कविता में नदी आई ,जीवन में प्रेम आया- अर्पण कुमार की कविताएँ
अर्पण कुमार की कविताएँ अपने परिवेश और प्रकृति से निरंतर संवादरत हैं और इस क्रम में जहाँ भी मनुष्यगत स्वार्थ और अन्य बाहरी दबावों के कारण अवरोध उत्पन्न होता है, उसका उचित प्रतिकार भी करती हैं। ये कविताएं मूलतः प्रेम की हैं और कवि का प्रतिरोध भी उसके प्रेम में ही मुखर है, अपनी समस्त तरलता और जीवंतता के साथ। यहाँ स्त्री मन को लिखते हुए उससे एकाकार होने का प्रयास है तो प्रकृति से मिली हर सुंदर वस्तु को सहेजने की कवियोचित्त तड़प भी। जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं और वस्तुओं से संवाद करते हुए कवि का मन कहीं दरकता भी है, सांसरिक तृष्णाएँ उसकी राह रोकने आती हैं, क्षणिक होते रिश्ते और गुम होती संवेदनाएँ उसे आहत करती हैं लेकिन अंततः कविताएँ ही उसे इन सबसे उबार भी ले जाती हैं।
‘कविता ने जीवन जीना और नदी ने प्रेम करना सिखाया/कविता में नदी आई जीवन में प्रेम आया’।
टूटनाहरदम बिखरना नहीं होताटूटनायह कहनाकहीं ज़्यादा ठीक हो किटूटनाअक्सरहाँहोता है बनना।
हिस्सानवंबर की गुनगुनी धूप कोपीना चाहता हैछककरविराम दे सारे कार्यों कोआ जाता है वहअपनी छत परउसके हिस्से के सूरज कीहत्या हो जाती है।
बलात्कारदो समांतर-से तटों के बीचअनवरत बहतीयह मेरे देश की गंगा हैदो वहशी हाथों के बीचतार-तार हुआ एक लहँगा हैयह मेरे कस्बे की गंगा है।
चाकू की नोक परएकडराया जाता हैस्त्रीत्वबचपनबुढ़ापा और बाज़ारचाकू की नोक पररौंदी जाती हैलज्जा, मासूमियतअनुभवसिद्धिऔरसंपदा।दोछोटा चाकूपूछता हैअपने से बड़ेएक दूसरे चाकू से‘तुम्हारी ज़रूरत क्यों?’बड़ा चाकूएक मीठी धौल देता हैछोटे चाकू कीचमकती, पुलकती मूठ पर‘क्योंकि आगे बढ़ गए मनुष्यऐसी प्यार भरीधौल नहीं जमा पातेपीछे रह गए अपने साथियों कीपीठ पर।’
अनफ्रेंड करनाअब कुछ औपचारिकऔर अपरिचित-सा हो गया हैमेरा दोस्तमेरे शहर में आया हैमगर मुझे बतायाऔर न हीमिला है मुझसेइस बीचउसने विदेश में नौकरी पाईअपना परिवार कियाइस शहर में भी उसकेकई नए ठिकाने हो आएमैं दूर-दूर रहाया गोयादूर-दूर रखा गया मुझेफिर मुझे आजउसके इस आगमन कापता कैसे चला!अरे भाई,शताब्दी एक्सप्रेस में बैठाउसने अपना फोटो पोस्ट कियाऔर सूचना साझा कीफेसबुक परमैं बेचारावहीं से जाना पायाऔर उसे फ़ोन कर दियासहज उत्साह में,उसे मेरे किसीफ़ोन का अंदेशा नहीं थाझेंपता रहा शुरू में कुछ देरज़्यादा सफ़ाई नहीं दी अपनीमेरे स्नेहभरे तानों परमगर,देर रात उसनेअनफ्रेंड कर दिया मुझे।
बर्तनों का खटरागबर्तनों के खटराग मेंमैं सुनता हूँमनुष्य के भीतर की जिजीविषाआदिम भूख सेलड़ने का उसका स्पंदनसुबह-सुबहरसोई के भीतर कीयह चनचनाहटमुझे भरोसा दिलाती है –मनुष्यअपनी क्षुधा की तृप्ति के लिएप्रयासरत हैएक और नए दिन केसंघर्षों में उतरने से पूर्ववह कुछ दाने अपने उदर मेंरख लेना चाहता हैकाम पर जाने से पूर्ववह अपनी हैसियतऔर भूख के अनुसारले लेना चाहता हैअपनी ख़ुराकमनुष्य हारेगा नहींअपनी लड़ाईचंद दानों के भरोसेवह जीत लेगा दुनियावह भूखा नहीं रहेगाऔर भूख के खिलाफ़लड़ी जा रही लड़ाईचाहे जिसकी हो अंततः है वहपूरे मानवता कीउसमें शरीक होंगे,दोनों ही चूल्हेवे जिनसे धुआँ उठ रहा हैऔर वे जिनसे धुआँ उठना हैचूल्हों की ऐसी साझेदारी सेएकमेव हो जाएगाआसमान का रंगमैं सोचता हूँभूख और स्वाद कीजुगलबंदी के लिएकितना ज़रूरी हैदुनिया की प्रत्येक रसोई मेंसुबह-शामबर्तनों का यूँ भिड़ते रहनाआपस मेंकितनी अजीबऔर बेसुरी लगती हैघर में ख़ाली बरतनों की चुप्पीऔर यह चुप्पी किसीघर में दाख़िलन होने पाए, सुबह-सुबह हो रहेबर्तनों के खटराग मेंमैं पाता हूँ यह उम्मीददुनिया के हर घर औरहर घर की दुनिया के लिएसमान रूप से ।
सुबह की सिहरनगई रातदेर तक जागती आँखेंख़ुद से अधिकमुझपरतरस खा रही थींखुलना चाह रही थीं परमेरा ख़याल कर बंद थीं औरअलसायी पड़ी थींसुबह हो चुकी थीमगर मैंअपने कमरे में सोया थाख़ैर!सुबह की सुबहकब की हो चुकी थीऔर उसकी रंगत की आहटक्रमशः मेरे कमरे में भीआनी शुरू हो रही थीअलसायी आँखों नेदुनिया देखनी चाहीऔर मैं उन्हें मना न कर सकामैं आँखें मलता हुआदरवाजे की ओर बढ़ादेखासूर्यअपनी सुनहली किरणों के साथमेरे स्वागत में खड़ा हैअपनी रक्तिम मुस्कान सेमुझे अरुणकिए जा रहा हैएकदम से ,मेरी तबियत मेंउछाल आ गयाऔर यह क्याएक सूर्य के अस्तित्व कीकौन कहे,मेरे शरीर का रोम-रोमएक स्वतंत्र सूर्य बन गयाएक तरफ़ ,इनके ताप से जलता रहादूसरी तरफ़ ,अपने ऐसे वजूद सेमैं स्वयं सिहरता रहासिहरता रहा ।
स्त्री-नदीएककवि सृजनरत हैऔर नदी उनींदी लेटी हैअपनी बायीं करवटकवि के अभिमुखठीक उसके संपार्श्व मेंनदी का अलसायाऔर क्लांत सौंदर्यउतर रहा है कविता मेंनदी के बराबरएक और नदीउतार रहा हैकवि का भागीरथ।दोनदी की घिसटती,विहँसती आँखों कोथाम लिया मैंनेदूर ही सेफैलाकर अपना दामनअदृश्यतट के इस तरफ़नदी चली गई वापसतट के उस तरफ़अपनी दुनिया मेंछोड़कर तरलतामेरी दुनिया में।तीननदी सूख रही हैअपनी बढ़ती उम्र कीछोटी-बड़ी परेशानियों कोवहन करती हुईनदी सूख रही हैअपनी अंतःव्याप्तव्याधियों से भीजीवन के उत्तरार्द्ध मेंजी रही नदीजानती हैअपने सुनहरे क्रमबद्ध वसंत केअनिवार्य संघाती क्षरण को,यौवन के ढलान परखोती अपनी सुडौलतानदी सूख रही हैदूसरी नदियों की तरहसूखी हुई नदीबहती है मगरइतिहास के पन्नों मेंस्मृतियों के अंतर्स्थलों परकविता के अनुभूत,पुनर्सृजित घाटों सेसूखी हुई नदीकब सूखती है पूरी तरह !चार
इस पार मैं थाउस पार नदी थीदोनों एक-दूसरे सेमिलने को विह्वल,बीच में सड़क थीकोलतार सेढकी-पुती, ख़ूब चिकनीभागते जीवन कातेज़, हिंसक औरबदहवास ट्रैफ़िकजारी था जिसपरअनवरत, अनिमेषदोनों के नियंत्रण से बाहरकहने कोसड़क की चौड़ाई भररास्ता तय करना थामगर वह फ़ासलासड़क की तरह लंबाऔर पेंच-ओ-ख़म सेभरा था।पाँच
नदी रोकती थी मुझे
ज़्यादा भावुक होने से
भटकने से यूँ निर्रथक
नदी इस तरहरोकना चाहती थीअपने प्रवाह कीक्षिप्रता और आतुरता कोबहाव की आवेगमयताऔर लचकता की सहज रौ मेंकिसी अप्रत्याशितमोड़ के आ जाने सेनदी संशकित रहती थीहर पलहर दमनदी बहती थीऔर अपने रास्ते केकिसी संभाव्य मोड़ कीजटीलताओं सेअनजान नहीं थी |छहएक स्त्रीढलकर नदी के प्रतीक मेंअपने इतने पाठबना सकती हैआश्चर्य होता हैएक स्त्री कविता मेंइतने घाटों सेउतर सकती हैआश्चर्य होता हैनदी के सामने भरकर देने सेएक स्त्री के इतनेचेहरेप्रतिबिंबित हो सकते हैंआश्चर्य होता हैएक स्त्रीइतना गहरा उतरकवि के अंदरउत्खनित कर सकती हैइतनी नदियाँआश्चर्य होता हैआश्चर्य होता है किएक स्त्री का प्रेमप्रतिरूप-प्रेम बन जाता हैपृथ्वी की समस्तनदियों का,एक कवि की कविताप्रतिनिधि-उद्गार बन जाती हैदुनिया के समस्त प्रेमियों का।सात
कविताएँ लिख-लिखकरनदी परमेरा कवि ऊब चुका हैमेरा प्रेमी मगररमता है आज भीनदी के स्मृति-आलिंगन मेंअपने एकांतिक पलों मेंख़ुशगवार मौसम केसतरंगी झोंकों परऔर ख़ामोश शैतानियों कीइंद्रधनुषी हलचलों पर।आठ
कविता ने जीवन जीनाऔर नदी ने प्रेमकरना सिखायाकविता में नदी आईजीवन में प्रेम आया।नौनदी अकेलीनहीं चाहिएऔर चीज़ों के साथनदी भी चाहिएऔर चीज़ें मिल जाती हैंनदी आगे निकल जाती हैया कभी पीछे छूट जाती हैऔर चीज़ें साथ चलती हैनदी के सिवा।दसमैं आता दिखानदी ठिठक गईमैं आ पातानदी बढ़ गई।ग्यारह
मुझको लेकर हमेशाअसमंजस में रहीनदीतबजब साथ थीऔर आज भीजब दूर है।बारह
मैं सहम जाता हूँऔर वह काँप जाती हैजब भी मिलना हुआनदी सेऐसा ही हुआ।तेरहमैं धूप के टुकड़ों सेकभी अपनीभूख मिटा रहा थायातना भरेउन दिनों मेंनदी तबमेरी प्यास काख़ास ध्यान रख रही थी।चौदहआतंकित नहीं करतीनदीकिसी कोअपनी गहराई से,वह नहीं है शामिलमहान कहलाने कीकिसी लंबी पंक्ति मेंकिसी कोसीख देने के निमित्तनहीं हैउसके प्रवाह की निरंतरता,कोई गौरवनहीं चाहिए उसेगुरु कहलाने कानहीं फैलाना चाहतीअनावश्यक कोई वाग्जालअपने अनुभव के वैविध्य का,पता है उसे कदाचितखंडित होगी इससेउसकी ही गरिमादेर-सवेर।
थका चेहराथका चेहरादिखता है भलातपी और खिंची त्वचा कीरेखाओं के बीचअटकी परिश्रम की बूँदेंबन जाती है धारातरल किसी नदी कीथका चेहराखिला दिखता है ज़्यादाखिले चेहरे सेखिले चेहरे की चमकमंद होती जाती हैकोशिश मेंक्रमशः खिले रहने की ।
अर्पण कुमार के चार कविता-संग्रह 'नदी के पार नदी', 'मैं सड़क हूँ', ‘पोले झुनझुने’ , ‘सह-अस्तित्व’ क्रमशः सन् 2002, 2011, 2018 और 2020 में प्रकाशित हुए। सन् 2017 में आए इनके उपन्यास 'पच्चीस वर्ग गज़' को पाठकों-आलोचकों के बीच ख़ूब सराहा जा रहा है। इनके संपादन में आयी आलोचना की पुस्तक ‘आत्मकथा का आलोक’ सन् 2020 में प्रकाशित हुई। फ़ोटोग्राफ़ी और पर्यटन के शौकीन अर्पण कुमार के कई छायाचित्र पुस्तकों और पत्रिकाओं के आवरण पर प्रयुक्त हुए हैं और इनके यात्रा-संस्मरण विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। इनके आलोचनापरक आलेख, हिंदी साहित्य में अपनी महत्वपूर्ण जगह रखते हैं। मूलतः पटना के रहनेवाले कुमार की शिक्षा-दीक्षा, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली एवं भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली में हुई । इनकी कविताओं, कहानियों का प्रसारण आकाशवाणी के दिल्ली, जयपुर, बिलासपुर एवं दूरदर्शन के जयपुर केंद्र से हुआ। दूरदर्शन के जयपुर और जगदलपुर केंद्रों से इनकी कविताओं का प्रसारण हुआ। इनसे हुई बातचीत का प्रसारण दूरदर्शन के जगदलपुर केंद्र एवं पत्रिका टीवी, जयपुर से हुआ। ये हिंदी अकादमी, दिल्ली से पुरस्कृत हैं। जयपुर में आयोजित हुए 'सार्क सूफ़ी महोत्सव' में बतौर कवि एकाधिक बार इनकी भागीदारी हुई।मो: 0-9413396755ई-मेल : arpankumarr@gmail.comसंप्रति : अर्पण कुमार, फ्लैट संख्या 102, गणेश हेरिटेज, स्वर्ण जयंती नगर, आर.बी. हॉस्पीटल के समीप, पत्रकार-कॉलोनी, गौरव पथ, बिलासपुर, छत्तीसगढ़ ; पिन 495001.......................................