सीता की उत्तरगाथा
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महाकाव्य एक सामंती विधा है जहां हाशिये के लोगों के लिए विशेष जगह नहीं बचती। सामंतवाद और पितृसत्ता में गठजोड़ रहता है। पितृसत्ता की मनोभूमि का निर्माण सामंती मानस से ही होता हैं। बल्कि कहें कि यह सामंतवाद का ही दूसरा रूप है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। इसलिए यह अकारण ही नहीं है कि इन महाकाव्यों में स्त्री है ही नहीं
मेराकी पर पढिए हमारे महाकाव्य की सबसे आराध्य लेकिन विवादास्पद चरित्र सीता की उत्तरगाथा आलोचक और शिक्षाविद सुनीता गुप्ता की कलम से।
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वाल्मीकि के रामायण ने लोकप्रियता के
शिखर को स्पर्श किया - इसका प्रमाण है कि रामकथा को देश भर में अलग अलग सम्प्रदाय
मत,
संस्कृत में रामकथा को लेकर जो
महाकाव्य रचे गये उनमें कालिदास का रघुवंशम और भवभूति का उत्तररामचरित उल्लेखनीय
है। रघुवंशम में सीता का चरित्र प्रच्छन्न ही है,
वाल्मीकि के बाद हिन्दी में इस कथा पर
आधारित जिस महाकाव्य ने अपार लोकप्रियता अर्जित की,
ऐसा ही होता है। कथा जब मिथ में बदल
जाती है तो उसमें समयानुकूल आकार ग्रहण करने की लोच पैदा हो जाती है। मिथक का
प्रयोग अपने समय के दुरुह सच को व्यंजित करने के लिए ही होता है। उसकी सार्थकता
उसकी इसी लचक में होती है।
वाल्मीकि रामायण रामकथा का आदिग्रंथ
है। मध्यकाल- जब तुलसी द्वारा रामचरितमानस की रचना कर रहे थे - की तुलना में यहां
का परिवेश स्त्रियों के लिए अपेक्षाकृत अधिक खुला था। यही कारण है कि वाल्मीकि की
सीता तुलसी की तुलना में अधिका मुखर हैं। राम जब माता की आज्ञा से वनगमन को
प्रस्तुत होते हैं और सीता को महल में रहने का आदेश देते हैं तो सीता इसका विरोध
करती हैं। राम और सीता के बीच लम्बा वार्तालाप है जिसमें सीता राम के प्रति अपनी
निष्ठा और समर्पण का उल्लेख करती हैं और पति के साथ वन जाने को अपना धर्म बताती
हैं। राम वन में आनेवाली बाधाओं का वर्णन करते हैं तो सीता उससे विचलित नहीं होतीं
बल्कि उसे साहस के साथ झेलने के लिए आश्वस्त करती हैं और प्रश्न करती हैं - ‘आप वन
में दूसरे लोगों की रक्षा कर सकते हैं,
इसप्रकार वे राम के द्वारा उन्हें वन
में न ले जाने के निर्णय का मुखर विरोध करती हैं। इस विरोध में अनुनय विनय तो है
ही,
राम नाना प्रकार के लोकापवाद का भय
दिखाते हैं तो सीता स्पष्ट शब्दों में कहती हैं - ‘‘आप भरत के वशीभूत और आज्ञापालक
बनकर रहिये,
वन जाते समय कौशल्या द्वारा
पातिव्रत्य धर्म के पालन करने के उपदेशों पर वे विनम्रता और आत्मविश्वास से कहती
हैं - ‘‘मुझे किसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये,
अग्नि परीक्षा के प्रसंग में भी वे
मुखर होकर अपना तर्क प्रस्तुत करती हैं। स्त्री की शुचिता पर लगाये गये आरोपों पर
यह एक बड़ी,
वे राम के साथ अपने लम्बे साहचर्य और
गहन वैवाहिक संबंधों की भी दुहाई देती हैं और मार्मिक सवाल करती हैं,
राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। वे भला सामाजिक
मर्यादा कैसे तोड़ सकते हैं। पितृसत्ता के लिए स्त्री एक उपकरण मात्र है उनकी
प्रतिष्ठा के अहंकार को बनाये रखने का। सीता के प्रति अपने अगाध स्नेह के बावजूद
राम उनके साथ वही व्यवहार करते हैं जो पितृसत्ता के मनोनुकूल है। सीता राम से
मिलने के लिए इतनी व्याकुल हैं कि लंका विजय के बाद बिना श्रृंगार किये ही राम के
पास जाना चाहती हैं। पर राम की आज्ञा है कि वे स्नान और श्रृंगार करके उपस्थित
हों। विभीषण द्वारा यह आदेश सुनाये जाने पर वे उसका पालन करती हैं। राम के पास
पहुंचते ही राम से मिलने की उनकी उत्कंठा पर वज्रपाज होता है। राम तटस्थ भाव से
निर्देश देते हैं कि ‘‘ये दशों दिशाएं तुम्हारे लिए खुली हैं। तुम्हारी जहां इच्छा
हो चली जाओ।’’ उनके मन में शंका है कि इतने दिनों तक पराये घर में रहकर आयी हुई
स्त्री को यदि वे स्वीकार कर लेते हैं तो इससे लोकोपवाद फैलेगा। लोग उन्हें कामी
और मूर्ख कहेंगे - ‘‘कौन ऐसा कुलीन पुरुष होगा जो तेजस्वी होकर भी दूसरे के घर में
रही हुई स्त्री को,
वे मानते हैं कि सीता को रावण से
छुड़ाकर उन्होंने अपना कर्तव्य निभाया है - ‘‘सदाचार की रक्षा,
ऐसा नहीं कि सीता के सतीत्व के प्रति
उनके मन में कोई शंका है और ऐसा भी नहीं कि सीता के प्रति उनका प्रेम नष्ट हो गया
है। बल्कि वे सीता की शुचिता के प्रति आश्वस्त भी हैं। पर लोक धारणाओं के कारण वे
अपने आप को कठोर बना लेते हैं - ‘‘‘यदि मैं जनकनंदिनी की शुद्धि के विषय में
परीक्षा नहीं करता तो लोग यही कहते कि दशरथसुत राम बड़ा ही मूर्ख तथा कामी है।’’
राम के अयोध्या लौटने के बाद राम का
राज्याभिषेक होता है,
राम अथवा कहें कि वाल्मीकि के कठोर
पितृसत्तामक मानसिकता का पता तब चलता है जब लव कुश द्वारा राजसभा में रामायण का
गायन होता है और राम को पता चलता है कि ये दोनों उनके ही पुत्र हैं और वाल्मीकि
भरी सभा में सीता के सतीत्व की शुचिता की घोषणा करते हैं। बहुविवाह की प्रथा वाले
समाज में सीता वनवास की अवधि में राम का अविवाहित रहना सीता के प्रति राम की
निष्ठा को ही प्रमाणित करता है। उसके बावजूद राम आदरपूर्वक सीता को जाकर लिवा नहीं
आते हैं बल्कि ऋषि द्वारा आदेश देते हैं कि सीता सभा में उपस्थित होकर अपनी
निष्कलुषता की शपथ लें। वाल्मीकि भी यही कहते हैं कि सीता वही करेंगी,
इस मर्दवादी व्यवस्था में एकमात्र
लक्ष्मण हैं जो सीता के पक्ष में खड़े होते हैं। लक्ष्मण देवर हैं और समाज में देवर
का सम्बंध मित्रवत होता है। इसलिए क्या आश्चर्य कि वे सीता परित्याग को लेकर
अत्यंत क्षोभ से भरे हैं। सीता को वन में उतार देने के बाद वापस लौटते समय वे अपने
पिता के समय से सारथी रह चुके सुमंत के सामने अपनी मनोव्यथा खोलते हैं - ‘‘सीता के
प्रति अन्यायपूर्ण बात करने वाले इन पुरवासियों के कारण ऐसे कीर्तिनाशक कर्म में
प्रवृत्त होकर श्री रामचंद्र ने किस धर्मराशि का उपार्जन कर लिया है?’’
तुलसी के रामचरित मानस में सीता
परित्याग की घटना नहीं है। तुलसी का समय भक्ति आंदोलन का था। यह ठीक है कि भक्ति
ने स्त्रियों के लिए भी स्पेस पैदा किया और इसलिए तुलसी के लिए इस प्रसंग को लेना
संभव नहीं हुआ। किंतु इसका एक अप्रत्यक्ष मनोवैज्ञानिक कारण भी रहा होगा जिसकी ओर
अमृतलाल नागर ने संकेत किया है। अमृतलाल नागर अपने उपन्यास ‘मानस का हंस’ में एक
प्रसंग की कल्पना करते हैं। तुलसी द्वारा परित्याग के वर्षों बाद रत्नावली तुलसी
से मिलने जाती हैं और एक भक्त के रूप में उनके आश्रम में रहने की आज्ञा चाहती हैं।
लोकोपवाद के भय से वे इसकी आज्ञा नहीं देते - बिल्कुल वाल्मीकि के राम की तरह।
उन्हें स्वयं अपने आप पर भी भरोसा नहीं है। जाते समय रत्नावली उनसे एक जिज्ञासा
प्रकट करती हैं कि उन्होंने अपने रामचरितमानस में सीता वनवास प्रसंग क्यों नहीं
डाला है। तुलसीदास स्वीकार करते हैं कि जो अन्याय मैं तुम्हारे प्रति कर गया,
पर तुलसी ठहरें मर्यादा के चितेरे। राम
का व्यक्तित्व मर्यादा पुरुषोत्तम का है - आदर्श और मर्यादा में बंधा हुआ है। एक
बंधे हुए व्यक्ति में वह गत्यात्मकता आ ही नहीं सकती जो रूढ़ियों को तोड़कर नयी राह
निर्मित कर सके। राम ने बंधी बंधायी लकीर पर चलना ही पसंद किया,
तुलसी की सीता में निश्चय की दृढ़ता तो
है पर वे भी मर्यादा में बंधी हैं। उनका निश्चय अनुनय विनय,
‘‘
राम भी सीता की इस मनोदशा को समझ जाते
कि सीता उनके बिना जीवित नहीं रह पायेंगी और अपने साथ ले जाने की आज्ञा दे देते
हैं।
तुलसी की सीता मर्यादा में बंधी,
‘
‘‘
बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना। अंध बधिर
क्रोधि अति दीना।।
ऐसेहु पति कर किएं अपमाना। नारि पाव
जमपुर दुख नाना।।
एकइ धर्म एक ब्रत नेमा। कायं बचन मन
पति पद प्रेमा।।’’
पातिव्रत्य का ही यह गुण रहा जिसने
महाकाव्यों में राम के परिपाश्र्व में सीता की उपस्थिति को सुनिश्चित किया। सीता
पति के लिए राजसुख का त्याग करती हैं,
आधुनिक काल में भी सीता का चरित्र
रचनाकारों को आकृष्ट करता रहा। किंतु समय के साथ उसमें फिर बदलाव आता है। यहां आकर
उनके चरित्र का रूपांतरण व्यक्तित्व में होता है। स्त्री सुधार आंदोलनों और बाहरी
जगत में बढ़ती भागीदारी तथा अपने समय की मांग के अनुरूप हरिऔधजी के
पर ये सारे चित्रण पुरुष रचनाकारों और
महाकाव्यों के हैं। एकतरफ तो पितृसत्ता के संस्कारों में ढ़ले ये वे रचनाकार हैं
जिन्होंने सायास और आयास दोनों ही तरह से स्त्री को हेय मानते हुए उन्हें साहित्य
और इतिहास से वंचित रखा था,
इन सारे महाकाव्यों के बीच यह
नागार्जुन हैं जो अपने प्रबंध काव्य ‘भूमिजा’ में,
‘‘
इकहरी मर्यादा का बोध / करे साडम्बर
नारी मेध
बने पुरुषोत्तम जग विख्यात / रचित
होगा फिर फिर इतिहास
हमारा क्या! हम तो है घास! / भूमि से
निकले समायेंगे वहीं
और भला जायेंगे हम क्या कहीं’’
यह तो सीता के चरित्र की पुरुषवादी
व्याख्या है। इन महाकाव्यों के समानांतर लोकगीतों की परम्परा चलती है जहां
स्त्रियों की वह मर्मवेदना प्रस्फुटित होती है जिसे सुनने और समझने को पुरुष
रचनाकार प्रस्तुत नहीं थे। सुमन राजे अपने ‘हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास’ में
लिखती हैं - ‘‘जहां पुरुष मौन हो जाता है वहां जन्म लेता है महिला लेखन।’’
बंद सामंती समाज में जहां व्यक्तित्व
की कोई प्रतिष्ठा न हो वहां लोगों के मनोभाव देवी देवताओं और राजा महाराजाओं के
माध्यम से प्रकट होते रहें। राम-सीता हों या शिव पार्वती - समय के साथ लोकजीवन ने
इन्हें आत्मसात कर लिया और ये लोकजीवन के पात्रों में परिवर्तित होते गये। ये
संस्कार गीतों के अनिवार्य हिस्सा बन गये। दोनों मिथकों में एक अंतर जरूर रहा।
अपनी वेशभूषा,
भोजपुरी,
राम रावण से सीता को छुड़ाने के लिए
अपना सबकुछ दांव पर लगा देते हैं और रीछ भालुओं या कहें साधारण जनजातीय लोगों की
सहायता से लंका पर आक्रमण कर सीता को छुड़ा लाते हैं पर लोकोपवाद के भय से उन्हें
स्वीकार करने से इंकार कर देते हैं और कहते हैं कि मैंने अपने ऊपर लगे अपयश को
हटाने के लिए तुम्हें छुड़ाया है। अग्नि परीक्षा के बाद स्वीकार की गयी सीता को वे
पुनः लोकोपवाद के कारण त्याग देते हैं और वन भेज देते हैं। वे प्रजा के प्रति अपने
कर्तव्य का निर्वाह करते वक्त यह भूल जाते हैं कि पत्नी के प्रति पति का क्या
कर्तव्य है। वस्तुतः कर्तव्य का निर्वाह तो पत्नी के हिस्से था,
लव और कुश से रामायण की कथा सुनने और
वाल्मीकि के द्वारा सीता के शुचिता की उद्घोषणा के बाद राम वाल्मीकि को पुनः सीता
को दरबार में बुलाकर अपनी शुचिता की शपथ लेने के लिए कहते हैं। करुणा के कवि
वाल्मीकि ने भी यह जानने की इच्छा प्रकट नहीं की कि सीता की इच्छा क्या है या राम
सीता को अब भी आदर पूर्वक क्यों नहीं बुला लाते?
सीता आती हैं और अपनी पवित्रता की शपथ
नहीं लेती हैं,
सीता का यह मौन अगर कहीं मुखरित है तो
लोकगीतों में। एक व्यक्ति के रूप में सीता के स्वाभिमान को सही अर्थों में इन
गीतों ने ही सहेजा है। लक्ष्मण द्वारा राम के आदेश से वन में छोड़कर चले जाने के
बाद सीता कलप रही हैं। ऐसे में वनदेवी उन्हें आश्रय देती हैं। एक दिन पुत्रों का
जन्म होता है। वे अयोध्या में अपने पुत्रों के जन्म का संदेश भिजवाती हैं। वे संदेश
तो भिजवाती हैं दशरथ को - यहां कथा में थोड़ा व्यतिक्रम मिलता है क्योंकि दशरथ की
तो पहले ही मृत्यु हो चुकी थी - देवर लक्ष्मण को,
‘‘
ललना,
लक्ष्मण के प्रति लोकगीतों में
संवेदना मिलती है। पर राम के प्रति जगह जगह
‘‘
ललना,
राम द्वारा सीता का परित्याग
महाकवियों की दृष्टि में एक आदर्शवादी परिघटना हो सकती है पर सीता के लिए यह उनकी
निष्ठा पर तुषारापात था,
‘‘
ललना,
यह सीता का आक्रोश जो संधि को
प्रस्तुत नहीं है।
राम यज्ञ का आयोजन करते हैं। पर बिना
अद्र्धांगिनी के भला यज्ञ कैसे पूरा हो! महाकाव्यों में राम द्वारा सीता की स्वर्ण
मूर्ति स्थापित करने की चर्चा आती है। पर लोकगीत दूसरा ही पक्ष रखते हैं जो रामकथा
के मानवीय पक्ष को सामने रखता है। यह गीत अलग अलग बोलियों में कई रूपों में उपलब्ध
होता है। कहीं राम तो कहीं कौशल्या सीता को मना लाने का आग्रह करती हैं। कौशल्या
और राम दोनों जानते हैं कि सीता उनके बुलाने से नहीं आयेंगी - अर्थात उनके मन में
कहीं तो एक अपराध बोध है। इसलिए कौशल्या सीता को बुलाने के लिए गुरु को भेजती हैं
क्योंकि सीता के लिए गुरु की आज्ञा को टालना कठिन होगा -
‘‘
ए माता,
‘‘
ए बबुआ,
ए बबुआ,
एक लोकगीत में कौशल्या के भूमि पर
लोटकर रोने की चर्चा मिलती है। कितना मार्मिक और जीवंत प्रसंग है यह जो दिखलाता है
कि सीता के जाने के बाद गृहिणी के बिना घर किस तरह सूना पड़ गया है। किसी महाकवि की
दृष्टि में यह सब नहीं आया है,
गुरु वशिष्ठ मुनि लक्ष्मण के साथ वन
में जाते हैं। लोकगीत में इस प्रसंग का बड़ा मार्मिक चित्रण मिलता है। सीता कुटिया
में बैठी अपने लम्बे केश बुहार रही हैं इतने में गुरु आते दिखते हंै। वे गुरु का
पूरे शिष्टाचार के साथ आवभगत करती हैं जिसे देखकर गुरु कहते हैं कि तुम तो गुण की
और शिष्टाचार की खान हो,
‘‘
ए सीता,
लक्ष्मण एक ऐसे पुरुष पात्र हैं जिनकी
संवेदना हमेशा सीता के साथ रही। राम द्वारा सीता के त्याग को वे सहज होकर स्वीकार
नहीं कर पाये थे। वे भी विनती करते हैं -
‘‘
भौजी,
जिस राम के लिए सीता महल के सुख त्याग
कर नंगे पांव वन के पथरीली राह पर चल पड़ी थीं,
‘‘
गुरु,
अगिया में राम मोंहि डारेनि लाइ भुजि
काढ़ेनि
गुरु,
ए गुरुजी,
सीत की यह मर्मवेदना आगे की पंक्तियों
में व्यक्त होती है जब वे कहती हैं -
‘‘
गुरुजी,
सीता के पास विगत दिनों की स्मृतियां
हैं - सुख की भी और दुख की भी। वे बीते दिनों का स्मरण कराती हैं -
‘‘
ललना,
मन पारीं ए रामजी ऊ दिनव,
ललना,
+ + +
मन पारीं ए रामजी मन पारीं,
ए रामजी एक रहीं गरुआ गरभ से त घर से
निकालसु हो’’
जिस अवस्था में स्त्री को सम्बल की
आवश्यकता होती है,
‘‘
ए गुरुजी,
सीता के मौन में निहित वेदना और
स्वाभिमान को कविगण लक्षित नहीं कर पाये,
‘‘
सीता धरती में गयी समाय कुछौ नहिं बोलिन
हो’’
महाकवियों की सीता के विपरीत लोकमानस
की यह सीता स्वाभिमान से भरी हुई हैं। कई कई गीतों में सीता का यह स्वाभिमान प्रकट
हुआ है।
सीता के शील,
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रचनाकार परिचय
डॉ सुनीता गुप्ता
बिहार विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में हिंदी विभागाध्यक्ष।
प्रकाशित पुस्तकें -
* रेणु का कथेतर साहित्य
* स्त्री चेतना के प्रस्थान बिंदु
* हिंदी कविता में स्त्री स्वर
* उड़ान (वैयक्तिक संस्मरण)
* आलोचना के समानांतर (प्रकाशनाधीन)
* पीछे छूटते हुए दृश्य (राजभाषा विभाग, बिहार द्वारा अनुदान के लिए स्वीकृत कहानी संग्रह)
* विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में आलेख व कहानियां प्रकाशित