कब्बर में जाणी : तसनीम खान की नयी कहानी
तसनीम खान आज की महत्वपूर्ण और संवेदनशील
रचनाकार हैं। उनकी कहानियों में अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत स्त्री पात्र मिलती
हैं जो हालात से समर्पण नहीं करती बल्कि परंपरा और धर्म की दीवारों के बीच अपने लिए
मुक्ति की राह तलाशती हैं। ‘कब्बर में जाणी’ कहानी की पात्र मुन्नी धर्म, समाज और पितृ
सत्ता की कब्र में ख़ुद को ज़िंदा दफ़न नहीं करती है। अपनी यौनिकता और इच्छाओं के लिए
वह शर्मिंदा नहीं है। वह मातृत्व की गरिमा से लदी देवी नहीं बल्कि हाँड़ -माँस की बनी
एक सामान्य मनुष्य है जो अपने लिए जीना चाहती है।
मेराकी पर पढिए तसनीम खान की नयी कहानी-कब्बर में जाणी
----------------'ऐ मेरे कलेजा का टुकड़ा, मेरे जेठ (जेठ माह) का बाजरा, तू कहां गया
रे। आजा रे मेरे हीरे की कणी, थक गई रे
इंतजार कर। मां को इतना परेशान करेगा तो ये बुढ़ापा कैसे कटेगा रे? तू ही तो सहारा ठहरा। आजा रे रउफ, आजा।'
सुबह की नमाज
पढ़ हमेशा की तरह अम्मा दुआ में हाथ उठा अपने बेटे के लौटने को मांगती रही। दिन
इसी बात से शुरू होता और खत्म भी बेटे के जिक्र पर ही होता। दिनभर बेटे की बातें
ही उनके मुंह पर होती। मोहल्ले की औरतें भी दिन में चक्कर काटती रहती और उनके
आने—जाने पर अम्मा के मुंह से लेकर दिलो दिमाग तक में रउफ की बातें ही चक्कर काटती
रहती। और इसी घर में एक कोने से दूसरे कोने तक चक्कर काटती रहती मुन्नी। अम्मा की
बातों पर कभी कसमसाते हुए तो कभी अनसुना सा करते हुए। चक्कर काटती रहती। झाडू
बुहार लेती तो बर्तन ले बैठ जाती, चौका करती तो
कभी कपड़े धोती। धूप निकलते ही अनाज ले बैठती बीनने। दिन ढलते फिर चाय चढ़ा देती
तो तनी पर सूखते कपड़े उतार लाती। एक शून्य में उसका यह उतार—चढ़ाव चलता। जैसे कुछ
भुलाते हुए जिंदगी जीने की नाकाम सी कोशिश कर रही हो। और अम्मा की यह चक्कर काटती
बातें उसे बेतरह से इस नाकामी को याद दिलाए रखती। कभी लंबी सांस खींचती तो कभी
एकटक कहीं देखा करती। तकिए की नई खोलियों पर फूल काढ़ते उसे अपने उलझे बाल याद हो
आते तो ओढ़नी हटा मोटे कंघे से उन्हें सुलझाने लगती। ना अम्मा की लम्बी बात सुलझती
उससे और ना यह लम्बे बाल। दोनों से ही हार मान वो चूल्हा में बिना मतलब ही कोई करछी
चला उसकी राख को समतल करने की जुगत करने लगती।
अभी उसने
करछी चलाई ही थी कि दोनों बेटे लड़ते—लड़ते उस चूल्हे के पास आ गिरे। जैसे चूल्हे
का कोना नहीं, उसके खयाल टूटे हों कि वो गुस्से में दोनों
पर पिल पड़ी। चिमटा कब किसे लग रहा था, पता नहीं। एक
हाथ से वो चिमटा उन पर मार रही थी, तो दूसरा हाथ
भी बराबर उन्हें पीट रहा था।
'हराम के जनों, कब्बर में जाणों। जब देखो उधम मचाते फिरते हो। आज तो ठीक कर रहूंगी।' दोनों पिटते—भागते अम्मा के पास पहुंचे। अम्मा ने चिमटे के आड़े हाथ किया
तो उनकी अंगुली भी चटकी।
'अरे क्यूं मारे है रे मनहूस। मेरा बेटा तो खा
गई, अब उसके बच्चों को तो बख्श दे। यही काम आएंगे तेरे
बुढ़ापे में। कोई काम न आना।'
उसकी खामोशी
में कोई खलल पड़ी जैसे।
बोली— 'हां, जैसे तेरे काम आ रहा ना, तेरा बेटा। वो खिदमत करे है तेरी, के मैं मरूं
हूं रात—दिन तेरे आगे—पीछे। पका के दे बहू, पैर दबाए बहू और काम बेटे आते हैं। यही बात नहीं जंचे तेरी ढोकरी।'
'तेरी जैसी बेशर्म बहू को कौन भला कहेगा। सास
से जुबानें करे, ढोकरी कह रही मुझे। तू ऐसी ही अच्छी होती तो
मेरा बेटा किसी और के साथ क्यों भाग जाता। तुझे और मेरी छाती पर छोड़ गया। न तो
तेरा बाप ही रखे अब तुझे और मेरा बेटा तो छोड़ ही गया। पर तेरा घमंड ना टूटा। जा
री बेसूरती।'
उसके कान
सन्न हो गए। कोई तेज हवाएं इस कान से उस कान तक जाने लगी। सूं, सूं की आवाजें उसके कानों से पूरे जेहन पर हावी हो गई। उसने घबराकर कानों
पर हाथ रख दिए। फिर खामोशी को ओढ़ लिया और बुहारने लगी उस चौक को, जहां उसकी उस दिन की टूटी चूड़ियों की किरचियां बिखरी नजर आ रही थी, जब आखिरी बार रउफ ने उसे धक्का देकर पटका था। चूड़ियों से भरे उसके हाथ
वहीं धाराशायी हुए थे और चटकी चूड़ियों से जख्मी मुन्नी उठती, तब तक रउफ जा चुका था। दो साल हुए उसे गए। जाने के बाद कभी उसकी कोई खबर
नहीं थी। कोई नहीं जानता कि वो कहां है। अब यह सवाल मुन्नी को परेशान नहीं करते।
वो तो शून्य हो जाती और टकटकी लगाए जाने कहां देखा करती।
लेकिन
कभी—कभार वो घिन्न से भर जाती कि हर दिन जिसके लिए बिस्तर पर बिछ जाया करती, उसने उसे छोड़ उसके वजूद को ही नकार दिया। नफरत से उसकी छाती भर उठती, उस रउफ के लिए, जिसकी वजह से वो मोहल्लेभर में गुनाहगार सी
देखी जाती।
'खुश नहीं रख पाई बींद को, पैदाइशी मनहूस है..., पहले पहल ऐसी
पैदा हुई कि पीछे एक भाई नहीं हो पाया..., इससे ज्यादा खूबसूरत मिली होगी रउफ को, तो जाता ही...., वो तो मर्द
जात ठहरा, इसमें ही उसे अपना बना रखना नहीं आया....।'
बहुत लम्बी
बातें हैं, जिनसे वो ही रउफ के घर से भाग जाने की
कसूरवार ठहराई जाती। जिन्हें वो याद करने बैठती तो पूरी रात ही बैचेनी में गुजरती।
रउफ का जाना उसे न अखरता, यह बातें
जरूर अखरती। अपने वजूद के नकारने को वो सहज नहीं ले पाई। और यही असहजता उसे उसके
दोनों बेटों से नफरत करने को मजबूर करती। जैसे वो रउफ के मां—बाप की खिदमत मजबूरी
में करती, वैसे ही वो उन दोनों को रउफ के बेटों के तौर
पर ही देखती। रउफ उसके वजूद के साथ उसकी ममता को भी यहां मार गया। वो यहां—वहां
अपने वजूद को भी तलाशती और शायद कहीं से जुटाने की कोशिश भी करती। जब थक जाती तो
दोनों बेटों पर सारा जहर उगल देती।
'कब्बर में जाणा, अब तक दांत नहीं मंजे तेरे, स्कूल तेरा
बाप जाएगा।' यह कहते वो छोटे दस साल के बेटे पर पिल पड़ी।
'इतना मत कोसा कर मुन्नी। बच्चों को कब्र की
क्यों बद्दुआएं देती फिरती है। इनकी क्या गलती?'
दीवार के उस
ओर खड़ी बिब्बो भाभी ने झांकते हुए कहा। दोनों घरों बीच की यह दीवार आधी ही थी कि
एक—दूसरे के चौक के साथ, एक—दूसरे की
जिंदगियों में झांकना भी आसान था। दोनों घरों की ये बहुएं आपस में इस आधी दीवार से
ही एक—दूसरे के सुख—दुख से पूरा जुड़ी रहती। दोनों की शादी साथ ही हुई थी। इसीलिए
भी दोनों का जुड़ाव रहा एक—दूसरे से।
'हां, सारी गलतियां तो मेरी ही हुई ना। पैदा होना, इस भगोड़े से शादी करना, इन संपोलो को
पोसना। सारी गलतियां मेरी ही हैं।' यह कहते उसने
बड़े को भी एक थप्पड़ रसीद कर दिया।
वो उन्हें
नाश्ता कराते भी लगातार बड़बड़ाए जा रही थी। जाने कहां का गुस्सा, कहां निकल रहा था। बिब्बो भाभी हैरानी से उस आधी दीवार के पास ही खड़ी रही।
जो मुन्नी कभी इतनी शिकायत नहीं करती, आज वो जीभर
सभी को कोस रही थी। बिब्बो की हर बात को हंसकर मान लेती, कभी जवाब न दिया, पर आज वो
बच्चों के साथ ही बिब्बो के बहाने भी बोले जा रही थी।
'अरी बिब्बो, बुरा मत मानी यो। ये पागल हो गई है और हमें भी पागल कर छोड़ेगी। मेरे
बच्चों पर तो बुरी नजर है ही इसकी।' यह कहते
अम्मा ने स्कूल जाते दोनों पोतों के सिर पर हाथ फिराया।
'हां, डाकन तो मैं ही, तेरे बेटे को
खा गई। सोच रही हूं तुम दोनों को कब खा सकूंगी। तुम ढोकरा—ढोकरी भी कहीं भाग जाओ
तो मेरा डाकन होना भी सुकून दे दे मुझे।'
वो अम्मा को
कोसती छत पर जा पहुंची। कल के सूखाए कपड़े उतारने। बिब्बो भाभी अभी भी उस आधी
दीवार के पास खड़ी मुन्नी के मुस्कुराते चेहरे का इंतजार कर रही थी। सीढ़ियों से
उतरते उसने दीवार पर नजर डाली और बिब्बो भाभी के सामने खड़ी हो गई।
'क्यों बिब्बो भाभी? तुझे भी सारी गलती मेरी ही दिखे है। मैं तो समझी कि तू पढ़ी लिखी, घर के भीतर नहीं, मन के भीतर
भी पढ़ लेती होगी, पर तू भी मुझे खुद से नफरत दिलाना चाह रही
है।'
'नहीं री मुन्नी, ऐसा कोई मतलब नहीं था। मैं तो बस इतना चाह रही थी कि बच्चों को ना कोसो।'
'क्यूंं न कोसू। सब मुझे कोसते, तब तो तू कुछ नहीं बोलती। क्या मैं इंसान नहीं या मैं कोसे जाने के लिए ही
पैदा हुई हूं। इस पर भी चुपचाप सब सुन लूं, ऐसी उम्मीद क्यों करते हो सब मुझसे?'
'क्या हो गया मुन्नी, आज इतने सवाल?'
'सवाल तो बहुत सारे हैं मेरे पास। पता है, इस मोहल्ले में एक तू ही बहू रही जो दूसरे गांव से लाई गई। इस पर
पढ़ी—लिखी। तो मैं यही सोचा करती कि तू तो हर चीज को अलग तरह से देखती होगी। गलत
को गलत ही समझती और कहती भी होगी। हम अनपढ़ों को तो कोई गलत को गलत कहने का हक ही
नहीं देता। बड़ी उम्मीदें थी तेरे से। तुझे देख ही आंखों में चमक आ जाती। पर तू ही
लम्बा घूंघट काढ़े दिखी तो हैरानी हुई, पहले—पहल।'
'छोड़ इन बातों को। देख ससुराल का धरम तो
निभाना ही पड़ता है। सास—ससुर से उंची आवाज में बात अच्छी नहीं लगती।'
'तू यही इशारा दे रही ना कि मैं उस बुढउ को
गालियां निकालती हूं। क्यूं निकालती हूं जानती हैं ना। जितनी बार पानी का गिलास
पकड़ाती हूं, हाथ पकड़ लेता है। और जिस तरह से दांत
निपोरता है ना फिर, कसम से उसका गला घोंटने का मन करता है। तू
नहीं समझेगी अपनी निकाह में लेना वाला, जब ऐसे
गिद्धों को सौंप जाए तो कैसी आग लगती है मन में। मैं क्या अब हर एक के छूने के लिए
हूं? देखना इसे मौका मिल गया ना तो मुझे छोड़ने वाला नहीं।'
मुन्नी का
गुस्सा इतना कि उसकी ही आंख से आंसू टपक पड़े।
'जानती हूं मुन्नी। पर क्या कर सकते हैं। बाहर
कहीं कहें तो भी अपनी ही बदनामी होगी। सब्र कर।'
'देख भाभी, तेरी यही बात अच्छी नहीं लगती। तू तो कम से कम बर्दाश्त की बात मत करा कर।
तेरे पढ़े—लिखे होने का शक होने लगता है मुझे।'
बिब्बो की
आंख झुक गई। घूंघट सही करते वो वहां से पलट गई।
चूड़ी
वाला... हरी कच्च के साथ लाल—सुनहरा बंध, काजल, टिक्की और गुलबंद। चूड़ी वाला....।
गली से आ रही
आवाज पर बर्तन मांजती मुन्नी की आंख में चमक उतरी। हाथ धोए और अपने कुर्ते से
उन्हें पोंछती हुई चौक की सीढ़ियां दौड़ते हुए उतरने लगी कि अम्मा की आवाज ने
टोका—
'अब किसके लिए सिंगार करना है, जो बार—बार चूड़ी लेने खड़ी हो जाती है। तेरे बाप ने पैसे धराए हैं क्या?'
मुन्नी के
कदम रूक गए। याद हो आया कि यही अम्मा हाथ की जरा सी चूड़िया झड़ जाने पर नई दिलाने
खड़ी हो जाती।
'अब चूड़ी वाला आया है तो ले ही ले। मेरे बेटे
की उम्र का सगुन बना रहे तेरे हाथ में।' यह कहते वो
दस रुपए आगे कर देती और दो दर्जन चूड़ियों से दोनों हाथ लाल हो जाते।
उसने याद को
छिटका और दरवाजा खोल गली के चौक में खड़े चूड़ी वाले को घेरे खड़ी औरतों के बीच जा
खड़ी हुई।
चूड़ी वाले
की नजर उस पर पड़ी तो उसने लाल चूड़ी उसके आगे कर दी। मुन्नी के सूने चेहरे पर
मुस्कान दौड़ पड़ी। वो कभी हाथ से उन लाल चूड़ियों को सहलाती तो आंखों से चूड़ी
वाले के चेहरे को। चूड़ी वाला भी मोहल्ले की औरतों को चूड़ी पहनाते चोर नजरों से
उसे देखे जाता। आज उसने जाते हुए बंद मुट्ठी से उसके हाथ में काजल की डिबिया डाल दी।
वो बड़ी देर
तक हाथ की छुअन महसूस करती रही और उस निक्की काजल को देखती रही। घर आकर भी उसकी
नजर अपनी हथेली पर ही रही। उसने एक हाथ अपने चेहरे पर और आंखों पर फिराया। याद हो
आया, वो कितना गहरा काजल डाला करती। दो सालों में आंखें ऐसे
सूखी कि यहां कोई काजल की अंगुली नहीं
घुमाई गई।
खुद से ही
सवाल कर बैठी— 'चूड़ी वाले ने कैसे जाना कि इन आंखों को इस
काजल की जरूरत थी, एक चमक की जरूरत थी।'
कमरे की
दीवारे में लगे आधे टूटे शीशे में उसने आंखों को निहारा और काजल की डिबिया खोल दो
अंगुलियां भर ली। डोई भर दोनों आंखों में काजल डाला। आंखें झपकाई और फिर शीशे में
चूड़ी वाले की मुस्कुराती तस्वीर उभर आई।
'तू काजल क्यों नहीं लगाती अब?'
उसने दो
चूड़ी हाथ में चढ़ाते बुदबुदाते हुए कहा था।
आसपास देखा
कि सब औरतें चूड़ियों के रंग देखने में लगी हैं तो उसने धीरे से कहा— 'सब कहते हैं, अब सिंगार की जरूरत नहीं।'
'सिंगार किसी के लिए नहीं, अपने लिए किया जाता है। जैसे तुझे पसंद हो, वही कर। तेरा जीवन, तेरी खुशी सब
तेरे हाथ ही है।' यह कहते उसने हाथ पर थपकी दी।
उसकी थपकी वो
हाथ पर अब भी महसूस कर रही थी। कानों में गूंजती हवाएं अभी कहीं नहीं थीं। एक आवाज
थी, जो कह रही थी कि 'तेरा जीवन, तेरी खुशी सब तेरे हाथ।'
उसने दोनों
हथेलियों से मुंह छिपाया और सुबक उठी।
'क्या हुआ, आंखें क्यूं सूजा ली। रउफ की याद आती होगी ना।'
'देख भाभी, उस हराम के जाये की बात मत छेड़ा कर। पहले उसने जीभर नोंच लिया। अब बाप के
हाथ छोड़ गया। रात में कमरे में आया बूढ़ा, छाती पर हाथ फिरा रहा कि मेरी चीख निकली। अच्छा हुआ कि डर के भाग गया।'
'भाग गया न,फिर क्या परेशानी। भूल जा उसकी बात।'
'इतना आसान होता है क्या, बदन को घूरती निगाहों के बीच रहना और उसे भूल जाना?'
'नहीं होता आसान, लेकिन भूलना पड़ता है। तेरी मजबूरी भी यही है कि अब इनके साथ ही गुजारा
करना है। कुछ नहीं कर सकते।' यह कहते
बिब्बो ने मुन्नी के कंधे पर हाथ रख दिया। मुन्नी कई देर तक कंधे पर रखे उस हाथ को
देखती रही। भीतर कोई तूफान लिए।
'ऐसी क्या मजबूरी कि उसके हाथों को सीने पर
बर्दाश्त करूं। और कल को चुपचाप उसके साथ सो जाउ। बिना आवाज किए। यही कहना चाहती
हैं ना तू।'
'गलत मत समझ मुन्नी। जानती है ना परिवार में
रहने के लिए औरत को कुर्बानियां देनी ही पड़ती है।'
'हां, दोगली जिंदगी से ही परिवार बने रहते हैं ना। सभी के सामने तो बुढउ मुझसे
लम्बा घूंघट निकलवाता है, वो निकाले
फिरूं। फिर जब अकेले में मेरी इज्जत उतारे तो, वो भी चुपचाप उतरवा लूं। वाह रे भाभी, तू भी खूब दोगली होती जा रही।'
बिब्बो ने
मुंह फेर लिया। यहां—वहां देखने लगी। किसी तरह संभलते कहा— 'दोगली बात नहीं, कुछ रिवाजों
और कुछ लोगों को ढोना ही पड़ता है।'
'क्या यह सब तेरी किताबों में भी लिखा है, जो तू हर वक्त पढ़ती रहती है?'
मुन्नी यह
सवाल कर बिब्बो को वो आधी दीवार छोड़ जाने का मजबूर कर देती। बिब्बो फिर खिड़की
में जाकर उस आधी दीवार के उस ओर मुन्नी के बच्चों और सास—ससुर को गालियां निकालते
देखती—सुनती रहती। कभी लगता कि मुन्नी सही ही कहती है, किताबें पढ़ भी उसकी और मेरी जिंदगी में कुछ भी तो अलग नहीं। दिन में जिनसे
लम्बा घूंघट निकालते हैं, वो मौका
देखते ही हाथ से हाथ टकरा लेते हैं, जो कभी सीने
पर सांप की तरह लोटने लगते।
'कब्बर में जाणों। मौत आ गई क्या, जो नींद नहीं खुल रही।' मुन्नी ने
दोनों को एक—एक हाथ मारा और उठने को कहा। खिड़की में से सुन रही बिब्बो को फिर
बच्चों पर निकलता यह गुस्सा रास न आया। पर वो आधी दीवार तक पहुंचने की हिम्मत ना
जुटा सकी। उसके पास अब मुन्नी के सवालों का जवाब नहीं होता।
इस घर और घर
के भीतर के रिश्तों से बेजार हो चुकी मुन्नी को एक ही आवाज भीगोती। सूखी जिंदगी
कुछ देर के लिए जी उठती। आज जब चूड़ी वाला आया तो वो अपने घर की देहरी पर ही खड़ी
रही। आती—जाती मोहल्लेवालियों के हाल पूछते वो नजरभर उसे देख लेती। जब भी वहां
देखती, वो भी उसे ही देख रहा होता। हाथ चूड़ियों पर
होते और नजर मुन्नी पर। उसका देखना उसे यों भी अच्छा लगता कि वो उसके मन को छू रहा
होता था। कोई गरज दिखाई न देती, सिवाय यह कि
वो इशारों में उसे हंसने को कहता।
कोई बस उसके
हंसने की परवाह करता है, पहली बार
उसने महसूस किया था। लगा कि यही तो वह चाहती है अपनी जिंदगी में। और पहली बार किसी
से सुना था कि अपनी खुशी, किस्मत सब
अपने हाथ होती है। उसे धीरे—धीरे विश्वास होने लगा इस बुदबुदाई बात पर।
हर दिन काजल
आंखों की किनारों पर सजता और वो चूड़ियों पर हाथ फिरा लेती।
'ये क्या चल रहा है?'
आज बिब्बो के
पास मुन्नी के लिए सवाल था।
चुड़ियों पर
हाथ फिराते मुन्नी चौंकी, 'क्या?'
'यही चूड़ियां और चूड़ी वाला?'
'क्यूं क्या हो गया?'
'मैं जवाब मांग रही हूं और तू मुझसे ही सवाल
कर रही है। शर्म नहीं रही तुझमें अब।'
'कौनसी शर्म भाभी? वही कि मेरा आदमी मुझे छोड़ भाग गया, किसी ओर के साथ। उसका जी भर गया, मेरे ढलते
बदन से। उसने तो अपने बच्चों की परवाह भी नहीं की, लेकिन कभी किसी को उसे बेशर्म कहते नहीं सुना। और वो बुढउ जो नजरों से ही
मेरे कपड़े चीर देता है, उसके लिए
शर्म करूं। या फिर अपने नसीब से शर्म करूं, जिसे मैंने नहीं लिखा। लिख दिया गया। और उस लिखे को मैं ढोती रहूं, इस पर शर्म करूं? क्यों करूं
बता शर्म?'
'नसीब तो होते जो होते हैं। उस पर किसका बस
चला कभी?'
'अपनी खुशी अपने हाथ, अपना नसीब भी।' वो चूड़ियों पर हाथ फिराती उस आधी दीवार से
उठ चल दी।
बिब्बो ने
मुन्नी का यह रूप पहली बार देखा। खुद पर इतना भरोसा उसने कभी नहीं दिखाया पहले। वो
तो चौक बुहारती, नाकाम कोशिश ही करती दिखी हमेशा, अपनी तकलीफों को बुहार बाहर निकालने की। पर अब वो चौक नहीं बुहारती और न ही
जोर—जोर से बजा—बजाकर बर्तन मांजती। चूल्हे की राख से भी करछी चलाने की आवाज न आती
थी। कहीं खूब तसल्ली दिखाई दे रही थी।
हां, एक रात को चीख जरूर सुनाई दी मुन्नी की। बिब्बो ने खिड़की से आधी दीवार पार
झांकने की कोशिश की। झुकी कमर की परछाई कमरे से निकलती दिखाई दी। बिब्बो को मुन्नी
के सीने पर सांप लोटता नजर आया। उसने डर से आंख मींच ली। कसकर।
बेचैन रात के
बाद आधी दीवार के पार से कोसना और गालियां दी जा रही थी।
'कब्बर में जाणों, बरस लगेंगे क्या इन चार दांतों को मांजने में। गिट लो ये निवाले और निकलो
फिर यहां से। जीना हराम कर रखा है, मारे जाणो
नै।'
पर आवाज....
मुन्नी की नहीं थी। बिब्बो दौड़ आधी दीवार के पास आई। झांका तो अम्मा दोनों बच्चों
को कोस रही थी। बूढ़ी थके हाथों से पराठे बेल रही थी और कभी बेलन उनके सिर पर दे
मारती।
'अम्मा... मुन्नी कहां गई?'
'और कहां गई? कब्बर में ही गई होगी, कब्बर में
जाणी।'
यह कहते
दोनों बच्चों को बस्ते पकड़ाए और पलंग पर बैठे अपने आदमी को जहर बुझी नजर से देखा।
आज इस चौक को
घूंघट निकाले किसी ने बुहारा नहीं। किसी का हाथ नहीं पकड़ा गया, किसी के कपड़े आंखों से चीरे नहीं गए। और किसी ने अपने बेटे को जेठ का
बाजरा, हीरे की कणी कह भी नहीं पुकारा। सब कुछ चुप
था इस आंगन में।
आज ही
मोहल्ले का चौक भी सूना था। चूड़ी वाला दूर—दूर तक कहीं न था।
रचनाकार परिचय
तसनीम खान
पत्रकार, उपन्यासकार, कहानीकार
जन्म— 8 दिसंबर 1981
वर्तमान निवास— ड्राईडन पब्लिक स्कूल के पास, हसनपुरा ए, जयपुर, राजस्थान 302006
मोबाइल— 9928036141
शिक्षा— विज्ञान में
स्नातक, पत्रकारिता में स्नातकोत्तर की पढ़ाई की।
सम्प्रति— 2005 से वर्तमान
तक राजस्थान पत्रिका में चीफ सब एडिटर और पत्रिका टीवी में एंकर।
लेखन— जनवरी 2016 में परिकथा के नवलेखन अंक में पहली कहानी 'अम्मू बा की कुल्फी' प्रकाशित
हुई। इसके बाद कथादेश, इंद्रप्रस्थ भारती, नया ज्ञानोदय, पाखी, मधुमती में कई कहानियां प्रकाशित हुई।
विशेष— 28 जुलाई 2016 में पहला उपन्यास 'ऐ मेरे
रहनुमा' भारतीय ज्ञानपीठ की 11वीं नवलेखन
प्रतियोगिता के तहत अनुशंसित व प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास पर एक शोध हो चुका है।
दूसरी प्रकाशित किताब के तौर पर
कहानी संग्रह 'दास्तान ए हजरत' का प्रकाशन
मार्च 2019 में कलमकार मंच की ओर से किया गया।
आइसेक्ट यूनिवसिर्टी की ओर से हाल
ही प्रकाशित 'कथादेश' के 18 खंडों में
कहानी 'दुनियावी खुदा' प्रकाशित।
कहानी 'खामोशियों
का रंग नीला' का उर्दू अनुवाद हो चुका है, जो
पाकिस्तान की एक पत्रिका में प्रकाशित हुई।
दिल्ली पुस्तक मेले में भावना
प्रकाशन से साझा कहानी संग्रह 'बगावती कोरस' में कहानी 'कब्बर में जाणी' प्रकाशित।
— हाल ही में राजस्थान साहित्य अकादमी की पत्रिका 'मधुमती' में विस्थापन की कहानी 'पैरों में फिर पीड़ उठी है' प्रकाशित
हुई।
बेहतरीन कहानी, बहुत ही बढ़िया लिखा तसनीम ने
ReplyDeleteमार्मिक और ज़मीन से जुड़ी आम औरत की कहानी
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