हिसाब रखते-रखते उसे उसकी आदत जरूर हो गई। विजय बाबू की गुमशुदगी के पोस्ट पर लोगों के रूखे-सूखे और प्राणहीन शुभकामना संदेशों को पढ़ते-पढ़ते वह कब अपनी प्रोफाइल फोटो पर लोगों के लाइक गिनने लगी उसे पता ही नहीं चला।

 

फेसबुक की भीड़ में एक चेहरा अपने नाम की तरह ही सबसे अलग था-  सार्थक संगीत! उसके पोस्ट, जो दरअसल पोस्टर हुआ करते थे, सियादुलारी को खूब भाते। धूसर रंगों से बने उदास चित्रों पर चटक रंग की कोई खास लकीर या कोई लघु आकृति...और चित्र के किसी एक खाली कोने पर हाथ से लिखा किसी पुराने फिल्मी गीत का अंश या किसी गज़ल का कोई छोटा-सा टुकडा...रंग, लकीर, शब्द और लिखावट...सब मिलकर सियादुलारी पर किसी जादू का-सा असर करते...वह घंटों उन पोस्टरो में खोई रहती..अक्सर उन तस्वीरों को लाइक करती...सारा दिन घर-बाहर के काम में लगी रहने के कारण रात को सोने से पहले ही वह फेसबुक पर जा पाती। तब अमूमन ग्यारह बज रहे होते ...ऐसी ही किसी एक रात सार्थक ने एक पोस्टर पोस्ट किया था...’अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजौ...’इस पोस्टर ने सियादुलारी को दादी की याद दिला दी...दादी अक्सर गाती थी एक गीत- ‘अगले जनम मोहे बिटिया न कीजौ, चाहे नरक दीजौ डार...’ दादी, दादा की पहली बीवी थीं, उनसे कोई औलाद नहीं हुई, यही था उनका वह अपराध, जिसके कारण पहली होकर भी वह हमेशा दूसरे दर्जे का जीवन जीती रहीं। दादी जब यह गीत गातीं उनकी आवाज़ में अथाह दर्द का सोता बह रहा होता...चौंकी थी सियादुलारी सार्थक के पोस्ट पर...’अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजौ...’पहले तो उसे लगा, गलत लिख दिया है उसने वह गीत...पर अगले ही पल उसे समझ आ गई थी उस पोस्ट की खासियत. उसने उस रात पहली बार सार्थक के पोस्ट पर कमेंट भी लिखा था- “काश! दुनिया के सारे मर्द आप जैसे होते!”

पलक झपकते ही सार्थक मैसेंजर में हाजिर था- “आपकी तारीफ का शुक्रिया!”

“मैंने जो महसूस किया, वही लिखा है, आप इस तारीफ के काबिल हैं।”

“जवाब में सार्थक ने दो बार हाथ जोड़े थे।”

उस रात दो बजे तक मैसेंजर में उनका संवाद चलता रहा। जैसा कि सार्थक ने बताया था वह पटना में किसी न्यूज पोर्टल का ब्यूरो चीफ था।  

     

सार्थक के साथ देर रात बातचीत का यह सिलसिला चल निकला था। खुश थी सियादुलारी एक दोस्त को पाकर, जिससे अपना सुख-दुख बेहिचक बांट सकती थी वह...सार्थक की भाषा पर उसके नाम के दूसरे हिस्से का असर था...उसकी संगति में सियादुलारी की भाषा भी बेहतर हुई जा रही थी... सार्थक के शब्द किसी नर्म फाहे-से उसके तन-मन पर पड़ते और वह सहज भाव से अपना अतीत और वर्तमान उसके सामने खोलकर रख देती...वह अब खुद को पहले से ज्यादा सुरक्षित और मजबूत समझने लगी थी...सार्थक ने उससे खुद ही कहा था कि वह मंत्री जी से कहकर उसके केस में जिला प्रशासन पर दबाव डलवायेगा...वह चाहता था कि एक बार वह पटना आ जाये तो मंत्रीजी से उसकी मुलाकात भी करवा दे...उसने मन ही मन पटना जाने की तैयारी भी शुरु कर दी थी कि ऐसी ही किसी रात सार्थक ने मैसेंजर में उसे एक द्विअर्थी चुटुकुला भेजा था...और उसके ठीक बाद एक उसी तरह का पोस्टर भी...सार्थक की इस हरकत पर हैरान हुई थी सियादुलारी। वह तत्काल और हमेशा की तरह गुड नाईट लिखे बिना ही फेसबुक से बाहर आ गई थी...सारी रात वह सोचती रही उसके बारे में...आखिर कौन सा सार्थक असली है, आज की रात वाला या उससे पहले का...? वह देर रात तक मैसेज करता रहा-

 

चुप क्यों हो?

शरमा रही हो क्या?

कहाँ गई..?

बुरा मान गई क्या?

तुम तो बिलकुल किसी देहाती लड्की की तरह छुईमुई हुई जाती हो...

अच्छा बाबा, सॉरी ...

सिया...या...या...या...या  

कान पकड़कर सॉरी, अब नहीं होगा कुछ ऐसा...

 

ठीक है कि वह किसी बडे शहर में नहीं रहती, किसी बडे कालेज युनिवर्सिटी से उसने पढाई भी नहीं की...पर ऐसी डबल मीनिंग वाली बातों का मतलब खूब समझती है वह...सियादुलारी के विश्वास का शीशा फ्रेम में लगे-लगे ही चटक गया था...उसने सुबह के पांच बजे जवाब दिया-

‘हम देहाती लड़कियां ऐसी ही होती हैं, सार्थक। पर आप ऐसे हैं, मैंने नहीं सोचा था...आज से हम मैसेंजर में बात नहीं करेंगे। आप अपनी तरफ से कोई सम्पर्क नहीं कीजिएगा...आपके पोस्ट हमेशा से अच्छे लगते रहे हैं...पर अब शायद उन पर भी भरोसा करना मुश्किल होगा...फिर भी आपको ब्लॉक नहीं कर रही कि कभी मन हो तो यदा-कदा आपके पोस्टर देख सकूं...’

 

सियादुलारी ने भले उसे कह दिया हो कि वह सम्पर्क न करे, पर मन के भीतर उसके इंतज़ार की एक महीन रेखा अब भी बची थी...उसे आश्चर्य हुआ था कि हर रात अपने संवादो में शहद और संगीत उड़ेलनेवाले सार्थक ने अगले दिन पलटकर एक मैसेज तक नहीं किया था...उसे उसके पोस्टर जबतब दिख जाते, वह हर बार रुक कर उन्हें देखती, अपने भीतर की दरकन को एक बार फिर से महसूस करती और बिना कोई प्रतिक्रिया दिये आगे बढ जाती...कुछ ही दिनों बाद जबलपुर की किसी कवयित्री ने उसके मैसेंजर का स्क्रीन शॉट लगाकर उसकी बारात निकाल दी थी। उस पोस्ट पर आए कमेन्ट से पता चल रहा था कि महिलाओं के इनबॉक्स में हाजिर होना उसका प्रिय शगल है...सियादुलारी ने राहत की सांस ली थी...’भगवान ने बचा लिया मुझे।‘ सार्थक ने उस दिन मुड़कर कोइ मैसेज नहीं किया इस पर उसे हुआ आश्चर्य भी उस दिन जाता रहा था...

 

विजय बाबू वाली पोस्ट किसी के कमेंट कर देने से जबतब ऊपर आ जाती, कुछ लोग फिर से इनबॉक्स में आकर संवेदना जताते। जो लोग उसकी प्रोफइल या पोस्ट पर कभी गलती से भी नहीं दिखाई देते, इनबॉक्स में उसकी सुंदरता की तारीफ करते न थकते थे।

 

सबके बोल समझती थी सियादुलारी...  

सबकी निगाहें पहचानती थी सियादुलारी...  

 

विजय बाबू का भले कोई पता नहीं चला हो, पर उनकी गुमशुदगी वाले पोस्ट पर आए एक कमेन्ट ने उसे बेतरह बेचैन कर दिया था... ‘जानकर बहुत दुख हुआ. विजय बाबू की सकुशल वापसी के लिए शुभकामना...’ माँ बचपन में उसे अक्सर एक कहानी सुनाती थी कि कैसे जनकपुर के विवाहपंचमी मेले की भीड़ में एक भाई-बहन बिछड़ गए थे और सालों बाद कैसे काठमांडू में दोनों की मुलाकात नौकरी करते हुए किसी मारवाड़ी सेठ के घर में हुई थी। सियादुलारी ने तब कहाँ सोचा था कि दुबई जा चुके भईया कभी उसे इस तरह फ़ेसबुक पर मिल जाएंगे। उसकी खुशी का ठिकाना नहीं था, खुशी से ज्यादा उसे आश्चर्य हुआ था... उसके पास रोज ही दर्जनों फ्रेंड रिक्वेस्ट आते थे, बहुत सोचसमझकर दो-एक का रिक्वेस्ट स्वीकार करती थी वह। पर आज पहली बार उसने किसी को अपनी तरफ से फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजा था।

 

दुबई जाने के बाद भईया से कोइ सम्पर्क नहीं रहा था...वह लाख जतन करती पर समझ नहीं पाती कि उसके राम जैसे भईया अचानक इस तरह कैसे बदल गये...वह बोले कि नहीं, मोदिआइन काकी खूब अच्छी तरह समझती थीं उसके मन का यह दुख...वह इशारे से समझातीं उसे कि जो अपनी मर्जी से चला गया उसका क्या सोग मनाना, पर सियादुलारी के लिये यह समझना असंभव जैसा था...एक दिन उसकी रोनी सूरत देख काकी ने बहुत सख्त लहजे में कहा था उससे...”एक बात साफ-साफ समझ लो कनिया, तुमको मीठ लागे चाहे तीत, ऐसा बहुत भाई देखे हैं हम, जो सिर्फ इस डर से ही दस कोस दूर भागते हैं कि कहीं बहिन के दुख-सुख में न खड़ा होना पड़े. हमको तो सोरह आना लगता है कि तुम्हारा भाई भी सिर्फ तुम्हारे ही दुख-सुख से दूर रहने के लिये बिदेस गया है...उसका रस्ता देखकर दुखी होना छोड़ दो...” दुख से ज्यादा गुस्सा आया था सियादुलारी को उस दिन काकी पर, लेकिन मन मसोस कर रह गई...वह समझती है कि यह उनके अपने अनुभव से उपजा ज्ञान है...और फिर उनसे भी बिगाड़ ले तो जाये कहाँ...एक वही तो हैं कि...सारी रात बचपन की गलियों में भईया के साथ घूमती रही सियादुलारी। देरतक जब नींद नहीं आई उसने अपना गोदरेज खोला और ओप्पो मोबाइल के डब्बे में सुरक्षित उनकी वही चिट्ठी निकाली जिसे उस साल तिला सकरात पर सनेस के साथ उन्होने नईम के हाथ भेजा था। चिट्ठी को बार-बार पढती...हर्फ-हर्फ को उंगलियों से छूती-सहलाती सियादुलारी की आंखें बार-बार छलछला आतीं...

 

अगली सुबह जब उसने फेसबुक का नोटिफिकेशन चेक किया, भईया उसके फेसबुक फ्रेंड बन चुके थे। सियादुलारी ने कहीं गहरे महसूस किया कि अब वह अकेली नहीं है। दूर दुबई में ही सही उसके भईया हैंवह अब भी उनकी चिट्ठी के असर में थी। उसने सोचा आज ही शाम मोदिआइन काकी को जाकर बताएगी कि मिल गये हैं उसके भईया। फेसबुक से ही पता चला पिछले ही महीने वह एक सुंदर सी गोलमटोल भतीजी की बुआ बनी है। उसने सोचा यदि वे लोग यहाँ होते तो छठी में उसने अपनी भतीजी के लिये जरूर काजल पारा होता...उसने मन ही मन हजारों मील दूर अपनी नई नवेली भतीजी के लिये हजार-हजार दुआयें मांगी...

 

भईया के साथ फेसबुक पोस्ट पर लाइक, कमेंट का सिलसिला भी चल निकला, कई बार वह मैसेंजर में संवाद भी भेजती उन्हें। देर-सबेर जवाब तो आता, पर उनके शब्दों में तिला सकरात वाली चिट्ठी की मिठास दूर-दूर तक नहीं होती...कुछ दिन तो उसने खुद को भरमाये रखा, पर उसे जल्दी ही यह अहसास हो गया था कि ये वो वाले भईया नहीं, जिनकी चिट्ठी उसने किसी कीमती जेवर की तरह सम्भाल कर रखी है। हाँ, कभी-कभार उनका वीडियो कॉल जरूर आता है, पर विजय बाबू की चर्चा करने से सायास बच निकलते हैं भईया। उनकी इस कोशिश को खूब समझती है सियादुलारी। उसे पता है जिस दिन उसने अपनी तकलीफ बताई, भईया का यह छठे छमाहे आने वाला वीडियो कॉल भी बन्द हो जायेगा। इसलिए वह भी कभी अपनी तरफ से विजय बाबू की चर्चा नहीं करती है उनसे।

 

मोदिआइन काकी से सब चिढ़ते हैं। पर वे उसे बहुत मानती हैं। खासकर विजय बाबू की फ़रारी के बाद उन्होंने उसे कदम-कदम सहेजा है। सियादुलारी को उन्होने ही बताया था कि काबुली वाले के चले जाने के बाद बहुत दिनों तक वह अक्सर उदास रहतीं। पर धीरे-धीरे उन्होंने खुद को बहुत सलीके से सम्हाला था। पूर्णिया के होलसेलरों से कपड़े लाकर सालों बेचती रही। जब उन्होंने विजय बाबू के गुम होने की बात सुनी, जैसे एक बार फिर काबुलीवाले के चले जाने के बाद का वह जख्म किसी पुराने वातरोग की तरह हरा हो गया। बड़ी बहुरिया के चल बसने के बाद से ही उन्हें अक्सर यह अहसास होता कि उन्होंने उनके साथ कुछ ज्यादा ही सख्ती कर दी थी। तब से लगातार एक अनाम अपराधबोध के साथ जी रही थीं मोदिआइन काकी। दुख से सीझी सियादुलारी को देख उन्हें लगा था जैसे ईश्वर ने उन्हें प्रायश्चित करने का एक मौका दे दिया है...जब भी वे सियादुलारी को देखतीं, उन्हें बड़ी बहुरिया का हश्र याद हो आता। शायद यही कारण था कि सालों से संचित उनके भीतर का अपराधबोध सियादुलारी को देख एक खास तरह के बहनापे या कि वात्सल्य में बदल गया था। विजय बाबू का पता लगाने के लिये कलेक्टेरियट का चक्कर काटती सियादुलारी को एक दिन उन्होने पूर्णिया के मारवाड़ी सेठ श्रीराम बंकाजी, का पता बताया था। उनके नाम एक खास चिट्ठी भी दी थी। मोदिआइन काकी की चिट्ठी का ही असर था कि बिना किसी जमानत के बंकाजी ने सियादुलारी को बेचने के लिये दस साड़ियाँ दी थी। शुरुआती पाँच साल सियादुलारी ने खूब साड़ियाँ बेचीं। पर पिछले कुछेक सालों से गांव-देहात में भी ऑनलाइन खरीद का चलन बढ गया है। डाकिया अब चिट्ठी पत्री नहीं लाता, अमेजन और फ्लिप्कार्ट के पैकेट लाता है। इस कारण उसका काम भी बुरी तरह प्रभावित हुआ है। बावजूद इसके दस साड़ियों से शुरू हुआ उसका व्यापार आज भी उसे खाने-कमाने लायक पैसे तो दे ही जाता है।

 

मोदिआइन काकी के साथ और सहयोग से पेट की आग पर तो काबू पा लिया था सियादुलारी ने। पर तन और उससे भी ज्यादा मन के भीतर धधकती ज्वाला में दिन रात जलती रहती वह। बिना कुछ कहे ही चले गए विजय बाबू। डॉक्टर कहाने और आपरेशन करने का इतना शौक था उन्हें, पर वह कहती रह गई, वे रोज आजकल पर टालते रहे, पर खुद पटना चलकर डॉक्टर से दिखाने तक को राजी नहीं हुए। तब लगता था कि रोजी-रोटी के चक्कर में बाल बच्चा के लिए नहीं सोच पा रहे, थोड़ी हालत सुधरे तो वे खुद ही डॉक्टर से दिखाएंगे...पर अब, जब वह दूर से परखती है उनके देह और मन की भाषा, तो लगता है, डरते थे वे डॉक्टर के पास जाने से कि कहीं उनकी उस मर्दानगी पर से पर्दा न उठ जाए, जिस पर जरूरत से ज्यादा भरोसा था उन्हें...जिस दिन भैंसुर ने जबरन उसे विजय बाबू के हिस्से की खेती से बेदखल किया था, जीवन में पहली बार सवाल-जवाब किया था उसने उनसे, पर जब नीयत ही खराब हो, तो तर्क कौन सुनता है...अकेली औरत ठठ नहीं पाई थी उनके आगे। उस दिन सवांग से ज्यादा औलाद की कमी खली थी सियादुलारी को। गोतनी के कुबोल तो जैसे हड्डी में बैठ गए हैं उसकी - “भतरखउकी, भैंसुर से जबान लड़ाती है...” उसने सचमुच उस दिन अपनी जबान से लगाम हटा लिया था- “मेरा मुंह मत खुलवाओ सलेमपुरवाली। गाँव में किससे छुपा है, फुलिया के साथ तुम्हारे भतार का लीला...तुम्हारे जैसी भतारवाली से बिना भतार का होना ज्यादा अच्छा...” गोतनी ने जवाब में उसे बैजूजी को लगाकर गाली दी थी। जुबानी महाभारत में भले उस दिन खूब तीर तलवार चलाए उसने, पर जब घर की दीवारों के बीच लौटी, निहायत अकेली थी सियादुलारी। फफकती, सिसकती वह सारी रात इस करवट से उस करवट बदलती रही...गौने में मिले पलंग के सिरहाने लगा आईना अकेला गवाह था उसकी हर उस रात का जब उसने विजय बाबू से डॉक्टर को दिखाने के लिए कितने-कितने मनुहार किए थे...वह बार-बार उस आईने को छूकर देखती जैसे उसमें विजय बाबू और अपनी औलाद का चेहरा टटोलने की कोशिश कर रही हो, पर हर बार उसके हाथ सिर्फ अपना ही चेहरा आता...सूखे हुए केश...उदास आँखें...जले हुए सपने...और बीच-बीच में गोतनी के जहरबुझे तीर...बैजूजी का हर शाम आना उसे अच्छा लगता है। एक वही तो हैं जिन्होंने साथ नहीं छोड़ा। लोगों को यह भी बर्दाश्त नहीं हो रहा...वे भी कबतक आएंगे, उनका भी घर-परिवार है...मन को कड़ा  करके सियादुलारी ने सोचा, कल से वह उन्हें आने को मना कर देगी...पर क्या कहेगी उनसे, किन शब्दों में मना करेगी उन्हें आने से...

 

मन ही मन खुद को तैयार करती सियादुलारी कुछ टूटे-बिखरे संवाद जोड़ती है...

 

“आपने हमारा बहुत साथ दिया बैजूजी...पर क्या करें कि हमारा किस्मत ही खराब है...आपका यह एहसान कभी नहीं भूलेंगे हम...आपको धन्यवाद देकर आपके इस एहसान से हम उरिन होना नहीं चाहते...जब कभी कोई जरूरत हुआ आपको फोन जरूर करेंगे...”

 

शब्द बनते हैं और बनकर बिखर जाते हैं...वह खुद भी नहीं जानती कि कल शाम तक ये संवाद साबुत भी रहेंगे या नहीं उसके भीतर... साबुत भी रहे तो क्या अपनी जुबान तक ला भी पाएगी, रेगनी के कांटे की तरह चुभनेवाले इन रूखे-सूखे शब्दों को? कौन मिलता है आज के जमाना में ऐसा...जब अपना घर तक का लोग मुंह फेर लिया, एक पैर पर साथ खड़ा रहे बैजूजी...बीडीओ से लेकर एस पी, कलक्टर तक के ऑफिस में साथ गये...उसकी यह बात सुनकर क्या सोचेंगे वे...? सियादुलारी का मन कलपने लगा...       

 

दादी से छुटपन में सुनी सुरंगा-सदाब्रिज की कथा की धुंधली यादें दुख के किसी सघन सोते की तरह बलबला उठीं सियादुलारी के भीतर...उनकी आवाज़ में घुली करुणा का कण-कण जैसे उसके रोयें-रोयें में हिलक रहा था...

 

‘सासू मोरा मरे हो, मरे मोरी गोतनी से, मरे ननद जेठ मोर जी...ई...ई

नहीं तोरा आहे प्यारी तेग तरबरिया से, नहीं तोरा पास में तीर जी...ई...ई

कौनहि चीजवा से मारलू बटोहिया के धरती लोटाबेला बेपीर जी...ई...ई...ई’

            

सियादुलारी न तो सुरंगा थी न ही उसके जीवन में कोई सदाब्रिज ही था, सास भी उसकी शादी से पहले परलोक सिधार चुकी थी और ननद तो कोई थी ही नहीं। लेकिन उस कथा में गोतनी और जेठ के मरने की बात ने उस रात उसके जख्म पर मरहम का काम किया था। हरगोबिन की कातर आवाज ने जैसे उस जख्म पर पड़े खुरन्ट को नोचकर अलग कर दिया है- “मैं तुम्हारा बेटा! बड़ी बहुरिया, तुम मेरी माँ। सारे गाँव की माँ हो!”

          

एल ई डी स्क्रीन पर चल रही बड़ी बहुरिया की कहानी ने सबको भावुक कर दिया है...पंडाल के गेट पर खडी महिलायें चुपचाप सिसक रही हैं, तो पंडाल के भीतर कुर्सी पर बैठे कुछ पुरुष भी रुमाल से अपनी आंखों के कोर पोंछ रहे हैं। तभी परदे पर दुख से भीजा और करुणा से सीझा कोई अदृश्य स्वर गूंज उठता है- 

 

“पैंया पडूं, दाढी धरूं, हमरो संवाद लेले जाहु रे संवदिया या या या...”

  

कदम-दर-कदम अपने जैसी लगती बड़ी बहुरिया की कातर आवाज़ सियादुलारी को बहुत गहरे तक बेचैन कर रही है...एक दर्द टभकता है उसके पोर-पोर में...एक से दूसरी और फिर दूसरी से अपनी पहली हथेली को विवशता से मसल रही है सियादुलारी...वह नाराज़ होना चाहती है बडी बहुरिया से...उसका वश चलता तो अभी उनके मुँह पर हाथ रख देती वह..."और कितना कड़ा करूँ दिल? माँ से कहना मैं भाई भाभियों की नौकरी करके पेट पाल लूंगी, लेकिन अब यहाँ और नहीं रह सकूंगी...कहना, यदि माँ मुझे यहाँ से नहीं ले जाएगी तो मैं किसी दिन गले में घड़ा बांधकर पोखरे में डूब मरूँगी...बथुआ साग खाकर कबतक जीऊँ? किसके लिये...किसके लिये?" 

 

पांच साल से ऊपर हो गये विजय बाबू को गायब हुये, पर सबकुछ जैसे कल की ही बात लग रही है...थाना से प्रखण्ड और फिर अनुमंडल से जिला ऑफिस तक की भागदौड...विजय बाबू के हिस्से की खेती की जमीन पर भैंसुर का कब्जा...हर शाम महीनों तक नियम से आकर कुशल-क्षेम पूछ्नेवाले बैजू जी का असहाय चेहरा...मोदिआइन काकी की स्नेह से गर्म हथेली...देर रात मैसेंजर में हालचाल पूछ्नेवालों के लिसलिसे शब्द...कोइ उत्तर न मिलने के बावजूद सालों से बिलानागा गुड मॉर्निंग और गुड नाईट के साथ आनेवाले लाल-गुलाबी, हरे-नीले फूल...और भी बहुत कुछ जिसका हिसाब किसी बही में अंकित न होने के बावजूद सियादुलारी के हर नफस पर दर्ज है...

 

“बडी बहुरिया मुझे माफ करो...मैं तुम्हारा संवाद नहीं कह सका... तुम गांव छोडकर मत जाओ, तुमको कोई कष्ट नहीं होने दूंगा...” ज्वर से पीड़ित हरगोबिन की आवाज़ में घुले दर्द ने मिन्नत की उंगली पकड ली है...    

 

मन ही मन पूरा गाँव छान मारती है सियादुलारी, पर दूर-दूर तक कहीं कोई हरगोबिन दिखाई नहीं पड़ता...खुद को जैसे ढाढस बंधाती है वह- नहीं चाहिए उसे कोई हरगोबिन...इनबॉक्स में संवेदना जताती कई जोड़ी आँखों की छवियां बन-बिगड़ रही हैं उसकी सजल आँखों में...पल भर पहले जिस बड़ी बहुरिया से किंचित नाराज़ होना चाह रही थी, उसे भींचकर अपने गले से लगा लेना चाहती है सियादुलारी...

 

फिल्म खत्म होते-होते सांझ घिर आई है...पंडाल के बाहर खड़ी महिलायें बिलाआवाज एक-एक कर अपने घर की तरफ सरक रही हैं...भीड़भाड़ से अलग दूसरे कोने पर खड़ी सियादुलारी मोदिआईन काकी का हाथ पकड़े धीरे-धीरे पंडाल के गेट की बाईं तरफ बढ रही है...

 

लाल-पीले झालरों और झंडियों से सजी बैलगाडी के सामने रुकी सियादुलारी, काकी के साथ एक सेल्फी क्लिक किया और आगे बढ चली...

 

रामेसर साह के गोहाल के बाहर कुछ लोग अलाव जलाने की कोशिश कर रहे हैं...गोयठे का धुआँ  शाम के झुट्पुटे के साथ मिलकर चारों तरफ कोहरे-सा छाने की असफल कोशिश कर रहा है...सियादुलारी ने सोचा, घर पहुंचकर वह सबसे पहले इस सेल्फी को फेसबुक पर पोस्ट करेगी...

 

देर रात रसोई समेटने के बाद सोने के ठीक पहले सियादुलारी हमेशा की तरह फेसबुक पर गई... बडी बहुरिया की कहानी जैसे फिल्म के पर्दे से निकल कर लगातार उसके साथ घूम रही है...दरवाजे पर, रसोई में...बर्तन-बासन से लेकर खाने-पीने की चीजों में...चापाकल के हैंडल से लेकर उससे निकलने वाले पानी में...और अब उसके कमरे से लेकर चटाई और रजाई तक में उसे कभी बड़ी  बहुरिया का चेहरा दिखाई पडता है तो कभी उसकी माँ का, कभी हरगोबिन की कातर कराह सुनाई पड़ती है तो कभी करुणा की आंच पर सीझी ‘हमरो संवाद लेले जाहु रे संवदिया...या...या... की उदास टेर...   

 

“बडी बहुरिया मुझे माफ करो...मैं तुम्हारा संवाद नहीं कह सका...” हरगोबिन की अवाज़ अब भी उसके साथ चल रही है...वह नहीं चाहती थी किसी हरगोबिन को अपने मायके भेजना, पर उसके जीवन में हरगोबिन जैसा कोई संगी-साथी भी न हो, ऐसा तो उसने कभी नहीं चाहा था...मोदिआईन काकी उसे बहुत मानती हैं, पर उनकी बुजुर्गी के कारण उनसे एक खास तरह की दूरी भी तो है... उसकी सेल्फी पर अबतक सौ से ज्यादा लाईक-कमेंट आ चुके हैं...बाकी दिनों की तरह आज उसने न किसी का कमेंट लाईक किया न किसी को शुक्रिया कहा...सीधे मैसेंजर तक गई...बिलालागा हाजिरी लगानेवाले लोग आज भी उसके चैट पैनल में अपने उन्हीं संवादों और फूलों के साथ सबसे ऊपर हाजिर हैं...वह हमेशा की तरह उन्हें छूती तक नहीं और एक लंबे अंतराल के बाद सर्ज इंजन में भईया का नाम खोजकर संदेश टाइप करने लगती है...

 

प्यारे भईया,

 

आज चार मार्च है- इस गाँव की शान रेणुजी का जन्मदिन! याद है, आज के दिन बचपन में हमलोगों को बाबूजी टांगा में बिठाकर अपने गाँव से उनकी समाधि तक ले आते थे... तब कहाँ पता था कि कभी यही गाँव हमारा ससुराल हो जाएगा। हाँ, तो आज रेणुजी की सौवीं जयंती के अवसर पर यहाँ बहुत बड़ा कार्यक्रम हुआ। मोदिआइन काकी के साथ हम भी रेणुजी की समाधि पर फूल चढ़ाने गये थे...उन्हें प्रणाम करते वक्त आँख बंद करते ही आपकी खूब याद आई, लगा मैं अचानक से कई साल छोटी हो गई हूँ और आप भी बचपन के दिनों की तरह मेरे बगल में खड़े हैं। तभी सोचा था कि बहुत दिन हुए, आज आपको संदेश लिखूँगी। 

 

जानते हैं, कोलकाता की नीलांबर संस्था के कोई ऋतेश पांडे हैं। उन्होंने रेणुजी की लिखी कहानी ‘संवदिया’ पर एक फिल्म बनाई है। आज के प्रोग्राम में वह फिल्म भी दिखाई गई। फिल्म में जब-जब बड़ी बहुरिया ने हरगोबिन संवदिया से अपने भाई की बात की, हमारी आँखों के आगे आपका चेहरा झिलमिलाता रहा।

 

आपको तो मालूम ही है कि विजय बाबू अचानक कहीं गुम हो गये। भैंसुर ने उनके हिस्से का खेत भी हड़प लिया, सबने मुंह फेर लिया...कोई दरवाजे पर झांकी पारने भी नहीं आता था...तब भी हर मिनट मुझे आप ही याद आते थे। लेकिन आपतक पहुँचने का तो दूर, आपतक अपना संवाद पहुँचाने का भी कोई पता हमको नहीं मालूम था। वो तो भला हो लैब के स्टाफ बैजूजी का, जिनके कहने पर हम फ़ेसबुक पर पोस्ट डाले और आप फिर से मिल गये...

 

मोदिआइन काकी कहती हैं, आप हमारे ही सुख-दुख के बोझ के कारण दुबई चले गए...पर मेरा मन इस बात का गवाही नहीं देता...हम जानते हैं, आप वैसे नहीं हैं, पर एक बात पूछें, आपने कभी हमको याद क्यों नहीं किया? क्या राखी के दिन भी आपको हमारी याद नहीं आती है?

 

आपको यह जानकर खुशी होगी कि दुख का इतना बड़ा पहाड़ टूटा, पर आपकी बहन एकदम नहीं टूटी है...पूर्णिया के मारवाड़ी सेठ के यहाँ से लाकर हम गाँव में साड़ी-कपड़ा बेचते हैं...भगवान के दया से रहने-खाने का कोई कमी नहीं। अब तो गाँव के लोगों से भी परनाम-पाती हो जाता है। कामधाम में समय कब कट जाता है पता ही नहीं चलता।

 

याद है, बचपन में, स्कूल से छुट्टी के वक्त लौटते हुए और सोने से पहले हमदोनों आपस में पूरे दिन की कहानी एक दूसरे को सुनाया करते थे...जब शादी हुई, लगा था विजय बाबू से भी उसी तरह सबकुछ कह-सुन सकेंगे...पर अपना सोचा सबकुछ कहाँ होता है...फ़ेसबुक पर दो-एक दोस्त भी बने, लेकिन...

 

दुबई जाने से ठीक एक साल पहले के तिला सकरात में सनेस के साथ जो चिट्ठी आप भेजे थे, हम सम्हालकर रखे हुए हैं। जब-जब बहुत अकेलापन लगता है, उसे निकालकर पढ़ लेते हैं...

 

एक बात कहें, मानिएगा? इस बार राखी में यहाँ आईये न। पूरे सात साल हो गए आपको  राखी नहीं बांधे हैं हम। कितना कुछ जमा हो गया है आपको बताने के लिए...आइएगा तो फिर रात-रात भर जागकर बात करेंगे हमलोग।

 

फ़ेसबुक पर भतीजी का फ़ोटो देखे, बहुत सुंदर है और बिलकुल आप पर गई है। उसको गोद में खेलाने का मन करता है...उसे बुआ का खूब सारा प्यार दीजिएगा और भाभी को प्रणाम।

 

आपकी एकलौती बहन, जो अब बहुत अकेली है...

दुलारी         

 

बाईं हथेली से अपनी पनियाई आँखों को पोंछती सियादुलारी के दाहिने हाथ की तर्जनी ने सेंट का बटन दबाया...फेफड़े में सुकून की एक लंबी सांस भरी... जाने कितने दिनों बाद आज मन कुछ हल्का हुआ है उसका...पर अगले ही पल जैसे वह आशंकाओं के किसी बीहड़ चक्रवात में फंस गई...यह क्या किया उसने...जाने भईया क्या सोचेंगे पढ़कर...जवाब देंगे भी कि नहीं...राखी में आने की बात पर चुप तो नहीं हो जाएंगे...क्या मोदिआइन काकी सही कहती हैं कि...????

 

भय और आशंका में डूबी सियादुलारी को कहीं गहरे यह अहसास हुआ कि यदि वह चाहती है कि भईया के साथ उसका बचा-खुचा रिश्ता भी बचा रहे, तो उसे यह संदेश नहीं भेजना चाहिए था। उसने गौर किया कि भईया ने अभी उसका संदेश नहीं देखा है और बिना कोई देरी किये जल्दी से पेश्तर चैट पैनल में गई, अपने मैसेज को सेलेक्ट किया और अनसेंड का बटन दबा दिया...

 

रात गहरी हो चुकी थी और सियादुलारी के भीतर एक छोटे से फ़ेसबुक पोस्ट का मजमून आकार ले रहा था...

 

जुकरबर्ग ने मैसेंजर तो बना दिया, लेकिन हरगोबिन जैसा संवदिया कौन बनायेगा…?’         

(हंस से साभार) 

 

***



 कथाकार परिचय  

 

 राकेश बिहारी







जन्म   : 11 अक्टूबर 1973, शिवहर (बिहार)
कहानी तथा कथालोचना दोनों विधाओं में समान रूप से सक्रिय

प्रकाशन  : वह सपने बेचता थागौरतलब कहानियाँ (कहानी-संग्रह)
        
     केंद्र में कहानीभूमंडलोत्तर कहानी  (कथालोचना)

सम्पादन :  स्वप्न में वसंत (स्त्री यौनिकता की कहानियों का संचयन),‘खिला है ज्यों बिजली का फूल’ (एनटीपीसी के जीवन-मूल्यों से अनुप्राणित कहानियों का संचयन), ‘पहली कहानी : पीढ़ियां साथ-साथ’ (‘निकट’ पत्रिका का विशेषांक) ‘समयसमाज और भूमंडलोत्तर कहानी’ (‘संवेद’ पत्रिका का विशेषांक)’बिहार और झारखंड मूल की स्त्री कथाकारों पर केन्द्रित 'अर्य संदेशका विशेषांक, ‘अकार- 41’ (2014 की महत्वपूर्ण पुस्तकों पर केन्द्रित)दो खंडों में प्रकाशित रचना समय’ के  कहानी विशेषांक।

वर्ष 2015 के लिए ‘स्पंदन’ आलोचना सम्मान से सम्मानित।

संपर्क: D 4 / 6, केबीयूएनएल कॉलोनीकाँटी बिजली उत्पादन निगम लिमिटेड,
पोस्ट– काँटी थर्मलजिला- मुजफ्फरपुर– 843130 (बिहार)
मोबाईल – 9425823033; ईमेल – brakesh1110@gmail.com

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