एक मुक्तिकामी स्त्री या स्वेच्छाचारिणी : नीना आँटी
कौन हैं नीना आंटी! कोई मायाविनी, जादूगरनी, एक अति महत्वाकांक्षी स्त्री या स्वेच्छाचारिणी! नीना आंटी अपने मन का करती है क्योंकि मन का करने के लिए अपने मन को जानना होता है। और वह अपना मन जानती है। स्त्रियों के लिए विभेद से भरे इस समाज में एक स्त्री के लिए अपना मन जानना और उसकी सुनना आसान नहीं होता। वह जीते जी एक किंवदंती, एक सनसनीखेज ख़बर में बदल सकती है। एक पहेली जिसे सभी सुलझाने को आतुर हों।
स्त्री द्वेष से भरे इस समाज में स्त्रियों पर की जा रही शारीरिक और मानसिक हिंसा इतनी आम है कि लगभग सहज स्वीकार्य है। ख़ुद स्त्रियों के बीच भी। ऐसे परिवेश में लगभग तीन दशक पहले विद्रोहिणी नीना अपने शर्तों पर जीना चुनती है। बिना चीखे, चिल्लाए, किसी ज़िद्दी धुनी सी अपनी राह शिक्षा से रौशन करती जाती है। अपनी सेक्सुएलिटी को लेकर भी वह किसी वर्जना में नहीं है, ना ही समाज के दबाव में अपनी एक सहज स्त्री की तरह जीने की आज़ादी से समझौता करती नज़र आती है। कुछ इस हद तक कि कभी -कभी महसूस होता है कि वह एक स्वार्थी स्त्री है जिसके सामने किसी और की इच्छाओं का कोई मान नहीं। लेकिन यहाँ यह समझने की ज़रूरत है कि माता-पिता, भाई-बहन, समाज की वे इच्छाएँ क्या स्वानुभूत हैं या थोपी गयी, उधार ली गयी कंडीशनिंग हैं! उनकी जड़ें इतनी गहरी जम चुकी हैं कि अपनी ही कामना की तरह पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाई जातीं रहतीं हैं। तभी नीना के बाद की पीढ़ी, उसके भाई-बहन के बच्चे भी अपने ऊपर उन्हीं इच्छाओं की बेड़ियाँ कसते महसूस करते हैं। उनके ख़िलाफ़ पूरे कथानक में अपनी आवाज़ मुखर करते नज़र आते हैं। पिछली पीढ़ी से विचारों के अंतर का द्वंद्व और अपनी इच्छाओं के दमन की कोशिशें देखकर उन्हें नीना आंटी के जीवन की मुश्किलें ज़्यादा बेहतर तरीके से समझ आती है। वे नीना से इसलिए भी क़रीब महसूस करते हैं क्योंकि वह बिना किसी पूर्वाग्रह के उनके जीवन के फ़ैसलों को सुनती है और सहजता से स्वीकार करती है। वह जानती है कि उलझे हुए धागों को खींचना नहीं चाहिए, हल्के हाथों से एक एक गाँठ सुलझानी चाहिए। हालाँकि अपने सहोदरों के साथ उलझे हुए रिश्तों की गाँठ सुलझाने की कोई कोशिश उसकी ओर से नहीं दिखती लेकिन बहनों की नफ़रत और संशय के बाद भी वह उनके जीवन के बारे में सहानुभूति रखती है। उनके बच्चों से उसका स्नेह ताउम्र बना रहता है।
नीना ताउम्र अविवाहित रहती है। एक अकेली स्त्री जीवन द्वारा पैदा की गयी बहुतायत मुश्किलों के बीच अक्सर अपनी सहजता, अपनी कोमलता अनजाने में ही नष्ट करती जाती है। वे सब छोटे-छोटे सुख जो किसी स्त्री के लिए आम हो सकते हैं, एक अकेली औरत के जीवन की वर्जित लग्ज़री बन जाते हैं। लेकिन नीना ने अपनी सहजता नहीं खोई है, अगर खोई भी है तो वह उसका दुःख मनाती दिखाई नहीं देती। जीवन की ठोकरें और समाज के लांछन झेलकर अक्सर उसका स्वभाव एक ऐसी निर्लिप्त अवस्था को प्राप्त करता जान पड़ता है, जहाँ सुख-दुख घुलकर एकाकार हो जाते हैं। वह क़िस्म क़िस्म के पौधे, बेरियां रोपती हैं, गुलाब जल बनाती है, बिल्ला पालती है लेकिन कहीं भी बंधती नज़र नहीं आती। रिश्तों से कुछ इस क़दर विरक्त है कि पाले गए बिल्ले को नाम भी नहीं देती। वह जानती है कि उसमें प्रेम में ख़ुद को पूरी तरह सौंप देने की क्षमता है लेकिन हर कोई इसका पात्र नहीं हो सकता। पहले बॉयफ्रेंड से मंगेतर तक,नीना के प्रेम की पात्रता अर्जित नहीं कर सकने वाला शख्स उसके जीवन में नहीं टिकता। एक स्त्री का अपनी इच्छाओं ,अपनी पसंद के लिए इतना मुखर होना समाज को चुभना लाज़िमी है। उसमें इतने स्वतंत्र खाँचे में गढ़ी गयी स्त्रियों को स्वीकारने की उदारता अभी विकसित नहीं हुई है।
लेखिका ने नीना के मन की उथलपुथल को अधिक विस्तार नहीं दिया है बस जगह-जगह नीना द्वारा कहे सूत्र वाक्य गूंथे हैं जिससे उसके व्यक्तित्व को जानने-समझने की खिड़की खुलती है। उपन्यास में उसे जेन कोएंज कहा गया है, बौद्ध परम्परा की वह गूढ़ पहेलियाँ जो सूक्तियों या कहानी के रूप में कही जाती हैं। नीना की ये मितभाषिता या सबके सामने अपना मन न खोलने की प्रवृत्ति, जिसकी शिकायत कथा के पात्र भी समय-समय पर करते रहते हैं, उन पात्रों की तरह ही पाठकों के लिए भी उसे जटिल किरदार की तरह प्रस्तुत कर सकते हैं। एक सूत्र के बिगड़ने या उसका अर्थ ठीक तरह से आत्मसात नहीं कर पाने पर सम्पूर्ण किरदार को ही ग़लत समझ लेने का ख़तरा है। ठीक उसी तरह जैसे नीना के माँ-जाए भी उसे ताउम्र नहीं समझ पाते।
किसी जेन कोएंज की तरह ही स्त्री पुरुष के बीच पनपने वाले दिखने में सामान्य लेकिन अपनी गढ़न में जटिल सम्बन्धों के कई सूत्र लेखिका ने उपन्यास में छोड़े हैं। इनपर विस्तार से बात की जाए तो लैंगिक शक्ति असंतुलन, सम्बन्धों के मनोविज्ञान की महीन परतें हमारे सामने खुलती जाएंगी। नीना की बहन समेत कई अन्य लड़कियों का स्वप्न पुरुष, जो उनकी चिट्ठियों को किसी तमगे से दिखाता है, नीना के मन से इसी सतहीपन के कारण बहुत जल्दी उतर जाता है। उसके साथ घर छोड़ने का फ़ैसला भी वह प्रेमातुर होकर नहीं करती बल्कि घर वालों के थोपे रिश्ते से बचने और अपनी आज़ादी के लिए करती है। नेपथ्य से मन में गूंजने लगतीं हैं कवि आलोक धन्वा की 'भागी हुई लड़कियाँ'-
" अगर एक लड़की भागती है
तो यह हमेशा जरूरी नहीं है
कि कोई लड़का भी भागा होगा
कई दूसरे जीवन प्रसंग हैं
जिनके साथ वह जा सकती है
कुछ भी कर सकती है"
उसके मंगेतर की अवसादग्रस्त स्थिति में आत्महत्या का भी ज़िम्मेदार उसे माना जाता है। हत्यारिन, चुड़ैल जैसे विशेषणों से गुज़रते हुए हालिया ही घटे अभिनेता सुशांत राजपूत और रिया मुद्दे की शिद्दत से याद आती है। पूरी उपन्यासिका में समाज द्वारा किए जा रहे स्त्री- स्टीरियोटाइपिंग की अनुगूंजें हैं। नीना रोती कलपती नहीं दिखती, ये भी उसके गुनहगार होने के संकेत हैं। समाज तो क्या, उसके सहोदर भी उसे जादू-टोने और बुरी नज़र रखने वाली स्त्री की तरह देखते हैं।
प्रोफ़ेसर से उसके रिश्ते पर लेखिका अपनी तरफ़ से कोई संकेत नहीं देती, जैसे इसका फ़ैसला पाठकों के विवेक पर छोड़ देना चाहती है। प्रोफ़ेसर के मरने के बाद उसकी वसीयत में मिला यह निर्णय कि अपना पहाड़ का मकान मैं अपनी सबसे प्रिय शिष्या नीना को देता हूँ, "जिसके साथ मैंने शब्दों, अर्थों की अनगिन यात्राएँ तय कीं" उनके बीच पनपे कोमल रिश्ते की घोषणा की तरह आता है। प्रोफ़ेसर की पत्नी उन दोनों को आरम्भ से ही अपना निश्छल विश्वास सौंपती है और मज़बूती से समाज के विरुद्ध जाकर उनके साथ खड़ी होती है। उसका वसीयत सुनने के बाद दिए की लौ को बुझा देना उसके भरोसे के टूटने का संकेत है। एक अन्य स्त्री के साथ हुए छल की अंतर्कथा यहाँ उभरती है और नीना के फ़ैसले पर मन में सवाल खड़े करती है। हालाँकि लेखिका यहाँ भी मौन है जैसे निर्णय पाठकों पर ही छोड़ देना चाहती हो।
स्वचयन के रास्ते हमेशा सही हों, यह ज़रूरी नहीं है। कई बार व्यक्ति के लिए गए निर्णय बिल्कुल ही ग़लत होते हैं जिसका नकारात्मक प्रभाव उसके और उससे जुड़े लोगों के जीवन पर भी पड़ता है। यह स्थिति फिर भी दूसरों के थोपे गए निर्णय का बोझ झेलने से बेहतर है। उपन्यासिका में दोनों ही स्थितियाँ बहुत ही सटीक तरीके से दर्शायी गयी हैं। एक तरफ़ सामाजिक निर्मिति से गढ़ी गयी पात्र हैं-नीना की माँ, बहनें, भाभी, एक तरफ़ अपने निर्णय के साथ नितांत अकेली बची नीना है। सम्पूर्ण प्रसन्नता शायद दोनों ही स्थितियों में नहीं है, लेकिन नीना के पास कम से कम अपने जीवन के फ़ैसले ख़ुद लेने की संतुष्टि है।
नीना की बहनें और माँ कथा में पिरोए गयी लोककथा की उस चिड़िया की तरह है जो धनिक की पालतू है। उसके अनाज का सरंक्षण करती अपना जीवन समर्पित कर डालतीं हैं। कभी अपनी बेडियाँ तोड़कर आज़ाद होने की चेष्टा तक नहीं करतीं। यहाँ बिहार की सोनचिरैया लोककथा पर लिखी अपनी ही एक कविता याद आयी मुझे- हो राम चुन चुन खाए!
" जब तक स्वामी के अधीन हो
लक्ष्मी, अन्नपूर्णा
राजमहिषी हो
आँगन में बंधी सहेजती रहो अनाज
तुम्हें आजीवन मिलता रहेगा
पेट भर अन्न, ह्रदय भर वस्त्र- श्रृंगार
परपुरूषों से सुरक्षा
तुम्हारे निमित्त रखे गए हर अन्न के दाने पर यही सीख खुदी है"
इन पंक्तियों को इस उपन्यासिका के मूल भाव की तरह पढा जा सकता है-
"ख़ुद चुना हुआ कुछ भी तुम्हें कमतर नहीं करता, अपने चुनाव से तुम्हें दुःख पहुँच सकता है, पीड़ा हो सकती है, और तुम्हारी वजह से दूसरों को भी लेकिन अंत में तुम उससे उद्भासित ही होगी, अपना आपा ही पाओगी।"
स्त्रियों की दोयम दर्जे की स्थिति के कारण अक्सर उनके सामान्य चुनावों पर भी समाज की वक्र दृष्टि पड़ती है। वह हर क़दम उस स्वतंत्रचेत्ता स्त्री की राह में रोड़े अटकाने की कोशिश करता रहता है, उसकी सहजता उससे छीनने की कोशिश करता है। नीना आंटी की तरह एक मुक्तिकामी स्त्री की अपने स्पेस गढ़ने -पाने की यात्रा कई चक्रवातों, उलझनों, आघातों, लांछनों के बाद शायद ही मुकम्मल हो पाती है।
लेखिका अनुकृति उपाध्यायका यह पहला लघु उपन्यास है। एक स्वतंत्रचेत्ता स्त्री की इस यात्रा को वह और विस्तार से दे सकती थीं। पाठक के मन में और पढ़ने की चाह छूट जाती है, इसे इस उपन्यासिका की सफलता की तरह भी देखा जा सकता है।
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रश्मि भारद्वाज
लेखिका- अनुकृति उपाध्याय
राजपाल प्रकाशन
मूल्य- 175 रुपए