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सः गीत- एक हज़ार वर्ष पहले की क्लासिकी चीनी कविता : प्रियदर्शी ठाकुर ख़याल

 

 

 






सः गीत लगभग एक हज़ार वर्ष पहले क्लासिकी चीनी कविता की एक प्रमुख विधा थी जिसमें कवि अ-समान लम्बाई की पंक्तियों किन्तु गेय बहरों में गीत लिखा करते थे जिन्हें अक्सर पेशेवर गानेवालियाँ गाया करती थीं l

 

प्रस्तुत हैं ग्यारह विश्व-प्रसिद्ध सः गीतों के हिंदी अनुवाद वरिष्ठ रचनाकार, शाइर प्रियदर्शी ठाकुर ख़याल द्वारा- 


**

 


6 मार्च 2021 को अपने गाँव से लौटा तो देखा कि एक पोस्टकार्ड आया पड़ा है l सुखद आश्चर्य हुआ कि हमारे पुराने दिनों में चिट्ठी-पत्री का सर्वजन-सुलभ, सस्ता और पारदर्शी माध्यम पोस्टकार्ड अब तक चलता है l

 

निहायत बारीक, छोटे अक्षरों वाली हस्तलिपि में निराला नगर, भोपाल से 26 जनवरी 2021 को लिखा रमेश चन्द्र शाह जी का वह पत्र बड़ी मुश्किल से पढ़ने में आया l उन्होंने जो कुछ लिखा था वह पढ़ कर जी ख़ुश तो हुआ लेकिन कुछ संशय भी हुआ मन में : कहीं मह्ज़ औपचारिक अतिशयोक्ति तो नहीं ! ...लेकिन मैं तो व्यक्तिशः उन्हें जानता भी नहीं  l वे भला क्यों अकारण इतनी प्रशंसा लिख भेजेंगे l लिखा था :

 

“ प्रिय भाई, प्रियदर्शी ठाकुर ख़याल,

आशा है ‘तनाव’ (140) में छपा आपका यह पता अभी भी कारगर होगा l वैसे तो इस विकट समय में चिट्ठी का मिलना भी चमत्कार से कम नहीं, तो भी मुझे यक़ीन है मेरी आवाज़ आप तक अवश्य पहुँचेगी l

   आपने आज का दिन मेरा सार्थक कर दिया ... चीनी कविताओं के आपके द्वारा किये गए अनुवादों ने l कृतज्ञता के इस बोझ को मैं अभी तुरत हल्का कर लेना चाहता हूँ क्योंकि देर होने पर भूल जाने का ख़तरा है l

           बहुत ही विलक्षण अनुभव था इन कविताओं के आपके द्वारा किये गए हिंदी रूपांतरण को पढ़ना l मेरा कृतज्ञ भाव आप स्वीकार करें l मुझे कैसे यक़ीन होगा कि आप तक यह भाव पहुँचा ? हज़ारों कविताएँ पढ़ी होंगी विदेशी  - मगर इन्हें पढ़ने का अनुभव मेरे लिए अप्रत्याशित और विलक्षण था l तहे-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ आपका l पुनः आपको धन्यवाद और साधुवाद सहित,

आपका

रमेश चन्द्र शाह ”

 

किसीने मेरे काम की इतनी सराहना बहुत दिनों के बाद की थी l पोस्टकार्ड में लिखा मोबाइल नम्बर तत्काल मिलाया और शाह साहब से बात की l चार-पाँच दिन बाद शाह साहब के नाम निर्मल वर्मा के दो पत्रों वाला एक पोस्ट जानकीपुल.कॉम पर देखने में आया l मन और अधिक प्रसन्न हुआ कि इतने बड़े साहित्यकार को मेरे अनुवाद इस क़दर पसंद आये l उनके इस एक पोस्टकार्ड से इन कविताओं के अनुवाद में लगे दो वर्षों के जी-तोड़ परिश्रम के सार्थक होने का कुछ एहसास हुआ l

              

सन् 2015-16 के दौरान जब मैं इन चीनी सः गीतों के अनुवाद कर रहा था, मेरा परिचय “तनाव” पत्रिका के संपादक वंशी माहेश्वरी जी से हुआ और उन्होंने बड़ी कृपापूर्वक “तनाव” का दिसम्बर, 2016 का पूरा अंक (140) इन अनुवादों के एक चयन को दिया l बाद में ये कविताएँ अनूदित चीनी कविताओं के 2018 के मेरे संकलन “अब जान गया हूँ मैं” में शामिल हुईं l

 

 उल्लेखनीय है कि सः गीत लगभग एक हज़ार वर्ष पहले क्लासिकी चीनी कविता की एक प्रमुख विधा थी जिसमें कवि अ-समान लम्बाई की पंक्तियों किन्तु गेय बहरों में गीत लिखा करते थे जिन्हें अक्सर पेशेवर गानेवालियाँ गाया करती थीं l

 

प्रस्तुत हैं ग्यारह विश्व-प्रसिद्ध सः गीतों के मेरे हिंदी अनुवाद l  

-      -                     प्रियदर्शी ठाकुरख़याल

 ******************

 

 

तुमको न भूल पाए हम

 

सू शिः *

(सन् 1037 – 1101 ई.)

 

मारा-मारा फिर रहा हूँ

पिछले दस बरसों से इधर मैं

और उधर

सोई पड़ी हो तुम,

दबी

मिट्टी के अन्दर

 

यह नहीं कहता कि अक्सर

याद करता हूँ तुम्हें

पर भूल भी सकता हूँ कैसे

तुमको

मैं !

 

क़ब्र भी तो है तुम्हारी

पाँच सौ कोसों की दूरी पर कहीं

काश ! होता कोई

जिससे बाँट सकता

अपना दुख

सोचता हूँ

अब कहीं मिल जाएँ अगर हम

तो क्या मुझे पहचान भी पाओगी तुम ...

धूल की इन मोटी परतों से

ढका यह मेरा चेहरा,

पाले जैसे

सफ़ेद मेरे बाल ?

 

रात देखा स्वप्न में

लौट आया हूँ मैं घर ...

तुम सँवरती थीं

खिड़की पर खड़ी, बाल में कंघा फिराती

 

चुपचाप देखा किए हम

एक-दूसरे को

आँसुओं की धारें बहती थीं

हमारे गालों पर

 

आह ! अब तन्हा हूँ मैं

और

साथ देने को बस ये वीराना मेरा :

एक पहाड़ी

छोटे-छोटे देवदारों से घिरी

हर बरस आकर जहाँ

चाँदनी रातों में

बिलखा करेंगी मेरी नाकामियाँ

***





      *सू शिः (सन् 1037 – 1101 ई.) : सू शिः को सू तोंग्पो के नाम से भी जाना जाता है l वह उत्तरी सोंग वंश काल के अग्रणी कवि के रूप में विख्यात है l सू एक सिद्धहस्त चित्रकार व हस्तलिपिक भी था l वह बहुत से महत्वपूर्ण राजनयिक पदों पर रहा, लेकिन अपनी स्पष्टवादिता के कारण उसे कई बार निर्वासन झेलना पड़ा l उसने सः गीतों को एक नया और विस्तृत आयाम दिया और उस विधा की प्रतिष्ठा बढ़ाई l  मान्यता है कि यह कविता उसने अपनी पहली पत्नी ( जिससे वह बहुत प्रेम करता था और जो सत्ताईस वर्ष की अल्पायु में ही गुज़र चुकी थी ) को स्वप्न में देखने के बाद लिखी थी l कई जानकार लोगों ने इसे विश्व-प्रसिद्ध प्रेम कविताओं में शुमार किया है l

 

 

 

छः राजवंशों की राजधानी चिन्लिंग की याद में

 

      वांग आंशिः *

(सन् 1021 – 1080 ई.)

 

क्वाँर के अंत में

जब ठंढ ख़ासी पड़ने लगती है

ऊँची पहाड़ी से

आँखों पर देकर ज़ोर

मैं देखता हूँ उस ओर

प्राचीन साम्राज्य की राजधानी

हुआ करती थी जहाँ

 

नदी ...

जैसे एक तरल धारा

सफ़ेद रेशम की,

सैकड़ों मीलों तक

फैली हुई हैं सुनसान वादियाँ

हरियाली से ढके पहाड़ों के शिखर

जैसे विशाल बँसबिट्टियाँ

 

ढलते हुए सूरज ने

स्फूर्त कर दी हैं

नावों की पाल

और तेज़, पतवारों की चाल

पछिया हवा के झोंकों में

लरज़ती हुई

वायु-दिग्दर्शक पताका की डंडी

तिरछी खड़ी है थरथाराती

दूर क्षितिज पर

बादलों के धुँधल्के-से में

गुम होती जाती हैं

तरह तरह के रंगों वाली किश्तियाँ

झिलमिलाते हुए पानी पर से

उड़तीं

हाँज की हाँज चिड़ियाँ –

समा नहीं सकता

किसी एक तैल-चित्र में

सारा का सारा यह समाँ !

 

मुझे ध्यान आता है ...

इसी राजधानी में

धन-दौलत भोग-विलास की ख़ातिर

होड़ लगी रहती थी

योद्धाओं के दरमियाँ

 

अफ़सोस

दोहराता रहा ख़ुद को इतिहास

हमलावर द्वार पर करते अट्टहास

और महल-चौबारों में

होती रहीं रंगरलियाँ

दोहराती रही स्वयं को

दुख और पछतावे की त्रासदियाँ

एक हज़ार बरस तक

आते-जाते रहे यहाँ

सत्ता लोलुप यायावर

उत्थान और पतन के पथ पर  ...

कभी दंभ में फुलाए हुए सीना

कभी नतशिर, पहने हथकड़ियाँ

 

छः राजवंशों के बीते हुए युग

बह गए जैसे

दरिया के बहते पानी के साथ

अब बाक़ी रहा ही क्या है यहाँ !

मह्ज़ ठिठुरन भरी धुंध में लिपटी

गहरे हरे रंग की ख़ुशबूदार घास

और ‘पिछले आँगन के फूल’ वाले गीत की

कुछ वो पुरानी धुनें उदास ...

जिन्हें सुरबहार पर गा लेती हैं

यदा-कदा

पेशेवर गानेवालियाँ

 

  ***

 

                    





 

*वांग आंशिः (सन 1021 – 1080 ई.) : उत्तरी सोंग राजवंश काल का एक प्रतिष्ठित राजनयिक, लेखक और कवि था l सम्राट छेन्चोंग के शासन काल में प्रधानमंत्री भी रहा l वह अपनी कविता की सादगी और सूक्ष्म पकड़ के लिए प्रसिद्ध था l

 

 

 

 


प्रणय-गीत

 

ली यूइ *

(सन् 936 - 978 ई.)

 

 

उमड़ते बादलों के थक्कों जैसे हैं

उसके केश

मोतियों की लड़ी-सी

उसके दाँत

 

हल्के मलमल के स्कर्ट पर

लहराता हुआ चोगा

पहने है वह

 

उसकी नीलछाँही भवों पर

त्यौरी पड़ी है, बड़ी नाज़ुक-सी

 

साँय-साँय करती हुई, चल रही है

क्वाँर की अंधड़

और साथ लेकर आयी है

मूसलाधार झंझावात

 

खिड़की से बाहर

दीख पड़ते हैं

कई-एक कदली-स्तंभों के

भीगते हुए गात

 

आह !

न जाने वह काटेगी कैसे

तन्हा ...

यह

भारी

बोझल

रात !

       ***

        





*ली यूइ (सन 936-978 ई.) : सः गीत विधा का एक अग्रणी हस्ताक्षर है l ली हाउचऊ के नाम से भी जाना जाता है l वह दक्षिणी टैंग वंश का आख़िरी सम्राट था l सोंग वंश के प्रवर्तक व पहले सम्राट द्वारा परास्त होकर सन 976 ई. में बंदी बना लिया गया l दो वर्षों तक कारावास में रहने के बाद ब्यान्लिंग के बंदीगृह में उसकी मृत्यु हुई l कारावास के दो वर्षों में ली यूइ ने अनेक गीत लिखे l कहते हैं कि उन्हीं में से एक (जिसमें उसने अपनी मातृभूमि को बड़ी शिद्दत से याद किया था) उसके मृत्युदंड का कारण बन गया l वह गीत सोंग सम्राट को इतना अपमानजनक लगा कि उसने ली की मदिरा में ज़हर डलवा दिया l

 

 

 

 निःसीम दुख

 

  ली यूइ

 

ओ बसंत के फूलो !

ऐ क्वाँर के चाँद !

कब होगा तुम्हारा अंत ?

और सच पूछो तो

तुम जानते भी कितना हो

मेरा अतीत !

 

रात मेरी छोटी-सी कोठरी के

बाहर

चलती थी बसंत की बयार ...

चाँदनी में नहाये

अपने देस के बारे में

सोचना भी था

नागवार !

 

वो नक्क़ाशी की हुई मुंडेरें

वो ज़ीने संगमरमर के

सब होंगे, वहीं के वहीं अब तक

लेकिन आह ! जा चुका कब का

मेरे चेहरे पर से नमक

 

पूछते हो तुम

कि मेरे कंधों पर

दुखों का बोझ है कितना ?

तो सुनो, बहार की भरपूर बरसात में

चढ़ी हुई नदी

समंदर की ओर पानी

ले जाती है

जितना !

             ***

 

 

अफ़सोस

 

ली  यूइ

                             

 

हल्की झीसी बारिश की

पड़ती, परदों के पार

देखता हूँ

विदा ले रही है बहार

 

इतनी हल्की है

मेरी रेशमी रज़ाई

कि रात के पिछले पहर की

ठिठुरन

को क्या रोक पाए !

 

किसी ऊट-पटांग सपने के

फ़रेब में पड़ कर

भूल जाता हूँ बिलकुल

कि देस में हूँ पराये

घर से बहुत दूर

और रंगरलियाँ मनाता हूँ, भरपूर

 

फिर गोधूलि की वेला, निपट अकेला

मुंडेर पर टिका कर कुहनियाँ

झाँकता हूँ, उस ओर को जिधर

कहीं दूर... बहुत दूर

पड़ता है मेरा देस --

वह देस कि जितना आसान था उसे

छोड़ आना,

उतना ही कठिन है उसे

फिर से देख पाना

 

बहा हुआ पानी

मुरझाये हुए फूल

जा चुके हमेशा के लिए

हो चुके काफ़ूर --

अलग-थलग इस धरती से

स्वर्ग है जितनी दूर.

 

      ***

 

          


 

 

विरह का दुख

 

 ली  यूइ

                        

 

बीत चुका आधा बसंत

घर से रवानगी के बाद

हर दिलकश नज़ारे को  देखते ही

दिल को चाक कर देती है

किसी और जगह की याद

 

प्लम की टहनियों तले

उदास बैठा हूँ

सीढ़ियों पर

सफ़ेद कलियाँ झर रही हैं

मुझ पर

मानो गिर रही हो बर्फ़ --

झाड़ते रहो सर-काँधे

फ़ौरन सरे-नौ उन्हें ढँक लेती हैं

पंखडियाँ

दूर देस से आनेवाले वन-हंस भी

कोई संदेस लेकर

आते हैं कहाँ !

 

यहाँ से इतनी दूर है

मेरा घर

कि सपनों में भी

शायद ही पहुँच पाऊँ कभी

वहाँ

 

विरह की पीड़ा

बस

बसंत की घास जैसी होती है --

चाहे जितनी दूर चलते चले जाओ

वह उतनी ही बढ़ आती है .             

 

    ***

 

 

 

अतीत की स्मृतियाँ

 

    ली  यूइ

                       

 

अलावा दुख के

और कुछ नहीं लातीं

अतीत की स्मृतियाँ --

दुख जो किसी तरह नहीं जाता

मेरी आँखों से

 

साँय-साँय करती चलती है

क्वाँर की अंधड़

आँगन के आर-पार

काई जम गयी है

सीढ़ियों पर

मोती की लड़ियों से सजी

सिरकी

लटकी है अब तक

लपेट कर उठाई नहीं गयी

 

सारे दिन कोई न आया

मुझसे मिलने

 

मेरी सोने की कटार

दफ़नायी जा चुकी है कहीं गहरे

घास-फूस खर-पतवार

दबा चुके मेरा दम-ख़म

हम रहे ही कहाँ अब

जो हुआ करते थे हम

 

लेकिन शाम ढले

चाँद अब भी निकल आता है

बिखेरता हुआ ठंडी, मुलायम

चाँदनी की उजास

जैसे दिला रहा हो मुझे याद

कि दमकते हुए गुम्बदों

और मर्मरी महलों की बेनाम परछाइयाँ

उभर आयी होंगी

चिनह्वाई नदी के पानी पर भी

 

      ***

 

 

अभिसारिका

ली  यूइ

                            

 

फूलों पर

निखार है, और शबनम

चाँद खोया-खोया सा, मद्धम

और हल्की धुंध का दुपट्टा

लहरा रहा है, जैसे कोई परचम

 

आज की रात

रह नहीं सकती मैं

तुमसे मिले बग़ैर, प्रियतम

 

उतार फेंके अन्तर-वस्त्र

उतर रही हूँ अब

ख़ुशबू-धुले ज़ीने से

दम साधे, बे-आवाज़,

अपनी सुनहरी ज़री के काम-वाली जूतियाँ

हाथों में लिये

 

भित्ति-चित्र वाले हॉल

से दक्षिण

एकांत में

मिलते हैं हम

 

थरथराती-काँपती सी

सिमट जाती हूँ मैं

उनकी बाहों में

और फुसफुसाती हूँ :

‘तोड़ कर आयी हूँ, प्रियतम

बड़े कठिन बंधन

बदले में देना मुझे

अपना सबसे मधुर चुम्बन’

 

         ***

 

 

 

तुम और मैं

 

क्वान  तावशंग *

 (सन् 1260-1319 ई.)

 

तुम और मैं

इस तरह डूब कर

एक-दूसरे से करते हैं प्यार

जैसे माँटी के एक ही लौंदे से बनी

मूरतें हों दो --

एक तुम्हारी

और एक मेरी

 

आनंद के अतिरेक-भरे

किसी पल में

विभोर

अगर हम इन्हें कर दें

टुकड़े-टुकड़े

और पानी में डाल कर घोलें

सानें, एक बार फिर

उस मिट्टी को

और नये सिरे से गढें 

दो मूरतें --

एक तुम्हारी, एक मेरी

तो फ़ौरन, वहीं के वहीं

मुझमें पाओगे

तुम ख़ुद को

और मैं देखूँगी

तुम में

अपने-आप को

 

ज़िन्दा हैं हम

तो हैं साथ-साथ

हम-बिस्तर

और अगर मर गये

तो पड़ रहेंगे जाकर

आराम से

एक ही मक़बरे के अन्दर

 

    ***

 

 


                                                                                                                                   (तस्वीर -काल्पनिक) 

*क्वान तावशंग (सन् 1260 -1319 ई.) : दक्षिणी सोंग राजवंश काल की एक प्रतिभाशाली कवयित्री थी. उसके पति का नाम चाव मेंग्हू था. दोनों जाने-माने चित्रकार तथा हस्तलिपिक थे.

 

 

 


 

छोड़ो कल की चिन्ता

 

 ल्यो  यिन

(सन् 1249-1293 ई.)

 

दरख़्तों पर फूल आने से पहले

उनके बारे में

अक्सर पूछताछ की मैंने

(कब खिलेंगे, कब तक रहेंगे वग़ैरह )

 

जब फूल खिलने को आये

तो होती रही दहशत

कि तेज़ हवा के झोंके और बारिश

कहीं उन्हें

कर न दें क्षत-विक्षत

 

लेकिन जब हवा

और बरसात से न हुआ

कोई नुक़सान

तो ख़ा-म-खाँ क्यों रहें परेशान !

क्यों न हो जाएँ मदमस्त पी के,

फूलों से लदे इन पेड़ों के नीचे ?

 

अभी से अगले साल के मंसूबे

क्यों बनायें --

इस बरस तो हम यहाँ हैं न ?

आज का आनेवाले कल से

भला क्या लेना-देना !

 

लो, देखो

बासन्ती हवा ने

 जलसे के दौरान ही

बतौर चेतावनी 

 हमारे देखते-देखते ही

फूल की एक पंखुड़ी

हमारी महफ़िल में

गिरा दी

 

   ***

                                 

 

ल्यो यिन (सन् 1249-1293 ई.) : सोंग और युआन राजवंशों के बीच के काल का एक जाना-माना विद्वान था l  वह कुछ समय तक कुबलइ खाँ के दरबार में भी रहा, किन्तु बाद में उसने इस्तीफ़ा दे दिया.

 






 

अंतिम  चरण

 

चू   द्वनरू

(सन् 1080-1175 ई.)

 

बहुत ख़ुश हूँ मैं अपने बुढ़ापे में

क्योंकि देख चुका

ज़िन्दगी को क़रीब से

वाक़िफ़ हो चुका हूँ

अच्छी तरह

इसकी सच्चाइयों से

भीतर तक जा कर जान चुका

छिपे हुए राज़ इस दुनिया के

 

पाट चुका

सब समन्दर अफ़सोस के

काट चुका दुखों के

सारे पहाड़

 

आज़ाद हूँ अब

फूलों की हसरत से

और रिहा

मदिरा की लत से

होश-ओ-हवास में रहता हूँ

हमेशा

 

 

खा लेता हूँ भर-पेट

तो सो जाता हूँ

उठता हूँ जब

अपनी बारी आने पर

अपना पार्ट कर देता हूँ अदा

(जीवन के नाटक में !)

 

बीते हुए दिनों का

न कीजिए तज़्किरा

न आनेवाले समय की

कोई चरचा

मेरे लिए अब

ये बातें न रहीं

कुछ विशेष महत्त्व की

न पूजना चाहता हूँ

भगवान् बुद्ध को मैं

न लालसा है मुझे

अमरत्व की

न मैं नक़ल करना चाहता हूँ

कन्फ़्यूशिअस के

बेचैन-रूह अस्तित्व की 

 

किसी बहस में भी

नहीं पड़ना चाहता मैं

लोग हँसना चाहें मुझ पर

तो बेशक हसें

वह भी है स्वीकार

 

इस नाटक में तो निभा चुका

मैं अपना किरदार

यह रही मेरी पोशाक

शौक़ से पहनें

मेरे बाद आनेवाले

अहमक़ अदाकार !

 

           ***

 

 

 अनुवादक/ लेखक 

                         

प्रियदर्शी ठाकुर ख़याल



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  1. सारी कविताएं बहुत सहज और समय को दर्शाती हुई, सजग कविता। अनुवाद संप्रेषणीय है। शुक्रिया।

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  2. कवितायें और उनके अनुवाद दोनों काबिलेतारीफ। कविताओं को पढ़ते हुए मन का सृजनशील हो जाना भी अच्छी कविता की एक कसौटी है। ऐसा इन कविताओं को पढ़ते हुए महसूस हुआ। सृजन सार्थक।

    ReplyDelete
  3. अनोखा कविता! काबिलेतारीफ!!

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