दूध : भूमिका द्विवेदी की नयी कहानी
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भूमिका द्विवेदी हिन्दी साहित्य की एक सुपरिचित युवा नाम हैं जो लगातार अपनी सार्थक रचनाओं द्वारा सकारात्मक हस्तक्षेप कर रहीं हैं। सामाजिक विसंगतियाँ, हाशिए पर छूट गए लोगों की व्यथा, रिश्तों के मनोविज्ञान की पड़ताल इनकी कहानियों के प्रमुख विषय होते हैं।मेराकी पर पढिए उनकी नयी कहानी दूध, जहाँ वंचित समाज के जीवन की एक रात अपने सबसे भयावह रूप में वर्णित है।
दहाड़ पूरे वातावरण में चीत्कार जैसी गूंज रही थी. रात बहुत गहरा गयी थी, इसलिये भी बच्चे का चिल्लाना मानो दूर-दूर के सन्नाटे को तोड़ रहा था. उसकी मां लछमी, होगी यही कोई तीस-पैंतीस साल की मरियल सी औरत, उस नन्हें से मांस के कुपोषित लोथड़े को अपनी सूखी और सख़्त छाती से चिपकाये चुप कराये जा रही थी. सोनू का तेज़ बुखार कोई नया समाचार नहीं था. उसका भूख से बदहाल होकर कुलबुलाना भी बेहद पिटा हुआ यथार्थ था. लेकिन आज उसकी चीखों में एक नई
ठीक उसी तरह जैसे आज काल के पंजे नन्हें सोनू के कबूतर जैसे
प्राण हरने के लिये रह-रहकर लपलपा रहे हैं...
ऐसा लगता था, भूख और बुखार से छटपटाते सोनू के रोने के स्वर
और बादलों की गड़गड़ाहट एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा मचाये हुये हैं. पेट में कुछ
बूंदें दूध की चलीं जातीं, तो शायद अतड़ियों को कुछ काम मिलता और बच्चे के जिस्म को
ज़रा-सा आराम पंहुचता. ठीक वैसे ही, जैसे बादलों के टुकड़ों का एक
दूसरे को टकराकर, लतियाकर, निकलता क्रोध कुछ बूंदों के बरस जाने से थम जाता. लेकिन
ना धरती को ही सुकून था, और ना आसमान को राहत. दोनों जगह की रूहें बुरी तरह से
बेचैन थीं, दोनों जगह की धमाचौकड़ी अपने उफ़ान की भीषण रफ़्तार से नीचे ही नहीं आ रही
थीं. ऐसा जान पड़ता था जैसे धरती की छटपटाती रूह तत्काल आसमान की ऊंचाई तय कर लेना
चाहती है, और आसमान का बेचैन प्राणी धरती पर तत्क्षण कूद जाना चाह रहा हो.
की बौछार से बचाती तो कभी उस तरफ़ की तेज़ हवा से. पहले ही उसके चार बच्चे, आदमी रामरती,
उसकी झोपड़ी और कचरे जैसा माल-असबाब सब दंगे की भेंट चढ़ चुका था. बाद के दो बच्चे
भुखमरी, बीमारी और बदहवासी के शिकार होकर यम का भोजन बन चुके थे. उसकी छाती सूखकर
ऐसी काठ की बन चुकी थी, कि बच्चे के लिये आहार सोचा भी नहीं जा सकता था.
लछमी, मज़दूरी करके इस छह-मासे बच्चे और खुद का पेट भरती थी.
जमापूंजी के नाम पर कुछ चीथड़े, कुछ टूटे-फूटे बर्तन-भांड़ें थे, और यही सीमेण्ट से
बना सीवर-पाइप उसका ठिकाना था, जो दरअसल सरकारी सम्पत्ति थी. तकरीबन हफ़्ते भर से
आंधी-पानी के चलते ढंग का काम नहीं लग रहा था, जिससे मज़दूरी के दो आने मिल जाते और
उन गरीब का कुल परिवार राहत पा जाता. लेकिन बादलों की चीत्कार को शायद ये पसंद
नहीं आ रहा था.
लछमी अच्छी तरह जानती थी, कि “ये नन्हा-सा ढाई माह का
बच्चा, रोज़ाना इस तरह जान लगाकर नहीं रोता था.... क्या ये बुझती हुई लौ की आख़िरी
तेज़ झिलमिलाहट है...” इतना ख़्याल आते ही, लछमी के बदन में तेज़ सरसरी दौड़ गई. ठीक
वैसे ही जैसे कोई बहुत पुराना जर्जर शरीर आख़िरी सांस के साथ सरसराता है. लछमी ने
आव देखा ना ताव, उसने रोते-कलपते सोनू को पास में मौजूद सारे टाट-कथरी और फटे हुये
स्वेटरों में लपेटा और चुल्लू भर दूध की तलाश में बदहवास निकल पड़ी.
सबसे पहले वो पुराने पुल के नीचे वाली लाला की ढिबरी जैसी
मृतप्राय दुकान की ओर दौड़ी. क्योंकि लछमी को ये याद था कि रात के बारह-एक बजे तक
भी लाला दुकान नहीं बन्द करता था, क्योंकि उस पुराने पुलिया के पार एक हौली हुआ
करती थी, जिसपर नशेड़ियों का जमावड़ा रात भर चलता था. और इन लोगों के लिये लाला की
दुकान के नमकीन चबैने की ज़रूरत देर रात तक रहती थी.
लाला अपनी कौड़ियां गिनता रहा, बेवड़ों को हैंडल करते-करते
बहुत पक्का हो चुका था. बिना सिर उठाये सधी हुई ज़बान से बोला,
“ लछमी.. फ़िर आ गई तू... पुराना बयालिस रुपये, सत्तर पईसा
तो चुका नही पाई अब तक.. दूध का पेकेट मांगती है... जानती भी है, कित्ते का आता
है..?”
ठंड से सिकुड़ते हुये, लछमी ने थोड़ा घिघियाकर कहा,
“ जित्ते का भी हो लाला... मजूरी हाथ में आते ही दे
जाऊंगी.. वो बच्चा बहुत बीमार है. दवा-दारू का कुछ कर नही पा रही हूं लाला, दो
घूंट दूध भी हलक़ से ना उतरा तो कैसे प्राण चलेंगे उस नन्हीं जान के... रहम करो
लाला, तुम्हारा एक एक आना तुम्हारी देहरी पर खुद रख जाऊंगी.. बस मजूरी मिल जाने
दो..”
लाला ने सिर उठाया और तेज़ ज़बान में बोला,
“ देख लछमी, तेरा ये ही सब रोना-पिटना देखकर, तरस खाकर तुझे
पिछली बार आटा, नोन, तेल दिया था. बीस रुपया नगद भी तू अपनी बीमारी के लिये मांग के ले गयी थी.. कहती थी,
देह नहीं चलेगी तो काम करने कैसे जाऊंगी.. मैंने गरीब लचार जान के उस गाढ़े बखत पर दे दिया था.. तू
इत्ते दिन मजूरी करती रही, लेकिन लाला की उधारी तुझे याद नही आयी.. अब जा यहां से,
लाला के दरवाज़े से तुझे कुछ भी ना मिलेगा...” इतना कहकर लाला अपनी मुर्गी के दड़बे
जैसी दुकान के भीतर चला गया.
“ ऐसे निरमोही ना बनो लाला.. तुम्हारे भी बाल-बच्चे हैं.. घर-परवार वाले हो... नन्हा सा एक ही बच्चा है मेरा.. चुल्लू भर
दूध के लिये चीख चीखकर रो रहा है.. बिलखता छोड़ के आयी हूं.. लाला एक पेकट दे दो..
बस.. बड़ा अहसान रहेगा तेरा.. लाला..”
लाला कुछ सुनने को तैयार ही नहीं था. वो मुंह फेरे लछमी की
ओर से उदासीन बना ढीटता से दुकान के सामान इधर-उधर रखता रहा. नमकीन के रंग-बिरंगे पैकेट,
कार्टन से निकालकर डोरी पर टांगता रहा. दुकान सजाता रहा.
रात और गहराती जा रही थी. आसपास का माहौल बड़ा ही ज़हरीला था.
पऊव्वा की तीखी दुर्गन्ध, चहुंओर फैली हुई थी. पानी बरसने के कारण सारे पियक्कड़ या
तो हौली के भीतर या फ़िर कहीं ना कहीं ओट में धूनी रमाये थे. कोई भद्दे गाने गा रहा
था, तो कोई एक-दूसरे को गरिया रहा था. कोई कहकहे लगा रहा था, तो कोई अपने करम को
रो रहा था. कोई बेहोश हुआ मिट्टी में सना जाता था, तो कोई खुद को संन्यस्त जैसा
समझकर, चुपचाप प्लास्टिक की थैलियां खाली किये जा रहा था.
जितने चेहरे, उतने भाव. जितने भाव, उतनी विडंबनायें.
एक विडंबना खुद लछमी ही थी. जितना उसका मन बेचैन था, उतना
ही चेहरा निर्विकार. अन्दर ही अन्दर सोनू की चीखों से छलनी हुई जाती थी. लेकिन करे
तो क्या करे. लाला था, जो कुछ सुनने को तैयार ही नहीं था. बरसात थी, जो थमने का
नाम नहीं ले रही थी. भारी समय था, उससे भी भारी लछमी के हालात, और उससे भी कहीं
भारी लछमी का जिगरा था. ठोस, पत्थर सा. मजबूत शिला सा. जिसमें से मोम-जैसी बहकर
आती ममता बार-बार पाषाण को आंच दे रही थी. जैसे ज्वालामुखी के मुंह से लावा पिघल
पिघलकर बाहर आ रहा हो. लेकिन लावा कितना भी गर्म क्यूं ना हो, ज्वालामुखी का सख़्त
पहाड़-सा बदन हर्गिज़ पिघला नहीं पाता.
“ माफ़ कर दो बाबू साहेब माफ़ कर दो.....” कहता हुआ वो बिजली
के खम्बे का सहारा लेकर टिका रहा. सरकारी बत्ती की मरियल रौशनी में उसने भीगी हुई
धोती में लिपटी एक दुबली स्त्री काया को घूर घूरकर आंका.
लछमी अब भी चुप रही. बुरी तरह देसी दारू से गन्धाते हुये
आदमी नाम के उस जीव के आगे निकल जाने का इन्तज़ार करने लगी. वो लछमी को देखकर ठहरा
रहा, और उसे घूरता रहा. लछमी के भीतर एकबारगी भय भी कौंधा कि कहीं ये दारू में
धुत्त आदमी उसे जकड़ ही ना ले. इस निर्मम लम्हे में वो औरत होने के गलीच विचारों से
थर्रा भी रही थी. उसके भीतर की मां ने इस खौफ़नाक़ ख़्याल से उबारा और उसने खुद को
बचाने के लिये दौड़कर उससे दूर जाने का तय कर लिया. लेकिन जब वो आदमी एक क़दम भी आगे
नहीं बढ़ा, तो पल भर के लिये लछमी वही अपनी जगह ही ठिठकी रही.
नशेड़ी खड़ा-खड़ा बड़बड़ाने लगा,
“ तुम तो कोई औरत हो... इत्ती रात गये यहां क्या कर रही हो...
गाहक चईये.....”
लछमी ‘गाहक चईये’ जैसे शब्द सुनकर, पत्थर जैसी खड़ी रह गई. ‘औरत’
और ‘मां’ शब्द के बीच ‘वेश्या’ जैसा एक नया अवतार भी अस्तित्व में आ गया था.
वो पियक्कड़ फ़िर बोला,
“ ये तो गरीब दुखियारों की बस्ती है, यहां सब फक्कड़ ही
मिलेंगे... तुम्हें यहां कुछ भी नहीं मिलेगा.. उधर सड़क के उस पार निकल जाओ...
कुछेक मोटरगाड़ी वाले हैं वहां... तुम्हारा भी कुछ भला हो जायेगा.. मेरी बात मानो,
जाओ... उधर जाओ..” कहते कहते वो आदमी हिलते-डुलते, डगमगाते हुये अंधेरे में जाने
किस ओर निकल गया.
लछमी उसी दिशा में घूरती रही जिधर वो आदमी निकला था. ‘क्या
वो उसे एक नया रास्ता दिखाने आया था.....’
‘क्या सोनू के दूध के लिये अभी उम्मीद की कुछ नई किरणें भी बाक़ी
थीं....’
‘क्या वो कोई ईश्वर का भेजा
फ़रिश्ता था, जो लछमी को नई राह सुझाने आया था.... या फ़िर वो कोई बुरी आत्मा थी, जो
लछमी को ज़लालत भरे गढ्ढे में धकेलने आयी थी.....’
बहरहाल, सड़क के उस पार लछमी यूं
गयी जैसे कोई नये जनम में प्रवेश कर रहा हो. जैसे गीता के वचनों को कोई आम इन्सान
चरितार्थ करने जा रहा हो. जैसे एक चोला उतारकर कोई नया चोला अपनाने जा रहा हो. जैसे
फल की तमाम इच्छा तजकर कोई सिर्फ़ कर्म करने जा रहा हो.
थीं, ऐसा लगता था गोया वो गहरी नींद में सो रहा हो. उसने अपनी
कार दीवार की ओर ऐसी जगह लगा रखी थी जहां कुछ दूर तक कोई दूसरी गाड़ी नहीं थी. तेज़
बरसात के कारण उसने अपनी कार के सारे दरवाज़े-खिड़की बन्द कर रखे थे. शायद कार के
भीतर बैठा वो कोई गाना सुन रहा था. लछमी को सिर्फ़ कुछ रुपयों की बेइन्तिहां दरक़ार
थी. उसके लिये और कुछ भी सुनना-समझना इस वक़्त फ़िज़ूल था. उसने अपनी आत्मा और ज़मीर
की गर्दन खूब मरोड़कर उनकी भरपूर हत्या कर दी और कार का शीशा भड़भड़ाया.
“ मेरा बच्चा भूख से मर जायेगा.. कुछ पैसा दे दो साहब, जो
चाहो मैं करने को तैयार हूं...”
आदमी पहले तो चुप रहा, उसे कुछ विस्मय से देखता रहा. ग्राहक
ने खरीदे जाने वाले माल पर नज़र फ़िराई ही थी कि वो आवाज़ फ़िर उभरी,
“ साहब बहोत जरूरत में हूं.. एक पेकट दूध का पैसा चाहिये बस.. साहब दरवाज़ा खोलो, मैं सबकुछ करने
के लिये तैयार हूं..”
हांलाकि क्रेता को सूखी-पिसी हुयी देह में कोई रुचि दिख
नहीं रही थी फ़िर भी विक्रेता के अनुनय-विनय से सौदा पट ही गया था. आख़िर दया-धरम भी
तो किसी शय का नाम है.
कार के पीछे का दरवाज़ा खुल गया था.
विकल विपन्नता को फ़िर एक बार
कुचला.
लछमी के ज़ेहन और हवास पर सोनू की चीखों, देसी दारू की तेज़
गन्ध और तेज़ बरसात की वजह से आसपास के बजबजाते हुये गटर से उठती दुर्गन्ध के बीच
कुछ और नई चीज़ें भी शामिल हो चुकीं थीं. कार के भीतर से आती फ़्रेशनर और उस आदमी के
जिस्म से उठती हुई एक भीनी परफ़्यूम की खुशबू..
कुछ देर बाद, वो ‘गाहक’ अपनी कार की पिछली सीट को
टिश्यू-पेपर से साफ़ कर रहा था. लछमी की धोती का पानी, लिपटा हुआ कीचड़ और भी बहुत
कुछ.
उसने चहककर दूध का एक पैकेट
लिया, और अपने नीड़ की ओर जहां बुखार में तपता
सोनू भूखा चिंघाड़
रहा था, दौड़ पड़ी. उसे पैसे वापस लेने की सुध भी नहीं थी. उस पर पहले ही गुज़रा हुआ हर एक पल बहुत भारी था.
सच तो ये था कि इस वक़्त वो उड़ कर सोनू के पास पंहुचना चाहती थी.
लेकिन ‘हुनोज़ दिल्ली दूर अस्त...’
बरसात जब अपनी रौ में होती है तो कोने-अंतरे से कीड़े-मकोड़े
बाहर निकल आते हैं. रात जब गहराती है तो कमीने तत्व सक्रिय हो उठते हैं. इस
वक़्त-विशेष में तो दोनों ही हालात मौजूद थे. बरसात में पड़ती हुयी लगातार तेज़
बूंदों की तड़तड़ाहट, बादल-बिजली की गड़गड़ाहट, कुत्तो-बिल्लियों की चीख-पुकार,
झीगुरों-मेढकों और तमाम तरह के कीड़े-मकोड़ों के शोर के बीच, बड़े ही वेग से दौड़ी
जाती लछमी के क़दमों ने अचानक कुछ रुकावट महसूस की. जब वो सोनू से ज़्यादा दूर नहीं
थी, तभी एक यमदूत जैसे कुत्ते ने लछमी की धोती पकड़ ली थी. ऐसा लगता था कि उस टेढ़े
लम्हे में प्रगट हुये उस कुत्ते को दूध के पैकेट का आभास हो चला था. उसने अपने
पैने तीखे दांत से बेहद मरियल धोती को चीर दिया. वो लछमी से जैसे दो दो हाथ करने
को आमादा था. लछमी सिर्फ़ दूध की रखवाली में अपनी प्राण लगाये जा रही थी. उसे सोनू
के रोने की मद्धिम आवाज़ सुनाई भी दे रही थी. लछमी को अपने लाड़ले तक पंहुचने की
हड़बड़ी भी उतनी ही थी जितनी दूध के पैकेट को बचाने की बेकली.
तीखे-नूकीले दांत, झपटकर उस
प्लास्टिक की थैली पर गड़ा चुका था.
और लक्ष्मी के लिये दूध की अज़हद
ज़रूरत भी अब शेष नहीं बची थी.
भूमिका द्विवेदी अश्क
जन्मतिथि/ स्थान.. 23 दिसंबर.
इलाहाबाद
शैक्षिक योग्यता –
.एम.ए. (अंग्रेजी साहित्य)
उपलब्धि –
1 प्रथम कथासंग्रह “बोहनी’
2 प्रथम उपन्यास “आसमानी चादर” मीरा स्मॄति
सम्मान 2017 साहित्य भंडार से पुरस्कृत.
3 भारतीय ज्ञानपीठ से विश्व पुस्तक मेला 2019 में
प्रकाशित “किराये का मकान” दूसरा उपन्यास.
4 सामयिक प्रकाशन संस्थान
5 हिंद और पेंग्विन प्रकाशन से संयुक्त रूप से
नवीनतम कहानी संग्रह "ख़ाली तमंचा एवं अन्य कहानियाँ" मार्च 2020
प्रकाशित।
6. इलाहाबाद और लखनऊ आकाशवाणी और दूरदर्शन
प्रसारण में कार्यक्रम-संचालन और अतिथि कलाकार का लगभग चौदह वर्षों का अनुभव.
7 जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय प्रवास के दौरान “सहर” एवं “बहरूप” थियेटर
ग्रुप में सक्रिय भागीदारी.
वर्तमान –
अंग्रेजी
उर्दू और हिन्दी साहित्य के
दिग्गज हस्ताक्षर उपेन्द्रनाथ अश्क की पुत्रवधू और वरिष्ठ साहित्यकार नीलाभ अश्क
की पत्नी भूमिका क़रीब एक दशक से दिल्ली में रहकर ‘अश्क परिवार’ की गौरवशाली
रचना-परंपरा को लगातार गंभीरता से आगे बढ़ा रहीं हैं. विगत दस वर्षों से दिल्ली में
रहते हुए स्वयं का मुक्त लेखन/चिंतन.