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“सीगिरिया पुराण” उपन्यास अंश - प्रियदर्शी ठाकुर ख़याल

  प्रियदर्शी ठाकुर ख़याल का नया उपन्यास ' सीगिरिया पुराण'  भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत है, उपन्यास का एक अंश मेराकी ...

 

प्रियदर्शी ठाकुर ख़याल का नया उपन्यास 'सीगिरिया पुराण' भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत है, उपन्यास का एक अंश मेराकी पत्रिका में।  



कश्यप
 महाराज

अनुराधापुर / सन् 478 ईसवी

 

 स्वयं मुकुट पहने हुए होने पर भी उन्हें देखकर महाराज और पितृ-राजन जैसे संबोधन ही मन में आए, मानो उनके सामने महाराज का नाटक खेलने आया हूँ l वह दीवार से पीठ टिकाए, घुटनों पर हाथ लटकाए बैठे छत को निहार रहे थे; आँखें तरल, धुँधलाई हुई-सींदोनों हाथों की उँगलियों पर बँधी पट्टियों पर रक्त के सूखते धब्बे थेमेरे आने की आहट सुनकर दूर ही से बोले‘तुम... तुम आ गए मोगल्लान मेरे पुत्रयह मुकुट तो बहुत शोभ रहा है तुम पर l’ 

मेरा मन क्षुब्ध हो उठा, पर मैं निकट आ चुका था l

‘जी, मैं कश्यप l’

‘अरे कश्यप, आओ... आओ पुत्र, अब इन बूढ़ी आँखों को दोनों बेटों का अंतर भी दिखाई नहीं देता ! आओ, कुछ देर बैठोगे मेरे पास?

 मेरे मन की खटास एकदम से कम हो गई l मैं उनके पूरी तरह बदले हुए स्वर और व्यवहार से चकित उन्हें देख रहा था l आज न कोई कटाक्ष न दुत्कार !

मैं उनके पास भूमि पर पालथी मारकर बैठ गया l

‘कल रात तुम्हारे जाने के बाद मिगार फिर आया; मेरे बचे हुए दो नख उखाड़ लिए और साथ ही मेरे हस्ताक्षर-मुद्रा वाली अँगूठी भी छीन ले गया l  न जाने क्या करना चाहता है मेरे नाम पर ... तुम देख लेना l’ वे रुक-रुक कर ऐसे तटस्थ भाव से बोल रहे थे जैसे वह सब किसी और के साथ हुआ हो l मैं स्तब्ध  उन्हें देख रहा था l

‘बहुत कष्ट में होने पर भी आँख लग गई... बहुत दिनों के बाद स्वप्न में तुम्हारी माँ दिखाई दी…’  उनकी तरल आँखें एक बार को उठीं और फिर झुक गईं,अधरा कुछ बोली नहीं ..देर तक केवल चुपचाप देखती रही ... फिर सुमनवल्लरी आ गईं, कहने लगीं, ‘बहुत अन्याय किया तुमने l’  और कुछ नहीं कहा l उनसे पहले तुम्हारी माँ का मौन भी संभवतः यही इंगित कर

 वह चुप हो गए l मेरा हृदय कुछ द्रवित-सा हो गया l पता नहीं था कि वह पत्थर होने से ठीक पहले की दशा थी l

‘पता नहीं, हो सकता है वे दोनों यह कहना चाहती हों कि स्वयंसिद्धा की दिखाई हुई संपदा एक बार तुम्हें दिखा तो दूँ ...मैंने रात ही मन बना लिया था - मुझे कल-वेव ले चलो तो  दिखा दूँगा l’

‘अवश्य, पितृ-राजन... किंतु...’

‘किंतु-परंतु न करो, आज ही ले चलो l क्या पता फिर मेरा मन बदल न जाए कहीं...’

‘हाँ, आज ही ले चलूँगा लेकिन मैं आपसे कुछ पूछना चाहता हूँ - आप सच-सच बताएँगे?’ वे चुपचाप मुझे देख रहे थे l

‘क्या मेरी माँ नीच कुल की दासी थी ?  इसीलिए मुझे मेरा दाय नहीं मिला?’

महाराज कुछ चौंक-से गए l

‘इतनी पुरानी बातें... अब क्यों ...मैं तुम्हारी माँ से बहुत प्रेम करता

 मैंने ऊँचे स्वर उनकी बात काटते हुए कहा, ‘यह मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं l’

वह कुछ देर चुप बैठे घुटने पर रखे अपने हाथों को देखते रहे l

‘आपको बताना होगा...’

‘ अधरा को पटरानी लाई तो अपनी परिचारिका के रूप में ही थीं किंतु...’

सहसा मेरा जी एकदम निर्मम, कठोर हो उठा

‘किंतु आपने पहले दिन ही उसका बलात्कार किया और सात दिनों तक निरंतर करते रहे, ...करते रहे कि नहीं? बताइए, बताना होगा,’ मैं और ऊँचे स्वर में बोला मानो किसी आरोपी से पूछताछ चल रही हो l

‘यह सब किसने कह दिया तुम्हें... सरल नहीं है, न बताना न सुनना

मैंने फिर बात काटते हुए कहा, ‘विश्वस्त सूत्रों ने ...सरल हो या कठिन, बताइए -  क्या मैं उसी बलात्कार की संतान हूँ?’ मैं क्रोध से काँप रहा था l

‘देखो पुत्र, यदि तुम्हें मोगल्लान के युवराज बनाए जाने का रोष है, तो स्पष्ट बता दूँ कि संघस्थविर, महामात्य, अमात्य-गण, सामान्य जन सब में कुलीन संतान अधिक स्वीकार्य होते आए हैं ...और फिर मिगार की मित्रता से तुमने स्वयं अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार ली l किंतु यह सर्वथा असत्य है कि तुम मात्र वासना की संतान हो - यह धारणा भी संभवतः मिगार ने ही तुम्हारे मन में बिठाई है l सुमनवल्लरी तक को मालूम था कि अधरा से मैं कितना प्रेम करता था l’

 मेरे हृदय पर रखा पत्थर ही अब मेरा हृदय बन चुका था – ‘धातुसेना, अपने घटिया भाषण अपने पास रखो, केवल यह बताओ कि बलात्कार

‘बार-बार इस शब्द का प्रयोग करके अपनी स्वर्गीय माता का अपमान न करो, कश्यप ! तुम्हें इतने आक्रोश में देखकर इतना ही कहूँगा कि कोई राजा जब किसी परिचारिका से या कोई सिद्ध गुरु अपनी शिष्या से संभोग करता है तो उसमें थोड़ा हो अथवा अधिक, बलात्कार का कुछ न कुछ कुछ तत्व होता अवश्य है; उनका राजत्व, उनका प्रभामंडल उस स्त्री तक को भ्रमित कर देता है, उसे लगता है कि वह शुद्ध स्वेच्छा से समर्पण कर रही है ...

‘अपनी बकवास बंद करो, उठो, अभी इसी समय कल-वेव चलना है l’

मेरी एड़ी से चोटी तक क्रोध की प्रचंड लहर व्याप उठी थी l सोच रहा था मिगार ठीक कहता है - मैं एक नितांत कामी और क्रूर पिता का दासी के बलात्कार से उत्पन्न पुत्र हूँ l

 

                                                   ***

 

 

सुमनवल्लरी

अनुराधापुर महाविहार / सन् 478  ईसवी

 

 

 

 गर्भवती संघा की गंभीर अस्वस्थता के कारण मन पहले ही से खिन्न था; अब जो कुछ स्वयंसिद्धा ने बताया है उससे मेरा क्लेश प्राणांतिक हो उठा है l किन्तु उसे जो दिखाई देगा वही तो बताएगी l इसके अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं -  महाविहार के सातवें तल की छत पर से प्रियतम के दर्शन से अधिक अब मुझे कुछ नहीं मिल सकता l

 यहाँ महाविहार में महाराज से अलग हो जाने के अतिरिक्त कोई कष्ट नहीं l संघस्थविर की बहुत कृपा है हम सब पर - कभी कोई संकट नहीं आने दिया l पर स्वयंसिद्धा कहती है कि स्थान परिवर्तन का समय निकट आ गया है l समस्त प्रिय-जनों से दूर, बहुत लंबी अवधि के लिए l

स्वयंसिद्धा और नीलमणि मेरे साथ हैं l संघा इतनी सीढ़ियाँ नहीं चढ़ सकती - पिता के दर्शन उसके भाग्य में नहीं l

ठीक मध्याह्न के पहर प्रासाद परिसर का द्वार खुलता है और दो रथ निकलते हैं - पहले में मेरे महाराज हैं; उनका पुराना सारथी रथ चला रहा है l महाराज का शरीर गेरुए चादर से ढका है, माथे पर मुकुट नहीं ...केश रुई के फाहों जैसे श्वेत ...हे तथागत ! दो ही दिनों में मेरे स्वामी की क्या गत बना दी इन पापियों ने l मेरे नयनों में तो उनका वही सुदर्शन स्वरूप रहने दो, प्रभू , जब वे मुझे ब्याह कर रुहुन से अनुराधापुर लाए थे l यह तो उनकी परछाईं है जिसे जाते देख रही हूँ l

कलेजे में हूक उठी और स्थितप्रज्ञ रहने के सब प्रयासों को तोड़ती हुई अश्रु-धार बनकर मेरे गालों पर से होती हुई मेरा वक्षस्थल भिगो रही है l

 दूसरे रथ पर कश्यप है; त्रि-सिंहल नरेश, अनुराधापुर का नया स्वामी l उसने मेरे महाराज का मुकुट पहन रखा है; जैसा मैं चाहती थी, कि मेरे स्वामी के बाद वह उसके सिर पर हो, किंतु वह तो उनके  जीते जी हो गया l

 दूसरा रथ मिगार चला रहा है - और संभवतः नए महाराज को भी !

आज प्रातःकाल मिगार ने जो घोषणा की और नगर प्रांगण में जो अत्याचार करवाए उसका विवरण नगर में तो जंगल की आग के समान फैल ही चुका था, महाविहार में भी सब ओर उसी की चर्चा है l किसी को घर से बाहर निकलने की अनुमति नहीं l उन दो रथों के अतिरिक्त नगर का मुख्य पथ सुनसान है, गलियों की तो बात ही क्या l

     कुछ ही पल में दोनों वाहन दृष्टि से ओझल हो गए l सीढ़ियाँ उतरकर अपने कक्ष में औंधे मुँह लेटी फफक रही हूँ – किसी में ढाढ़स बँधाने का हियाव नहीं l महाराज को कल-वेव झील घुमा लाने के बाद सिद्धा की दिव्य-दृष्टि में जो दृश्य कौंधे थे उनका सार वह मुझे बता चुकी है l उसने जितना बताया वही पर्याप्त था मेरे हृदय को चीर देने को !

 

                                           ***

 

 




 

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  1. पढ़ने की उत्सुकता बढ़ गई!

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