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सिलबट्टा शुक्ल का दांपत्य - योगिता यादव की नयी कहानी

 

Manyur Deshpande




सुपरिचित कथाकार योगिता यादव की कहानी सिलबट्टा शुक्ल का दांपत्य चाहें तो आप एक चुटीले व्यंग्य की तरह पढ़ जाएँ या फिर ठहर कर सोचें कि परंपरा, संस्कृति और अतीत की सुंदर स्मृतियों को सहेजने के चक्कर में कहीं आपके अंदर भी एक सिलबट्टा शुक्ल तो नहीं जीवित है! सिलबट्टा शुक्ल जिसका कोई जेंडर नहीं, कोई देह नहीं, वह तो एक जड़, पाषाण विचार है जो स्वयं को बदलना नहीं चाहता है। कहानी बहुत ही मनोरंजक ढंग से हमारे समाज के उस अतीतमोह पर प्रश्न करती है जहाँ संस्कृति की रक्षा का दारोमदार अक्सर औरतों के ही कंधों पर आ जाता है, जहाँ उनसे उम्मीद की जाती है कि वे सम्पूर्ण समर्पण और उत्साह के साथ सिलबट्टे पर ख़ुद को ही पीसती रहें ताकि पितृ सत्ता के भोजन और जीवन में स्वाद घुला रहे।

मेराकी पर पढिए योगिता यादव की नयी कहानी- सिलबट्टा शुक्ल का दांपत्य। 

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पिताजी को शिलाजीत अतिप्रिय थी और माताजी का मन सिलबट्टा पर पिसी अमिया की चटनी में अटका रहता। इस तरह इन दोनों के साझा उद्यम से बालक शिलाव्रत शुक्ल का जन्म हुआ। शिला से उनका निश्चित ही कोई पारलौकिक संबंध था। यह बात तो मां के पेट से ही तय हो गई थी। जब वे गर्भ में थे, तो छह महीने बीतने के बाद भी मां को कोई हलचल महसूस नहीं हुई। इस पर दादी को संदेह हुआ कि बहू का पेट गर्भ से ही फूला है या कोई और बात है? अन्य गर्भवती महिलाओं के अनुभव सुनती तो मां भी परेशान हो जातीं कि पेट में बालक है कि सिलौटा, बस पड़ा ही रहता है, हिलता ही नहीं है। 

जब डॉक्टर के सामने यह चिंता जताई गई, तो उन्होंने अल्ट्रासाउंड करने की सलाह दी। अल्ट्रासाउंड में बालक की जो पहली तस्वीर माता-पिता ने देखी वह एकदम वैसी ही थी, जैसे विशाल समुद्र के तल में कोई छोटी सी शिला बैठी हो। पिताजी ने तभी तय कर लिया था कि बालक का नाम शिलाव्रत रखा जाएगा। जस बालक तस नाम - गोल मटोल सुंदर बालक। दुलारा बालक शिलाव्रत जैसा पट पेट में पड़ा रहता था, बाहर आकर उससे बिल्कुल उलट साबित हुआ। एकदम मेधावी, असीम साहसी। चार साल की उम्र में ही गायत्री मंत्र का ऐसा मधुर पाठ करने लगा था कि सुनने वाले सुनते ही रह जाते। विद्यालय में प्रवेश तक तो हनुमान चालीसा और बजरंग बाण भी उन्हें कंठस्थ हो चुका था। 

इतने गुणों के बीच एक और गुण था जिस पर उनकी माता जी मोहित हुईं रहती थीं। उसका ताल्लुक स्वाद से था। असल में बालक शिलाव्रत को भी चटनी उतनी ही प्रिय थी, जितनी उनकी माता जी को। चटनी पीसने के बाद मां उन्हें सिलौटे के पास बैठा देतीं। बालक शिलाव्रत अपनी नन्हीं उंगलियों से चटनी चाटता रहता। इस अद्भुत दृश्य को देखती मां अपने सब काम निपटा लेतीं। चटनी बालक का प्रिय स्वाद और सिलौटा बालक का पसंदीदा खिलौना। मां-पुत्र के बीच यह अद्भुत साम्य रहा। पर इसी साम्य में एक दिन अजब घटना घट गई। 

वह जेठ की तपती दोपहरी थी। पसीने में तरबतर दिन। पर गृह स्वामिनियों को तब भी चैन कहां। गर्मी बीतने से पहले ही चौमासे की तैयारी में लग जाती हैं। चतुर्मास के लिए बड़ी-पापड़ बनाने में ऐसे जुट जाती हैं कि जैसे इनके बिना इंद्र देवता नहीं उतरेंगे। तो माता जी सिलबट्टे पर ढेर सारी दाल पीस कर मंगौड़ी तोड़ने की तैयारी में छत पर चली गईं। जैसा कि हर बार होता था, बालक सिलौटे पर बची हुई दाल चाट रहा था। फीकी थोड़े ही, मां ने उस पर नमक बुरक दिया था, बस बालक स्वाद से दाल चाटता रहा। और मां चल दी अपने बड़ी तोड़ने के उद्यम में। 

क्या चटनी और क्या दाल, बालक शिलाव्रत के लिए तो सिलौटे पर लगी सब सामग्री एक समान। वह उसी स्वाद में अपनी नन्हीं उंगलियों से सिलौटा चाट रहा था-  कि तभी वहां एक चूहा आ गया। वह चूहा भी सिलौटे पर से दाल चाटने लगा। बालक शिलाव्रत भी इस नन्हें दोस्त को देखकर खुश हुआ। अब एक तरफ बालक शिलाव्रत और दूसरी तरफ चूहा, दोनों मिलकर दाल चाट रहे थे। 

बीच में जाने चूहे को क्या सूझी कि वह भाग गया। फिर आ गया!  दाल चाटी और फिर भाग गया। ये बात शायद शिलाव्रत को अच्छी नहीं लगी। अबकी बार जब चूहा आया, तो परम पराक्रमी शिलाव्रत ने झपट कर चूहे को पकड़ लिया। ईश्वर जाने उन नन्हें हाथों में इतनी ताकत कहां से आ गई कि उन्होंने कसकर चपल चूहे की गर्दन को जकड़ लिया। और जबरन उसे दाल खिलाने लगा। 

साहसी, किंतु अबोध बालक अभी तक दाल को चटनी समझकर चाट रहा था। यही आग्रह अपनी तोतली बोली में उन्होंने पकड़उवा मेहमान से भी किया - ले ता ततनी (ले खा चटनी), ले ता ततनी, ले ता ततनी…. कहते, खिलाते उन्होंने मेहमान का सिर सिल पर बार-बार पटका।

चूहा खूनम खून और बालक अब भी उसे छोड़ने को तैयार नहीं। मंगौड़ियां तोड़कर जब मां वापस लौटीं, तो ये दृश्य देखकर घबरा गईं। लगा कि जैसे प्राण हलक में आ गए हों। मां को देखकर बालक भी घबरा गया और रोने लगा। रोते बालक को उठाकर मां दौड़ पड़ीं दादी मां के पास। दादी ने घर-कुनबे के सब लोगों को इकट्ठा कर लिया। कोई समझ नहीं पा रहा था कि बालक घबराहट में रो रहा है या चूहे के काटने से हुई पीड़ा के कारण। 

यूं तो भंडार भरे घरों में चूहों के अंगूठा काटने की घटनाएं आम हैं, पर बालक लाडला था, तो तय किया गया कि शिलाव्रत की डॉक्टरी जांच करवाई जाए। चूहा लहुलुहान पड़ा था। आशंका यह भी थी कि कहीं बालक ने चटनी के धोखे में मूसक रक्त ही न चाट लिया हो। 

पिताजी सब काम छोड़कर बालक को सीधे डॉक्टर के पास लेकर पहुंचे। जो और जैसी जांच डॉक्टर बताता गया, वे करवाते गए। कठिन प्रयास और अटूट प्रार्थनाओं का प्रतिफल कि बालक शिलाव्रत सकुशल घर आ गया। पूरे परिवार में हर्ष की लहर दौड़ गई। अब तो ये बात फैल गई कि बालक न केवल सुंदर है, बल्कि परम साहसी और सौभाग्यशाली भी है। 

पर बड़े बाबा हमेशा हवा के विपरीत चलने वाले। उन्होंने इस घटना को धर्म की हानि माना और पाप से जोड़ दिया।  

आखिर चूहा श्री विनायक की सवारी है, गणों के ईश, भगवान गणेश की सवारी। अभी तो बालक ठीक हो कर आ गया है, पर हर काम को निर्विघ्न संपन्न करवाने वाले भगवान श्री गणेश क्या अपने प्रिय मूसक की हत्या पर चुप बैठे रहेंगे। भई देवताओं का मामला है, कुछ नहीं कहा जा सकता। प्रायश्चित तो करना ही चाहिए, अभी के लिए ही नहीं भविष्य के लिए भी। 

इसीलिए घर में हवन-यज्ञ किया गया, ब्राह्रमणों को भोज दिया गया और वध स्थल अर्थात सिलौटे को आंगन में बाहर एक छोटा सा चबूतरा बनाकर स्थापित कर दिया गया। सिलौटे का थान।

अब हर अच्छे-बुरे काम से पहले सिलौटे का थान पूजा जाता। इस तरह बालक का नाम शिलाव्रत से बनते- बिगड़ते सिलबट्टा पुकारा जाने लगा। 

नाम बिगाड़ के पीछे एक अनकहा तर्क यह भी था कि जब भी मूसक वध की बात हो, तो नाम सिलबट्टे का आए, और शिलाव्रत इस पाप से बच जाएं। 

सो इस परम साहसी कथा के आलोक में बालक शिलाव्रत, सिलबट्टा शुक्ल हो गए। घर में नया सिलबट्टा आ गया, चटनियां बनती रहीं, दालें पिसती रहीं और जीवन आनंदमय बीतने लगा। पर सिलबट्टा कथा तो अभी शुरू होनी बाकी थी। 

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शांत, गंभीर, किंतु अड़ियल प्रकृति का मेधावी बालक अब सुदर्शन पुरुष बन चुका था। पिताजी और बड़े बाबा ने सिलबट्टा शुक्ल से कम से कम प्रोफेसरी और अधिक से अधिक सिविल सर्विसेज की आस लगाई थी। पर सिलबट्टा शुक्ल शायर, सिंह, कपूत की तरह सब लीकों को तोड़कर एक नए कोर्स की तरफ मुड़ गए - पुरातत्व। ईंट, कंकड़, पत्थर, मृदभांड, इमाम दस्ते, सूप, छाज, छलनी… जो चीज़ जितनी पुरानी, शुक्ल जी को उतनी ही प्रिय। विधाता भी जाने कैसे-कैसे संयोग बनाता है। इन पुरातन चीजों के अलावा जिस पर उनका दिल आया उसका नाम भी शिला श्री। शिलाश्री भी उन्हीं की तरह पुरातन चीजों की प्रेमी। जिसके संग उन्होंने राज्य भर के कितने ही किलों की, कितनी ही दीवारों की, कितनी ही ईंटों का निरीक्षण-परीक्षण किया था। 

शिलाव्रत सुकुमार ब्रुश से ईंटों के ऊपर की मिट्टी हटाते और शिला श्री अपनी नोट बुक में उसे नोट करती जातीं। ये प्रेम अगर परवान चढ़ता, तो देश को यकीनन मोहनजोदड़ों जैसी किसी खोज की प्राप्ति होती। पर समाज, उस पर भी परिवार अपनी निजी आन-बान-शान में राष्ट्रद्रोह करने से भी नहीं चूकता। 

यहां टांग बड़े बाबा ने अडाई, कि शुक्ल परिवार में अहिरवार कुल की लड़की नहीं आ सकती। एक तो वैसे ही शुक्ल जी का दिल इस बदलती जा रही दुनिया में नहीं लगता था, उस पर बड़े बाबा ने उन पर जो कुठाराघात किया, तब से यह पूरी दुनिया ही उनके लिए पाषाण हो गई।

शिला श्री का तो दिल ऐसा टूटा कि उसने पढ़ाई ही छोड़ दी। और इधर शुक्ल जी अपनी पुरातन दुनिया में लौट गए। अब जो सृष्टि मिश्रा से ब्याहा गया, वह तो बस उनका तन ही था। मन तो उनका शिला श्री की यादों और पाषाणों की खोज में गुम हो चुका था। 

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     एक तरफ नई ब्याहता पत्नी और दूसरी तरफ पुराने समय को खोदने वाली ये नौकरी, शुक्ल जी के लिए एक अलग तरह की परीक्षा शुरू हो चुकी थी। उस पर पत्नी का स्वभाव एकदम विपरीत ध्रुवी।

सृष्टि मिश्रा एमए कर रहीं थीं, लोक प्रशासन में। साथ में सिविल सर्विसेज की तैयारी भी। वे दहेज में सारे सामान के अलावा किताबों का ढेर भी ले आईं थीं, जिसकी जगह उन्हें सिलबट्टा शुक्ल के उस पुरातन सामान और पुरानी परंपराओं के सरंक्षक परिवार में ही बनानी थी।

शुक्ल जी के टीन-टप्पर सरका कर जब उन्होंने अपनी किताबों के लिए जगह बनाई, तभी से शुक्ल जी को घर से बेदखली का अहसास होने लगा थे। बस इसलिए वे अपनी जड़ों से भरसक चिपके रहना चाहते थे।  

वर-वधू के बीच रस्साकशी का ये खेल माता जी भी देख रहीं थीं। मगर जड़ों से जुड़े रहने में ही घर की भलाई थी। तो माता जी ने सारा ध्यान बहू के प्रशिक्षण पर लगा दिया। 

हरतालिका तीज से लेकर वर लक्ष्मी व्रत तक संसार भर में पतियों के लिए जितने और जिस तरह के व्रत किए जाते हैं, सासू मां ने  सृष्टि को सब करवा दिए। पर पति-पत्नी घी-खिचड़ी नहीं हो पाए। हमेशा दोनों दो अलग-अलग ध्रुवों पर डटे रहे। शुक्ल जी अपनी खोज में मन रमाए रहते और सृष्टि जी अपनी किताबों में। 

ईंट, पत्थर, दीवारें, सिक्के, कपड़े, कागज़, ढक्कन, पुड़िया…. दुनिया में जो कुछ भी पुराना हो सकता था सब शुक्ल जी के खजाने का हिस्सा था। वे लैंस लिए हर चीज़ की खोज बीन करते रहते। दफ्तर जाते तो एक थैला भरकर सामान साथ ले जाते और जब शाम को घर लौटते तो थैले में वैसा ही कुछ और सामान भर लाते। ज्यों-ज्यों उनकी विशेषज्ञता बढ़ रही थी, घर में पुरानी चीजों का संग्रह बढ़ता जा रहा था। हर चीज़ को सहेज कर रखने के उनके पास कई ऐतिहासिक कारण थे।

इधर सृष्टि जी की नजर नई किताबों, नए बदलावों, नई खबरों पर लगी रहती। सुबह के पहले घंटे में ही कम से कम तीन अखबार उलट पलट डालतीं। दीवारों के संग-संग किताबें चिनी जाने लगी थीं। एक तोतयी रंग का हाइलाइटर स्थायी तौर पर उनके हाथ में रहता। जो खास लगता वे उसे हाईलाइट करती जातीं।

कहां तो नई ब्याहता के हाथ में खनकती चूड़ियों के स्वर  की आकांक्षा, कहां ये पन्ने पलटती, पंक्तियां हाइलाइटर करती निर्मोही अंगुलियां। गृहस्थी के नाम पर बस ठग लिए गए शुक्ल जी।

शुक्ल जी खजुराहो जाना चाहते थे हनीमून पर। मगर सृष्टि जी ने इस प्रस्ताव को भी उसी बेदिली से ठुकरा दिया और साफ कह दिया, शादी की रस्मों में ही मां-बाबूजी ने उनका बहुत समय बर्बाद करवा दिया है। अब वे पूरा ध्यान पढ़ाई पर लगाना चाहती हैं। जब कुछ बन जाएंगी, तब खुद ही घूम लेंगी।

जैसे भरे जुकाम में इकलौता रुमाल कहीं खो जाए, उबलते दूध पर कोई नींबू निचोड़ दे…  ऐसा ही जी खट्टा हो गया शुक्ल जी का।

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नियम-धर्म तो निभाना ही पड़ता है। बस इसीलिए शुक्ल जी यथासंभव पति धर्म निभाने का प्रयास कर रहे थे। सृष्टि जी को भी पढ़ाई से रिलैक्स होने के लिए यह पत्नी धर्म निभाना रूचता था। बस इससे अधिक न उनकी शुक्ल जी में रूचि थी और न किसी दूसरी-तीसरी चीज में।

 गृहस्थी तो चल रही थी, उसमें आनंद तो था, पर स्वाद नहीं था। एमए की परीक्षा समाप्त हुई, तो शुक्ल जी ने सोचा कि अब शायद रसोई में रौनक लौट आएगी। पर तब भी सृष्टि जी ने किताबों से गर्दन नहीं उठाई। अभी सिविल सर्विसेज की तैयारी बाकी थी। वे मन बना चुकी थीं कि किसी भी हालत में वे यह परीक्षा पास करके ही रहेंगी। इसी के चलते रसोई में बर्तन कुछ ज्यादा ही बजने लगे थे। सब्जी-रोटी तो सृष्टि जी जैसे तैसे बना देतीं, पर एक बार अपने कमरे में घुस जाने के बाद शाम तक बाहर नहीं निकलतीं। कहां पूड़ी-कचौड़ियों से महकती अम्मा की रसोई और कहां सुबह की बनी रोटियों को दोपहर में गर्म करके खाना। उस पर सिलबट्टा, इसे तो देखते ही सृष्टि जी की त्यौरियां चढ़ जातीं। 

सासू मां उन्हें सूप, छलना, ओखली, मूसल, सिलबट्टा, चक्की की महिमा बताते-बताते थक गईं, पर सृष्टि अपने संग बस एक ही वाक्य ले आईं थीं, “इसमें टाइम बहुत बर्बाद होता है।” वे एक-एक मिनट बचाने की जुगत में लगी रहतीं। जल्दी-जल्दी सब्जी काटती, बनातीं, रोटी सेंकती, शुक्ल जी का टिफिन बांधती, सास-ससुर को चाय-नाश्ता पकड़ाती और बस किताबें लिए अपने कमरे में घुस जातीं। 

चटनी-वटनी तो छोड़िए बहू रानी ने हल्दी-मिर्च पीसने को भी मना कर दिया, कि बाज़ार में जब पिसी-पिसाई मिल रहीं हैं तो इसमें समय बर्बाद करने की क्या जरूरत। और जिसे लेना है ताज़े मसाले का स्वाद, वह खुद ही पीस ले, हम बना देंगे। इशारा शुक्ल जी की तरफ था। पर खाना-सराहना और बात है, उठ कर बनाना और बात। कितने ही लोगों ने बहू से मिलने की इच्छा जताई पर न तो सृष्टि जी कहीं जाने को तैयार और न ही किसी के घर आने पर ही उनके मन में सात पकवान बना सकने लायक उमंग उठती। 

शुक्ल जी को लगता कि उनकी किस्मत में सुखद दांपत्य है ही नहीं। क्रोध उनका अपने परिवार के प्रति भी कम नहीं था। कहां तो शिला श्री के संग-संग पत्थरों में रोमांस की स्मृतियां और कहां ये किताबों में घुसी रहने वाली पत्नी। जीवन तो जैसे बर्बाद ही हो गया था। शिला श्री के टिफिन के ठंडे परांठे कभी-कभी उन्हें बेतरह याद आते।

पत्नी को सबक सिखाने के लिए उन्होंने कुछ दिन अबोले का हथियार भी आजमाया, पर बात नहीं बनी। जब शुक्ल जी मौन धारण कर लेते, तो सृष्टि देर रात तक पढ़ती ही रहतीं, कि जैसे यही अवसर है। 

फिर दूसरा हथियार आजमाया, “भूख नहीं है।”

इसका भी सृष्टि जी पर कोई असर नहीं हुआ। उन्होंने भूख बढ़ाने को कोई अतिरिक्त व्यंजन नहीं बनाया। 

पढ़ते-पढ़ते ही रोटी को गोल कर चाय के साथ ऐसे खा जातीं कि जैसे पूरे परिवार के स्वाद को मुंह चिढ़ा रही हों। शादी हुए साल भर से ज्यादा हो गया था। पर अब तक वह खुश खबरी किसी को नहीं मिल पाई थी, जिसके लिए हर दांपत्य के पहले दिन से ही लोग कान लगाने लगते हैं। सृष्टि जी का एक ही वाक्य, “अभी टाइम नहीं है।” 

ऐसा नहीं है कि टाइम न होने की ठसक वे केवल शुक्ल जी और उनके परिवार को ही दिखाती थीं, बल्कि उनके मायके के लोग जब उन्हें मामा के लड़के की शादी के लिए लिवाने आए, तब भी उन्होंने सपाट जवाब दे दिया, “पंद्रह दिन क्यों बर्बाद करने एक शादी के लिए। हम और शुक्ल जी शादी वाले दिन ही आ जाएंगे घंटे-दो घंटे के लिए। ”

बस उस दिन के बाद से शुक्ल जी भी समझ गए, कि यहां ज्यादा प्रपंच चलने वाले नहीं हैं। ये न प्यार से मानेंगी न गुस्से से। ये मानेंगी तो बस आईएएस बनकर ही। 

घर में ऐसा रूखा माहौल और दफ्तर भी तो ऐसा नहीं था, जहां आदमी मन लगा सके। बस वो और तिवारी जी। दो जन ही थे पुरातत्व विभाग के क्षेत्रीय कार्यालय की इस शाखा में। बाकी का स्टाफ अलग तरह का, जिनसे शुक्ल जी की बस जरूरत भर की ही बातचीत थी। 

उस पर जब तिवारी जी का खाने का डिब्बा खुलता, तो शुक्ल जी का अपने दांपत्य के प्रति असंतोष और भी बढ़ जाता। हर दिन मसालों की खुशबुओं में महकती सब्जी और साथ में नित नए पकवान। पितृ पक्ष में तो उनके खाने के डिब्बे की सुगंध और बढ़ जाती। 

पितृ पक्ष के ऐसे ही एक दिन में तिवारी जी ने शुक्ल जी को घर भोज का निमंत्रण दिया। हालांकि शुक्ल जी पढ़े-लिखे और पुरातत्व विभाग की बढ़िया नौकरी में थे, पर भोज का ऐसा स्नेहपगा निमंत्रण वे ठुकरा नहीं पाए। 

 ***


 

तिवारी जी के घर में कदम रखते हुए सिलबट्टा शुक्ल जी को यूं लगा जैसे वे सतयुग में पहुंच गए हैं। सिर पर पल्लू करने वाली सुघढ़ गृहणी। भोज की थाली देखकर तो शुक्ल जी के सब सुप्त स्वाद जाग गए। दही आलू की सब्जी, खीर, पापड़, अचार, पूड़ियों की तो पूछिए ही नहीं, ऐसी नर्म कि कब कौर तोड़ा, कब मुंह में घुला पता ही न चले। सबसे ज्यादा स्वाद थीं दाल भरी कचौड़ियां। चना दाल की ऐसी नर्म कचौड़ियों से ही उनका बचपन आबाद रहा है। पर जब से पत्नी आईं हैं, मां ने भी रसोई में न जाने की ठान ली है।

एक के बाद दूसरी, दूसरी के बाद तीसरी, तिवारी जी की पत्नी ने थाली खाली नहीं होने दी। शुक्ल जी भी दबाकर बस खाते ही गए, जब तक अपान वायु के रास्ता खोजने की आपात स्थिति नहीं आ गई। दोहरे बदन की पत्नी की प्रशंसा करते हुए तिवारी जी ने शुक्ल जी की दुखती रग छेड़ दी, “शुक्ल जी कचौड़ियों का ये स्वाद ऐसे ही नहीं हैं, हमारी पत्नी सब मसाले और दालें सिलबट्टे पर ही पीसती हैं।”

सिलबट्टे से दाल पर, दाल से घोड़े पर, घोड़े से मर्द पर और मर्द से सृजन पर पहुंचते-पहुंचते बातचीत जिस दिशा में बढ़ रही थी उससे लग रहा था कि सृष्टि का आधार चना दाल ही है। अगर चना दाल नहीं होती, तो इस संसार में न सुख होता, न स्वाद और न ही सृजन। और इसमें अगर किसी का सहयोग है तो सिर्फ और सिर्फ सिलबट्टे का।

ये चना दाल की कचौड़ियों की ऊर्जा ही थी कि शुक्ल जी ने तय कर लिया, कुछ हो जाए अब रसोई में सिलबट्टे को उसका पुराना मान दिलवा कर ही रहेंगे। 

उन्हें नहीं है किसी की परीक्षा, सिविल सर्विसेज या बढ़िया नौकरी का लोभ। सब किताबें उठाकर आज ताख पर नहीं रख दीं तो उनका भी नाम नहीं। उनकी नौकरी पर्याप्त है,  घर चलाने के लिए। जो पत्नी आज कचौड़ी तक बनाकर नहीं दे रही, कल अफसर बनने के बाद जाने साथ रहेगी भी कि नहीं! 

उनका पौरुष जाग गया था, अब वे किसी तरह से झुकने वाले नहीं थे। ऊर्जा और आक्रोश में भरे हुए वे घर पहुंचे।

आज वे तय समय से कुछ देरी से घर पहुंचे थे। भूख तो बिल्कुल नहीं थी, मन तृप्त हो गया था। घर पहुंचे तो देखा पत्नी रसोई में है, उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। क्या उनके संकल्प में इतनी शक्ति है कि उनके बिना कहे ही किताबें छोड़कर उनकी पत्नी रसोई में पहुंच गई है।

तब तो निश्चित ही वही होगा, जो वे ठान चुके हैं। सृष्टि जी इतनी व्यस्त थीं कि उन्होंने सिलबट्टा शुक्ल का आना भी नहीं देखा। वे बस अपने काम में लगी हुईं थीं। एक-एक डिब्बा छान रहीं थीं, देख रहीं थीं, फिर रख दे रहीं थीं। हो न हो वे चने की दाल ही ढूंढ रहीं हैं। आज जरूर घर में भी चना दाल की कचौड़ियां ही बनेंगी!

अरे हां, एकदम! सृष्टि जी ने चना दाल का डिब्बा ही उठाया है। दाल निकाली और थाली में पलटी ….  शुक्ल जी को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। क्या उनके दांपत्य में आज वही स्वाद घुलने वाला है, जिसकी उन्होंने हमेशा से ही कामना की थी! 

सृष्टि जी ने दाल को उलटा-पलटा, हाथ से खंगाला और सारी दाल लिफाफे में बांधी और कूड़ेदान में फेंक दी! 

आह! एक पाषाण शिला जैसे शुक्ल जी के हृदय पर गिर पड़ी हो।

“यह क्या किया?” शुक्ल जी चीख पड़े। 

सृष्टि जी भी चौंक गईं इस तेज़ आवाज़ पर। फिर संभली, “क्या किया मतलब?”

“मतलब ये कि दाल क्यों फेंक दी सारी?” 

“घुन लग गया था!”

चना दाल के इस दुखांत की शुक्ल जी ने कतई कल्पना नहीं की थी। वे बस भरी आंखों और भर्राये गले से अपना थैला उठाए सिलौटे के थान पर पहुंच गए। वही पत्थर, वही धातु, वही पाषाण दुनिया….

और सिलौटे के थान से ही सिलबट्टा शुक्ल अपना पहला फेसबुक लाइव कर रहे हैं। वे दुनिया भर को बता देना चाहते हैं कि सिलबट्टा इस दुनिया के लिए कितना महत्वपूर्ण है। वे औरतें जो सिलबट्टे का मान नहीं कर सकतीं, सब की सब नाकारा और आलसी हैं। कुछ लोगों ने हार्ट बनाया, कुछ ने स्माइल, लाइक की तो झड़ी लग गई। शायद कहीं शिला श्री भी इस फेसबुक लाइव को देख रही हों….. और पुरानी मुहब्बत को याद करते हुए सिलबट्टे पर लहसुन-धनिया की चटनी पीसने लगी हो!

 

मगर सृष्टि जी को इस सबसे क्या। कूकर में सीटी आते ही वे गैस बंद करके अपने कमरे में घुस गईं हैं। आज से उनकी कोचिंग क्लास शुरू हो रही है। बहुत मुश्किल से उन्हें यह शाम सात बजे का ऑनलाइन बैच मिला है। तो आज रात के खाने में परिवार को खिचड़ी से ही संतोष करना होगा।

तमाम मसाले, व्यंजनों की परंपरा, दिल तक पहुंचने के सनातन रास्ते और भावभीने लाइव को धता बता सृष्टि जी ने धड़ाक से अपने कमरे का दरवाजा बंद कर लिया है – कि उन्हें डिस्टर्बेंस बिल्कुल पसंद नहीं।

 

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रचनाकार परिचय 





भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित कहानी संग्रह ‘क्लीन चिट’ (2014) और ‘गलत पते की चिट्ठियां’ (2020) के साथ योगिता यादव ने समकालीन हिंदी कथा साहित्य में अपनी एक अलग और मजबूत पहचान बनाई है। ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार (2014), कलमकार सम्मान (2015)   राजेंद्र यादव हंस कथा सम्मान (2016) और डॉ शिव कुमार मिश्र स्मृति सम्मान (2018) इसकी तसदीक करते हैं। उनकी कहानियां स्त्री विमर्श के लिए एक नई खिड़की खोलती हैं, जहां एक-स्त्री दूसरी स्त्री के साथ खड़ी दिखाई देती है। सामयिक प्रकाशन से प्रकाशित ‘ख्वाहिशों के खांडववन’ उनका चर्चित उपन्यास है।


 

Yogita Yadav 6097886235289912670

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  1. नीलिमा शर्मा10 January 2022 at 22:38

    वाह वाह मजा आ गया कहानी पढ़कर

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  2. बहुत ही शानदार एवं रोचक कहानी ।बहुत बधाई।

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  3. अभी कहानी पढ़ी। वर्णन की रोचकता तो है ही। निश्चित रूप से पुरुष की आकांक्षाएँ पुरातन ही है,कुछेक अपवाद को छोड़कर। परंतु लड़कियां अपने कैरियर के प्रति अवश्य सजग हुई हैं। फिर भी,अब लड़के कमाऊ पत्नी चाहने लगें हैं। फिलवक्त अपने कहन की दृष्टि से कहानी सफल प्रतीत होती है। जिस संयम से योगिता जी ने कहानी का समापन किया है,उसने कहानी को लाउड होने से बचाया है और यही उसकी खूबसूरती भी है। योगिताजी और रश्मिजी को समवेत बधाई।

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  4. भूमिका के अनुरूप ही कहानी को उम्दा पाया। एक फ्लो में ही पढ़ गया। बधाई योगिता जी।

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    1. बहुत आभार प्रदीप जी

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