फिरोज़ मंज़िल की रोमिला: राजेश्वर वशिष्ठ की नयी कहानी
राजेश्वर वशिष्ठ की कविताओं में स्त्री और प्रेम अपने विविध रूपों में मौजूद रहते हैं। उनका गद्य भी बेहद आकर्षक और तरल होता है। मेराकी पर पढ़ते हैं कोरोना काल में लिखी उनकी एकदम नयी कहानी जहाँ इस आपदा की आहटों के बीच मनुष्य की विवशता और एक स्त्री के निर्णय की सामाजिक पृष्ठभूमि को बारीकी से बुना गया है।
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फिरोज़ मंज़िल शहर का पुराना मुहल्ला ज़रूर है पर अड़ोस-पड़ोस के घरों के बाशिंदे इल्मयाफ्ता हैं। अमीर न सही मध्यम वर्ग के लोग हैं जिनके पास नौकरियाँ हैं या छोटे-मोटे काम-धंधे हैं। मेरे अब्बा हुज़ूर इस्लामिया कॉलेज में लाइब्रेरियन थे पर अम्मी जान की गोद में तीन बेटियाँ डाल कर, कुल जमा बयालीस साल की उम्र में इस जहाँ से रुखसत हो गए। अम्मी जान बताती हैं उनके इंतकाल के वक्त, मैं पौने चार साल की थी। मेरी दो बहनों में उम्र का फर्क ज़्यादा नहीं था पर मैं बहुत बाद में किसी हकीम की दवाई और सयाने के ‘शर्तिया बेटा होने’ के तावीज़ को मुँह चिढ़ाते हुए इस दुनिया में आ गई थी।
अब्बू के इंतकाल के बाद का वक्त अम्मी के लिए बहुत बुरा था इसे हम धीरे-धीरे बड़ी होती हुई लड़कियों ने संजीदगी के साथ देखा था। जब-जब बाराबंकी से दादा जी आते, हम लोग सुरक्षा गार्डों की तरह अम्मी जान के आस पास ही मंडराते रहते थे। हालाँकि दादा जी हमें खेतों से हुई आमदनी, अनाजों और दालों की पैदावार का हमारा हिस्सा देने के लिए ही आते थे पर अम्मी उनकी मौजूदगी में, हर वक्त तालाब की मछलियों की तरह बेचैन हो कर इधर-उधर भागने लगती थी। उनकी छाया में एक ऐसा जिन्न था जो हर वक्त अम्मी को डराता रहता था। हम तीनों बहनें ठीक से कुछ न समझते हुए भी बहुत कुछ समझने लगी थीं। यह अलग बात है कि इस मसले को लेकर हम बहनों के अनुमान, उम्र और परिपक्वता के अनुपात में थोड़े-थोड़े अलग थे। बहुत छोटी होने के कारण मुझे ज़्यादा कुछ समझ नहीं आता था – पर लगता था कि दादा जी अम्मी से बहुत नाराज़ रहते हैं।
कुछ वर्षों बाद जब दादा जी का इंतकाल हुआ और हम लोग उन्हें सुपुर्दे-खाक करने के बाद बाराबंकी से लखनऊ लौटे रहे थे तो रास्ते में निगार ने अम्मी की बदकिस्मती और दादा जी की नीयत का कच्चा चिट्ठा हमारे सामने खोल कर रख दिया। मुझे हैरानी हुई कि जो बात मैं ठीक से नहीं समझ पा रही थी, निगार और शबनम उस मसले को बखूबी समझती थीं। उस दिन निगार ने कहा था – मर्द और औरत के बीच ऐसे बहुत कम रिश्ते होते हैं जिनमें मर्द, औरत के जिस्म को पाने के लिए ललचाता न हो! सुन कर मेरे तो रोंगटे खड़े हो गए थे। मुझे लगा था, क्या हम औरतें इस दुनिया में मर्दों की जिस्मानी भूख को मिटाने के लिए ही लाई गई हैं?
अगले कुछ सालों में हमें अपने आस-पास की लड़कियों और औरतों के मर्दों के साथ बनें अनेक रिश्तों के बारे में पता चल गया था। हम अपनी सहेलियों के साथ सबसे अधिक खुसर-पुसर इसी टॉपिक पर किया करते थे। हमें यह भी पता चल गया था कि आमतौर पर शादीशुदा मर्दों और औरतों की जिस्मानी ज़रूरतें एक जैसी नहीं होती हैं। पति-पत्नी बने जोड़े भी ज़िंदगी भर गुप-चुप अपना उपयुक्त साथी खोजते ही रहते हैं, यह दीगर बात है कि कभी ज़रूरतें जिस्मानी होती हैं तो कभी रूहानी। इन बातों को शुरु करना आसान होता था, पर खत्म करने का दिल ही नहीं होता था। इन बातों के बीच में, कलेजा धक-धक करने लगता और जिस्म में उफान-सा आ जाता था।
दादा जी के इंतकाल के बाद, अम्मी में बहुत सारी हिम्मत एक साथ आ गई थी। उन्होंने निगार और शबनम के साथ बाराबंकी जाकर ज़मीन-जायदाद और खेती के अपने हिस्से के एवज में, देवरों से वाजिब मुआवजा ले लिया। एक साथ कई लाख रुपये मिलने से हम अचानक अमीर हो गए थे। मेरी दोनों बड़ी बहनें जिनकी दिलचस्पी ग्रेजुएशन के बाद आगे की पढ़ाई में नहीं थी, अपने लिए ढेर सारे गहने और कपड़े खरीदने में मशगूल हो गई थीं। अम्मी जान ने आने वाले दिनों में उनके रिश्ते तय कर दिए और देखते ही देखते, वे निकाह की रस्म अदायगी के बाद अपने शौहरों का घर रोशन करने चली गईं। तब मैं बी. ए. कर रही थी और बहुत सारा पैसा एकमुश्त खर्च हो जाने के कारण हमारे घर की माली हालत अच्छी नहीं रह गई थी। अम्मी जान कहने लगी थीं –‘रोमी, तू पढ़ाई खत्म होते ही नौकरी ढूंढ लेना बच्चे, अब तो न मेरे पास रुपया है और न गहने। सब माल-मत्ता तेरी बहनों के निकाह और घर की मरम्मत पर खर्च हो गया है। मकान के नीचे की मंज़िल पर किराएदार भी इसलिए रखना पड़ा है ताकि घर का खर्च चल सके, किराये से मिली पाँच हज़ार की रकम तो बिजली, पानी और दवाइयों पर ही खर्च हो जाती है।'
हर लड़की की तरह मेरी ज़िंदगी के ख़्वाब भी सुनहरे थे। मैं शिद्दत से पैसा कमाना चाहती थी, ऐश करना चाहती थी पर पढ़ाई में उतनी बेहतरीन नहीं थी कि किसी प्रतियोगी परीक्षा में आगे निकल कर अफसर बन सकूँ। मेरी दोस्त नाज़नीन कहती थी –‘तुम्हारी आवाज़ बहुत अच्छी है रोमी, रेड़ियो जॉकी बन जाओ न!’ एफ. एम. सुनते हुए मुझे भी एहसास होता था कि मेरी आवाज़ बहुत मीठी है और तलफ्फुज़ तकरीबन सही है, इसलिए मन बना लिया था कि ग्रेजुएशन पूरा होते ही किसी एफ. एम. चैनल से जुड़ने की कोशिश करूँगी।
मेरी नज़र में एक लड़का था जो ‘रेड़ियो हमसफर’ में काम करता था – संदीप श्रीवास्तव। एक बार किसी सहेली ने उससे मिलवाया था और उसने किसी कार्यक्रम के लिए, मेरा एक छोटा सा इंटरव्यू लेकर ब्रॉडकास्ट भी किया था। उसका कार्ड न जाने क्यों मैंने संभाल कर रख लिया था, शायद इसलिए कि मैं उसकी नफ़ासत, संजीदगी और स्मार्टनेस से प्रभावित हुई थी, लड़का हैंडसम भी था। जिस दिन बी. ए. का आखिरी इम्तिहान खत्म हुआ, मैंने धड़कते दिल से संदीप श्रीवास्तव को फोन लगा दिया। उसने मुझे पहचाना तो नहीं लेकिन कहा कि मैं आने वाले शनिवार को ‘रेडियो हमसफर’ के रिसेप्शन पर उससे शाम पाँच बजे के आसपास मिल सकती हूँ।
धड़कते दिल और अनजानी-सी कल्पनाओं के साथ, रिसेप्शन हॉल में, मैं संदीप की प्रतीक्षा कर रही थी। मैं साफ तौर पर जानती थी कि मैं उससे प्रेम निवेदन करने नहीं, अपने करियर के विषय में सहायता माँगने आई हूँ, फिर भी न जाने क्यों मेरे दिल की धड़कने कुछ बेतरतीब-सी हुई जा रही थीं। दस मिनट की प्रतीक्षा के बाद चटख लाल रंग की टीशर्ट और जींस में सज्जित वह लम्बा, तगड़ा, खूबसूरत नौजवान मेरे सामने था। उसके आते ही न जाने क्यों मेरे दोनों हाथ आगे बढ़ गए और उसने मुझे बाँहों में भर कर मजबूती से हग कर लिया। मैं किसी नाज़ुक बेल की तरह काँप रही थी जिसे किसी महकते तूफान ने पहली बार तबीयत से छूआ था।
मैंने कहा – ‘रोमिला बुखारी, पहचाना? एक बार इंटरव्यू किया था आपने!’ उसने मुझे ऊपर से नीचे तक देखते हुए कहा – ‘मुझे याद नहीं आता कि मैं पहले इस चार्मिंग लड़की से मिल चुका हूँ। अच्छा लगा तुमसे मिल कर, क्या हम कैफे में बैठ कर बातें कर सकते हैं?’
वह मुझे कंधे से सहारा देते हुए, सीढ़ियों से होकर पहली मंज़िल पर बने कैफे में ले गया जहाँ कुछ गिने चुने लोग ही बैठे थे। उसके स्पर्श में एक जादू था और मुझे लगा जैसे मैं उसे बहुत पहले से जानती हूँ। एक टेबल पर मेरे सामने बैठते हुए उसने पूछा –‘क्या लोगी कॉफी या चाय?’ इससे पहले की मैं कुछ कहती उसने वेटर से कहा – ‘दो कप कैपेचीनो और एक प्लेट चिकन सेंडविच।‘ जैसे कि उसने मेरी च्वाइस को मेरी आँखों से पढ़ लिया था।
‘क्या कर रही हो इन दिनों?’ उसने मेरी हथेली को नरमी से छूते हुए पूछा।
उस स्पर्श की प्रतिक्रिया ने मेरे साँसों को आरोह-अवरोह के एक ऐसे क्रम में उलझा दिया था कि मैं बड़ी मुश्किल से कह पाई – ‘आज ही मेरे बी. ए. फाइनल के एग्ज़ाम खत्म हुए हैं।‘
‘गुड, अब क्या करने का इरादा है?’ उसने मेरी आँखों के आर-पार झाँकते हुए पूछा।
‘मैं रेड़ियो जॉकी बनना चाहती हूँ!’ ऐसा कहते हुए मैं लजा रही थी।
‘ग्रेट।‘ उसने कहा।
‘इसके लिए मुझे क्या करना चाहिए?’ मैंने उत्साहित होकर पूछा।
‘एक रेड़ियो जॉकी ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट है गोमती नगर के विशाल खंड में, वे तीन महीने की अच्छी ट्रेनिंग देते हैं, इसमें वे सभी प्रैक्टिकल और टेक्नीकल आस्पेक्ट्स की जानकारी देते हैं। वहाँ मेरा एक दोस्त है, हर महीने की पहली तारीख से नए बैच शुरु होते हैं, तुम चाहोगी तो मैं उसे फोन कर दूँगा।‘
‘आपको आइडिया है, वे इस ट्रेनिंग के लिए कितना चार्ज करते हैं?’
‘लगभग दो लाख रुपये।‘ संदीप ने कहा।
‘कुछ कंसेशन मिल सकता है, मैं इकबाल से कह दूँगा, तुम मुझे बता देना।’
मेरे चेहरे की उदासी देख कर संदीप ने कहा – ‘पापा, नहीं देंगे इतना पैसा?’
मैंने उठते हुए कहा – ‘अब्बू नहीं हैं, अम्मीजान के पास अगर पैसे होते तो वह मुझे नौकरी ढूँढने के लिए नहीं, आगे तालीम जारी रखने के लिए कहतीं। कोई बात नहीं, मुझे कोई दूसरी नौकरी खोजनी होगी। दुनिया में हर शख्स को पसंद का काम कहाँ मिलता है?’
‘आ’म सॉरी, ट्रेनिंग का बंदोबस्त तो बिना फीस के नहीं किया जा सकता। पर मैंने देख लिया है कि तुम्हारी वॉइस क्वालिटी अच्छी है, उच्चारण साफ और ठहराव लिए है, मैं तुम्हारे लिए डबिंग या वॉइसओवर का कोई काम खोजता हूँ, उससे भी ठीक-ठाक पैसा कमाया जा सकता है। तुम्हें निराश होने की ज़रूरत नहीं है।‘ उसकी उंगलियाँ मेरे कंधे और पीठ को सनसनाहट से भर रही थीं।
मुझे दरवाज़े तक छोड़ते हुए उसने कहा – ‘रोमी.... यह नाम चलेगा न, मैं तुम्हें दो-चार दिनों में ऑडीशन की तारीख और वक्त के बारे में बताऊँगा, तब तक तुम रिसालों में से कुछ कहानियाँ पढ़ने का रियाज़ करती रहो।‘ घर लौटते हुए, न जाने क्यों मुझे लगातार एहसास हो रहा था जैसे संदीप मेरा हाथ थामे मेरे साथ चल रहा है और उसके पर्फ्यूम की महक से मेरी नाक बंद हो रही है।
अमीनाबाद से लगे सँकरी गलियों वाले इलाके में था ‘दिलशाद स्टुड़ियो’। कहीं कोई इंडीकेटर बोर्ड नहीं, किसी बाशिंदे को जानकारी नहीं, पर मैं 13/35 नूर मंज़िल का पता पूछते हुए उस इमारत तक पहुँच गई थी, जिसके लोहे के बड़े से फाटक पर बहुत छोटा-सा बोर्ड लगा था –‘दिलशाद स्टुड़ियो’– तीसरी मंज़िल। एक अंधेरे से ज़ीने के पास एक बुज़ुर्ग आदमी बैठा था जिसने मेरा मुँह खुलने से पहले ही कहा – इस ज़ीने से आप तीसरी मंज़िल पर चली जाइए, दाहिनी ओर ‘दिलशाद स्टूडियो’ मिल जाएगा। जब मैं ज़ीने की ओर बढ़ी तो एक घबराहट मेरे जिस्म के साथ लिपट गई थी। हालाँकि लखनऊ के पुराने, ख़ासकर मुस्लिम आबादी के इलाके ऐसे ही होते हैं, कई रिश्तेदारों के यहाँ मैं गई भी हूँ, पर इन मकानों में रोशनी की कमी और सीलन की गंध का एहसास इन्हें एक भुतहा एहतिमाम से भर देता है।
तीसरी मंज़िल पर ‘दिलशाद स्टूडियो’ था। वहाँ एक बल्ब जल रहा था। दरवाज़े को धकेल कर मैं अंदर गई तो रिसेप्शन पर एक लड़की दिखाई दी। मुझे हल्के से सुकून का अनुभव हुआ। मैंने उसे अपना नाम बताया तो उसने एक कमरे के दरवाज़े की ओर इशारा करते हुए कहा – ‘वहाँ मिस्टर सिद्दीकी और मिस्टर सक्सेना बैठे हैं उनसे मिल लीजिए।
एक लम्बे टेबल के उस ओर दो उम्रदराज़ शख्स बैठे थे। सलाम, नमस्कार के बाद उन्होंने मुझे बैठने के लिए कहा। मिस्टर सिद्दीकी ने मोटे गत्ते पर क्लिप लगे, एक कागज़ पर लिखी कहानी का एक अंश मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा – ‘मोहतरमा रोमिला बुखारी इसे खुल कर पूरे एहसास के साथ पढ़िए।‘
मिस्टर सक्सेना ने टोकते हुए कहा – ‘रिलैक्स, पहले इसे एक बार, ऐसे ही पढ़ कर देख लीजिए ताकि आप समझ जाएँ कि यह सब किस मक़सद के लिए है ताकि ऑडीशन में अटकें या घबराएँ नहीं।'
उस कहानी को पढ़ना शुरु किया तो मैं अवाक रह गई। कहानी की भाषा में कुछ ऐसे शब्द थे जिनका उच्चारण मैंने अपनी इक्कीस साल की उम्र तक, कभी नहीं किया था। अगर उन शब्दों के समानार्थी शब्दों का उच्चारण दोस्तों के बीच में कभी किया भी होगा तो वे अंग्रेज़ी के शब्द थे जो बोले जाते वक्त हिंदी के शब्दों जैसे भदेस और उत्तेजक भाव प्रकट नहीं करते। मेरे चेहरे पर शर्म और पसीना एक साथ बरसात के बादलों की तरह चले आए थे। मैंने कुर्सी से उठते हुए कहा – ‘मिस्टर सिद्दीकी यह सब क्या है, मैं एक इज़्ज़तदार घर की लड़की हूँ, ऑडीशन के लिए आई हूँ, यह क्या पढ़वा रहे हैं आप मुझ से।'
‘आपको संदीप ने बताया नहीं? हम लोग एक एडल्ट चैनल चलाते हैं, जाहिर है वहाँ हमारे श्रोता ऐसी ही कहानियाँ पसंद करते हैं। रोमिला जी, यहाँ एक से एक इज़्ज़तदार घरों की औरतें आती हैं, रिकॉर्डिंग करवाती हैं और अदब से चली जाती हैं। मैडम, हम हर एक कहानी की रेकॉर्डिंग का मेहनताना, तीन हज़ार रुपया देते हैं और यक़ीन कीजिए, हमारे कलाकार किसी रेड़ियो जॉकी से कम पैसा नहीं कमाते। और इतना ही नहीं हम आपके असली नाम और पहचान को प्राइवेट रखते हैं, हम अपने कलाकारों को बड़े शोख और क़ातिल नाम देते हैं, उनके ऑरीजनल नाम किसी को नहीं बताते। आप सोच लीजिए।'
मेरी आँखों के आगे अंधेरा छा रहा था। कुर्सी पर बैठ कर पानी पीते हुए मैंने सोचा – ‘अगर मुझे पैसा कमाना है तो सिर्फ स्क्रिप्ट पढ़नी होगी, उसमें क्या लिखा है उससे ध्यान हटाना होगा। एक आर्टिस्ट हर तरह के किरदार निभाता है। ज़िंदगी प्रोफेशनल एप्रोच के बिना नहीं चल पाएगी। इस समय हमारे घर के जो हालात हैं, पैसा हमारी ज़रूरत है।'
सक्सेना जी ने बड़ी मुलायमियत से कहा – ‘हम सारी रेकॉर्डिंग गल्फ कंट्रीज़ और पाकिस्तान के लिए करते हैं, इसलिए हमारी स्क्रिप्टें उर्दू में होती हैं, इत्मिनान रखो भारत में आवाज़ के ज़रिए तुम्हें कोई नहीं पहचान पाएगा। बहुत सारे लोगों की आवाज़ें मिलती जुलती-सी होती हैं। संदीप ने तुम्हारे घर की माली हालत के बारे में सिद्दीकी साहब को बताया था, इसलिए हमने तुम्हें बुलाया। यहाँ तो दिन भर में कई औरतें बुर्का पहन कर आती हैं, रेकॉर्डिंग करवाती हैं और नकद पैसा लेकर चली जाती हैं। चलो अब हिम्मत जुटा कर इस स्क्रिप्ट को पढ़ो।'
मैंने पूरी हिम्मत जुटाई और माइक के सामने खड़े होकर उस कहानी के चार पन्नों को पढ़ डाला। पहले पन्ने को पढ़ते हुए कुछ झिझक थी, दूसरे पन्ने को पढ़ते हुए मुझे लगा कि मैं और संदीप किसी शानदार होटल के कमरे में, एक दूसरे के जिस्मानी भूगोल को साथ-साथ समझ रहे हैं। तीसरे और चौथे पन्ने को पढ़ते-पढ़ते तो उत्तेजना के कारण मेरी साँसें उफन रही थीं। पर मैंने बुरी तरह से धड़कते दिल और काँपते पावों के साथ उस कहानी को पढ़ ही डाला।
सिद्दीकी साहब ने बहुत करीब आकर मुझे पिंच करते हुए कहा –‘मुबारक हो! तुमने तो ऑडीशन में ही एक कहानी की शानदार रेकॉर्डिंग कर दी। अब तुम्हारे लिए काम की कोई कमी नहीं।‘
मैंने गर्दन झुका कर कहा – ‘सर, मैं बहुत घबराई हुई थी।’
‘यह बहुत नेचुरल लगेगा, कहानी सुनने वालों को। लड़की की घबराहट सुनने वाले मर्दों को एक अच्छा फील देगी। बाकी सब तो हम म्युज़िकल इफैक्ट्स और स्टॉक ऑडियोज़ के ज़रिए एडजस्ट कर लेंगे।' सक्सेना साहब ने कहा।
सिद्दीकी साहब ने रिसेप्शन पर बैठने वाली लड़की को घंटी बजा कर बुलाया और कहा – ‘मिस दीबा, ‘दिव्या वर्मा’ का नाम रजिस्टर में दर्ज़ करके मैडम को तीन हज़ार रुपये का भुगतान करो। पता उजरियाँवा का डाल देना।‘ फिर मेरी ओर मुखातिब होकर कहा – ‘इस पेशे में आज से आपका नाम ‘दिव्या वर्मा’ हैं। अपनी अम्मी जान से कहिएगा कि मुझे गल्फ की एक कम्पनी के कॉल सेंटर में काम मिल गया है। ज़रूरत के हिसाब से उनकी प्रॉडक्ट डिटेल्स वगैरह पढ़नी होंगी और सप्ताह में पाँच दिन स्टूडियो आना-जाना हुआ करेगा। हमारे एडल्ट चैनल के बारे में आप किसी को नहीं बताएँगी और हम आपका असली नाम और पहचान किसी को नहीं बताएंगे। यह कारोबार, इसी तरह के आपसी भरोसे की बुनियाद पर चलता है।‘ उनकी आँखों में एक बड़ी सधी हुई शरारती चमक थी।
जब मैं अपने पर्स में अपनी पहली कमाई के तीन हज़ार रुपये डाल कर रिक्शा में बैठी तो अच्छा लग रहा था, पर यह भी लग रहा था मानो मेरी चुन्नी का एक पल्लू साथ-साथ चलते किसी साँड ने अपने मुंह में पकड़ रखा हो, वह भागा तो साथ में मेरी इज़्ज़त भी ले जाएगा। फिर भी मैंने ‘सुलेमान स्वीट्स’ से कुछ फिरनियाँ खरीदीं, बाटा से अम्मी के लिए एक जोड़ी कुशन वाली चप्पलें लीं और ‘जैन टिक्की वाले’ के ठेले पर खड़े होकर पूरे दस गोल गप्पे खाए।
उस रात मैंने खुद को समझाया – ‘रोमिला बेबी, पैसा मुफ्त में नहीं मिलता। कोई काम छोटा-बड़ा या अच्छा-बुरा नहीं होता। जब किसी काम को वाजिब मुआवज़े के भुगतान के साथ करते हुए, मर्द खुद को एक्सप्लोइटिड नहीं समझता तो औरत क्यों समझे? औरत की दुनिया, मर्द की दुनिया जैसी ही क्यों न हो? ज़िंदगी को सुकून से चलाने के लिए प्रोफेशनल एप्रोच ज़रूरी है। एक आर्टिस्ट का काम, अपने हुनर से पैसा और नाम कमाना ही तो है। मैं इस चैनल के लिए काम करूँगी, इसमें कोई बुराई नहीं है।'
धीरे-धीरे मैं अपने काम में सहज हो गई, अगर कहूँ कि मुझे मज़ा आने लगा तो शायद आपको तक़लीफ भी हो सकती है । मैं उन रंगीन कहानियों को बढ़िया उतार-चढाव के साथ पढ़ने लगी। चैनल से फैन-मेल भी खूब मिलती, लोग आहें भरते, कसीदे पढ़ते, ‘दिव्या वर्मा’ को कभी दुबई तो कभी कुवैत से बुलावे मिलते। अनजान आशिक, पूरी ख़ातिर तवज़्ज़ो और शॉपिंग का खर्च उठाने के वायदे करते। मैं शीशे के सामने खड़ी हो कर खूब ठठाकर हँसती – ‘हैलो, तुम कहाँ हो दिव्या वर्मा?’
एक दिन स्टूडियो में संदीप से मुलाकात हुई, वह किसी रेकॉर्डिंग के लिए आया था।
मैंने कहा – ‘अरे तुम तो नामी आर. जे. हो, अपने रेडियो स्टेशन से खूब पैसा लेते हो, ये सब भी....’
उसने मेरी ठुड्डी को ऊपर उठाते हुए, मेरी आँखों में आँखें डाल कर कहा – ‘पैसा तुम ज़्यादा कमा रही हो मिस रोमी! क्या मिलता है एक आर.जे. को, यही पचास हज़ार रुपया। बस ग्लैमर है। तुम जैसी सुंदर लड़कियाँ थोड़ा-सा छू भर लेने देती हैं और कुछ भी नहीं। सिद्दीकी साहब बता रहे थे तुम तो महीने में 30-35 रेकॉर्डिंग कर लेती हो। टैक्स-फ्री, नकद लाख रुपये आराम से घर ले जाती हो। अब बोलो।'
मुझे अच्छा लगा, मैं संदीप से ज़्यादा कमा रही हूँ, और ज़्यादा भी कमा सकती हूँ।
मेरे घरेलू हालात सुधर रहे थे। पैसा आ रहा था पर अम्मी की बीमारी पर भी खर्च बढ़ रहा था। बहने भी जल्दी-जल्दी आने लगी थीं, हर तरफ हल्ला था कि रोमिला किसी गल्फ की कम्पनी के साथ ‘लाख रुपये की नौकरी’ करती है। रिश्ते भी आ रहे थे और अम्मी जान बढ़िया दूल्हे की खोजबीन में लगी थी। सलमान जीजू बार-बार एक ही बात कहते थे – ‘किसी दुबई में कमा रहे लड़के से शादी कर लो, दूल्हा भी मिल जाएगा, नौकरी वहाँ पहुँच कर भी चलती रहेगी, और तुम्हारे कनेक्शन से हम भी वहाँ चले आएँगे।‘ मैं मुस्करा देती। क्या बताती अपनी ‘गल्फ की नौकरी’ के बारे में। बस इतना कहती – ‘अभी मैं 21 की ही तो हूँ, मुझे चार साल बाद ही निकाह करना है। पहले खूब पैसा कमाना है, अम्मी के लिए आगे के ज़िंदगी के बंदोबस्त करने हैं।‘ सब चुप हो जाते।
सन उन्नीस खत्म होते-होते काम धंधे के हालात बदलने लगे थे। ‘दिलशाद स्टूडियो’ पर कानून और इनकम टैक्स की नज़र पड़ गई थी। एक दिन इनकम टैक्स की टीम ने छापेमारी के दौरान, सिद्दीकी साहब के घर से पचास लाख रुपया कैश पकड़ा, जो हवाले के ज़रिये उन तक आया था। ऐसे काले-पैसे को कई सारे कामों में, नकद भुगतानों के ज़रिये खपा दिया जाता था। यह खोजबीन ‘रेड़ियो हमसफर’ तक भी पहुँची और उसके मालिक जो सिद्दीकी साहब के क़रीबी रिश्तेदार थे इस ‘हवाला कांड’ में धर लिए गए।
कई अख़बारों ने इस रेड को मौजूदा सरकार की बदले की सियासी करतूत भी बताया पर कुछ हुआ नहीं। सन बीस की शुरुआत हुई ही थी कि ‘दिलशाद स्टुडियो’ और ‘रेडियो हमसफर’ दोनों पर ताला पड़ गया। मेरी आमदनी का ज़रिया खत्म हो गया और संदीप की नौकरी चली गई थी। हमारे कारोबार ऐसे भी नहीं थे कि हम कहीं दूसरी जगह काम खोज लेते। अम्मी जान को कम्पनी के बंद होने की खबर दी तो वे डिप्रेशन में चली गईं। अब मुझे उन्हें भी संभालते हुए, अपने और अपनी आमदनी के बारे में सोचना था।
फरवरी का महीना बैचैनी में कटा। टेलिविज़न पर और अखबारों में एक नई बीमारी के चर्चे बढ़ते जा रहे थे जो चीन से निकल कर पूरी दुनिया में फैलती जा रही थी। इटली और फ्रांस पहुँचे सैलानियों को लौटाया जा रहा था। भारत में क्या-क्या होगा, इस तरह की अटकलों का बाज़ार गर्म था।
मार्च का दूसरा सप्ताह शुरु हुआ था। एक दोपहर हज़रत गंज के कॉफी-हाउस में, मैं और संदीप, एक मेज की आपने सामने की कुर्सियों पर मुँह लटकाए बैठे थे। उसकी बेचैन उंगलियाँ मुट्ठियों में बंद थीं, और मेरे मन में किसी तरह का कोई रोमांटिक खयाल नहीं था। बेरोज़गारी का दौर भारी पड़ रहा था, हमें काम की ज़रूरत थी और दुनिया एक नई बीमारी की आहट से सहमी हुई थी।
हम किसी एम. एल. ए. के भाई, प्रशांत मणि त्रिपाठी का इंतज़ार कर रहे थे। हमें किसी माध्यम से पता लगा था कि अब सत्तारूढ़ पार्टी के लोगों के रिश्तेदार भी उसी तरह के डबिंग स्टूडियो और काम धंधे चलाएंगे जैसे कल तक सिद्दीकी साहब जैसे लोग चलाया करते थे। सरकारें बदलने से काम धंधे थोड़े ही बदलते हैं, इंसानी ज़रुरियात भी तो नहीं बदलते।
प्रशांत मणि त्रिपाठी छह फीट के कद्दावर आदमी थे जो ऊपर से नीचे तक सफेद ही सफेद थे। उनके आते ही ‘कॉफी हाउस’ में हलचल शुरु हो गई। बर्गर, सैंडविच और गरमा-गर्म कॉफी परोस दी गई। उन्होंने मुझे तीखी नज़रों से देखते हुए कहा – ‘हम तो आपके फैन हैं मैडम दिव्या वर्मा, खूब सुनी हैं आपकी मदमस्त कहानियाँ। क्या कशिश है आपकी आवाज़ में और आज मिल कर देखा कि आप तो माशा अल्लाह बला की खूबसूरत भी हैं। देखो संदीप मेरे पास मैडम 'महा शांति कॉम्पलैक्स' में कॉल-सेंटर है, क्लाइंट्स तो सब अरब देशों से ही होते हैं, पैसा है न उनके पास, पर वहाँ शिफ्ट ड्यूटी में काम करना होगा। एक लाख रुपया महीना फिक्स। आधा चैक से, आधा कैश। रात की ड्यूटी में डिनर के साथ-साथ, पिक-अप और ड्रॉप के लिए गाड़ी की सुविधा भी मिलेगी।'
'थोड़ा-सा और ज़्यादा क्रियेटिव? क्या मतलब!'
'हम कहानियों की बजाय 'लाइव शो' चलाएंगे, आपको लाइव होकर 'टॉक्स' देनी होंगी।'
‘वैसी वाली लाइव टॉक्स.... ना बाबा ना, मैं वैसी लड़की नहीं हूँ, मुझसे नहीं होगा।‘ मैंने माथा पकड़ते हुए कहा।
‘क्या ख़ास है इसमें? आपको अपनी पुरानी कहानियों के वही घिसे-पिटे डायलॉग तो लिखने या बोलने होंगे। और हाँ, लाइव वीडियो स्ट्रीमिंग में हम आर्टिस्ट का चेहरा मास्क कर देते हैं। सिर्फ बदन देख कर तो कोई आपको पहचान नहीं पाएगा। सोच लीजिएगा, लड़कियाँ एक से एक खूबसूरत, हैं मेरे पास, पच्चीस हज़ार में भी यही काम करेंगी, पर आप जैसी नफ़ीस उर्दू नहीं बोल पाएँगी। आपको अपने साथ लेने की दिली इच्छा न जाने कब से है हमारी। बस, इसीलिए इतना ज़्यादा ऑफर कर रहे हैं, रोमिला जी।‘ त्रिपाठी जी की आँखों में कुछ दबंगई-गुंडई झलक रही थी।
‘संदीप, अगर मैडम ने हमारा प्रपोज़ल मान लिया तो तुम जिस एफ. एम. में कहोगे, हम वहीं तुम्हारी नौकरी लगवा देंगे। हमारे विधायक भैया जी को नाराज़ करके लखनऊ का कोई प्राइवेट चैनल नहीं चल सकता। एक अप्रैल 2020 को तुम पक्का ‘इंद्रधनुष’ में ज्वाइन कर लेना, डायरेक्टर हमारे भक्त हैं। अब हम चलते हैं। 25 मार्च को शाम चार बजे मैडम को हमारे कॉल सेंटर पर ले आना, उस दिन वहाँ विधायक जी भी तशरीफ ला रहे हैं, नमस्कार।'
त्रिपाठी जी के जाने के बाद हम एक दूसरे का मुँह देख रहे थे। वह हम दोनों की किस्मत एक दूसरे के साथ नत्थी करके भाग गए थे। मुझे त्रिपाठी जी की आँखों में वही भाव दिखे जो कभी मेरी अम्मी जान के लिए मेरे दादा जी की आँखों में होते थे।
रास्ता जैसा भी था मेरे सामने था, उस पर चलने या न चलने का फैसला भी मुझे ही लेना था।
संदीप ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा – ‘रोमी, मत लेना यह काम, इन लोगों की संगत में तुम बरबाद हो जाओगी। मेरी फ़िक्र मत करो, मैं तो कुछ न भी हुआ तो दिल्ली चला जाऊँगा, अनुभव है मेरे पास, वहाँ काम मिल जाएगा। चाहो तो तुम भी दिल्ली चल सकती हो, वहाँ मेरे कई दोस्त हैं।‘
‘संदीप अब मैं कोई कमज़ोर लड़की नहीं हूँ, यह मत समझना कि कोई मुझे बेवकूफ बना कर यूज़ कर लेगा, मुझे 'दिलशाद स्टूडियो' , वे उत्तेजक कथानक मुझे भी मोम की तरह पिघला देते थे। मैंने एडजस्ट किया क्योंकि मेरी भी कई ज़रूरतें थीं, फिर खूब पैसा कमाया और मेरे साथ मित्रवत हो गए।
कुछ दिनों के आत्मसंघर्ष के बाद मुझे समझ आ गया, स्त्री अस्मिता की सुरक्षा का संबंध पुरुष के हिंसक और व्यभिचारी होने से जुड़ा ही नहीं है, वह तो स्त्री की आर्थिक विवशता का स्वाभाविक परिणाम है। क्या आज कोई पुरुष सनी लियोनी को हमबिस्तर होने के लिए मजबूर कर सकता है? लोग उसकी एक झलक के लिए न जाने कितना पैसा और समय देने को आतुर रहते हैं। इसलिए मेरी फिक्र छोड़ो, मुझे त्रिपाठी जी के कॉल सेंटर को गुलज़ार करना ही होगा। बोलो एक साधारण सेकिंड क्लास ग्रेजुएट लड़की को इतना पैसा कौन देगा? संदीप, इससे कम आमदनी की नौकरी अब मैं नहीं कर पाऊँगी। तुम ‘इंद्रधनुष’ एफ. एम. में नौकरी ले लो। मैं तुम्हें रोज़ सुना करूँगी।'
वक्त चेहरे पर काला नकाब लगाए, उनके सामने खड़ा था। उन दोनों ने बच्चों की तरह वक्त की खुंखार उंगलियों के सुपुर्द अपनी नाज़ुक हथेलियाँ कर दीं, और साथ-साथ दौड़ने के लिए तैयार हो गए।
रोमिला खुश थी कि चलो महीने भर की बेरोज़गारी के बाद फिर से नए रोज़गार के आसार बने हैं। उसके मन पर कोई बोझ भी नहीं था क्योंकि ज़िंदगी की अनवरत लड़ाई के मैदान में, वह एक खंदक से निकल कर दूसरी खंदक में ही तो जा रही थी। वह तो एक सैनिक थी, कोई राजकुमारी तो थी नहीं कि नंगी ज़मीन पर चलने से उसके पाँव घायल होते।
उसने घर लौट कर उदास अम्मी जान को बताया कि अगले महीने की एक तारीख से उसे नई नौकरी मिल रही है। कॉल सेंटर की ही नौकरी है पर यह कॉल सेंटर अरेबिया के लिए नहीं अमेरिका के लिए काम करता है और अमेरिकन लोगों का दिन तब होता है, जब हमारे यहाँ रात होती है, लिहाज़ा नौकरी उसे रात के साए में करनी होगी। ले जाने और छोड़ने के लिए गाड़ी का बंदोबस्त कम्पनी करेगी।
अम्मीजान का चेहरा कह रहा था कि यह प्रपोज़ल उन्हें पसंद नहीं आ रहा है कि उनकी जवान बेटी रात भर घर से बाहर रहे। वह कुछ कहना चाहती थीं, पर कह नहीं पा रही थीं। मैंने उनकी आँखों में आँखें डाल कर कहा – ‘अम्मू आप कहें तो महमूद चचा की लड़की की तरह, कौसर मिया के दर्ज़ीखाने में दस हज़ार की नौकरी कर लूँ?’ अम्मी चुप रहीं, आसमान की ओर हथेलियाँ उठा कर अल्लाह से रहम और सद्गति की प्रार्थना करने लगीं।
इसके बाद जो हुआ, उसे पूरी दुनिया अल्लाह की नाराज़गी या महामारी के कहर के रूप में जानती है। पूरा देश कोरोना से लड़ने के लिए तैयार होने लगा और जिस तारीख का मुझे इंतज़ार था, उसके आने तक तो लखनऊ क्या पूरा देश, दुनिया का बहुत बड़ा हिस्सा ‘लॉक-डाउन’ में चला गया । इस त्रासदी का कोई ओर-छोर नज़र नहीं आ रहा था। आप ही की तरह, हम सब लोग भी कोरोना से डर कर, अपने-अपने घरों में कैद हो गए थे। टेलिफोन ही एक ज़रिया था, जिस पर हम दिल हलका कर सकते थे।
अम्मी जान इन हालात में कभी चीन पर नाराज़ होतीं तो कभी इस बात पर अफ़सोस जाहिर करतीं कि कैसा वक्त आगया है, मक्का-मदीना से लेकर सभी मंदिर तक लोगों की आमद से महरूम कर दिए गए हैं। वह बार-बार मुझ से पूछतीं – ‘रोमी सब कुछ ऐसे ही चला तो संदूक में रखे वे सारे रुपये खत्म हो जाएँगे जो तुम से लेकर, मैंने तुम्हारे निकाह के लिए बचाने शुरु किए थे। नाराज़ मत होना उन रुपयों में से मैंने सर्दियों में निगार और शबनम को भी पचास-पचास हज़ार रुपये दिए थे क्योंकि निकाह के वक्त मैं दोनों दूल्हों को मोटर-साइकिल नहीं दे पाई थी और लम्बे अरसे से तुम्हारी बहनों की नाराज़गी झेल रही थी।' मैंने कुछ नहीं कहा।
संदीप दिन में दो बार फोन करता था और हम लोग अपनी बदहाल ज़िंदगी का रोना रो लेते थे। अम्मी जान को बता दिया था कि संदीप से मेरा कोई चक्कर वक्कर नहीं है और मैं जब भी निकाह करूँगी, उनकी पसंद के लड़के से ही करूँगी।
संदीप की ज़िंदगी पटरी से उतर चुकी थी, उसकी गर्ल-फ्रेंड ने उसे छोड़ दिया था, जिसका उसे खासा मलाल था। मैं किस्मतवाली थी कि मेरी जान को कोई ऐसा लफ़ड़ा नहीं था। ज़िंदगी में निकट संबंधों की परत-परत सच्चाई, मेरे सामने उघड़ रही थी। मेरी नौकरी जाने की खबर जीजू लोगों तक भी पहुँच चुकी थी और उन्होंने दुबई जाने के लिए तैयार किए अपने सूटकेस अनपैक कर दिए थे। उनका खयाल था कि इस महामारी से उबरने के बाद, दुबई के शेख अपनी गाड़ियाँ हिंदुस्तानी-पाकिस्तानी ड्राइवरों से चलवाने की बजाए, रोबोटों से चलवाना पसंद करेंगे।
त्रिपाठी जी से संदीप का सम्पर्क लगातार चल रहा था। इस महीनों चलने वाले लॉक-डाउन ने हमें धीरे-धीरे यह एहसास करा दिया था कि ज़िंदा रहने के लिए पैसे की ही ज़रूरत है। त्रिपाठी जी, बेचैनी के आलम में, कभी-कभी मुझे भी वीडियो कॉल लगा लेते थे, वे मुझे जी भर देखना चाहते थे पर मेरा तज़ुर्बा कहता था कि नौकरी मिलने तक तो उनका जी, बिलकुल नहीं भरना चाहिए। वह भी रोज़ अपने ईश्वर से कोरोना खत्म होने की दुआ माँगते थे ताकि उनका इंटरनेशनल कॉल सेंटर जल्दी से जल्दी चालू हो और वेब पर पड़े सारे रेकॉर्डिड कंटेंट को हटा कर, ग्राहकों को ताज़ा माल परोसा जा सके।
खंडहर हुए घरों के ऊपर से झाँकता बुद्ध पूर्णिमा का चाँद इस बार कुछ ज़्यादा ही बड़ा और पीलापन लिए हुए था। वह अम्मी जान के माथे की तरह लग रहा था जो सफेद उड़ते बालों के बीच उदासी का एक चमकता हुआ अक्स बन गया है। साठ पार कर चुकी अम्मी जान की सेहत अब अच्छी नहीं रहती पर उन्हें धार्मिक उसूलों के मामले में कोई समझौता करना नहीं आता। रमज़ान के तीस या उनतीस दिनों में वह सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक बिना कुछ खाए पीए मुकम्मल रोज़ा रखती हैं। अम्मी जान उठते बैठते बार-बार यही कहती हैं– रमज़ान के महीने में दिल से अल्लाह की बंदगी करने वाले शख्स की हर ख्वाहिश पूरी होती है। तुम तो छुटपन से ही रोज़े रखती आई हो, इस बार अल्लाह से माँग लो कि नई नौकरी जल्दी से शुरु हो, अमीर शौहर मिले और तुम्हारी हर मुराद पूरी हो।
इन दिनों रोज़ा खोलने के बाद मैं और अम्मी छत पर चले आते हैं। कोरोना के कहर ने आखिरी रोज़े के बाद आने वाली ईद का सारा उत्साह खत्म कर दिया है। आस पास की छतों पर कुछ लोग दिखाई देते हैं पर चेहरों को हरी और काली मास्कों से ढके हुए। पुराने दिनों की तरह बातचीत तो क्या दुआ सलाम तक नहीं होती।
ईद के दिन चाँद मामा अगर पूछेंगे कि बोलो रोमिला बानो, तुम्हें ईदी में क्या चाहिए?
तो मैं इतना ही कहूँगी – 'मामू जान दुनिया से इस कोरोना के जाल को समेटो,
अब पैसे के साथ-साथ मेरा आत्मविश्वास भी सिमटने लगा है।
मैं नहीं चाहती लोग ‘लाख रुपये वाली रोमिला’ को वक्त की कब्र में दफ़्न हुआ मान लें,
मुझे जल्दी से जल्दी त्रिपाठी जी के कॉल सेंटर में ज्वाइन करना है!
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रचनाकार परिचय
राजेश्वर वशिष्ठ
जन्म : 30 मार्च, 1958
प्रकाशित कृतियाँ :
काव्य :
1. सुनो वाल्मीकि ( कविता संग्रह ) 2015
(हरियाणा साहित्य अकादमी के 2015 के सर्वश्रेष्ठ कविता संग्रह पुरस्कार से सम्मानित)
2. सोनागाछी की मुस्कान ( कविता संग्रह ) 2016
3. अगस्त्य के महानायक श्रीराम (काव्य ) 2017
4. प्रेम का पंचतंत्र (लव नोट्स) 2018
5. देवता नहीं कर सकते प्रेम 2019
उपन्यास :
1. मुट्ठी भर लड़ाई
2. याज्ञसेनी - द्रौपदी की आत्मकथा 2018
अनुवाद :
1. कविता देशांतर : कनाड़ा 2004
2. जीवन के अद्भुत रहस्य , गौर गोपाल दास – पेंग्विन – 2019
3. लोकतंत्र वाया सड़क मार्ग, रुचिर शर्मा – पेंग्विन – 2019
4. रॉयल कॉलिंस के लिए चार पुस्तकों का अनुवाद
विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं में अनेक विधाओं का साहित्य प्रकाशित
फिल्म तथा अन्य ऑडियो-विज़ुअल विधाओं से गहरा जुड़ाव
सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन।
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