साल ही तो बदला है: सोनाली मिश्र की नयी कहानी
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सोनाली मिश्र युवा हिन्दी कहानी की एक सुपरिचित नाम हैं। उनकी कहानियों में मानव मन की गुत्थियों की गहन पड़ताल रहती है। मानवीय संवेदनाओं और रिश्तों की अभिव्यक्ति में वह अक्सर स्त्री रचनाकारों के लिए अघोषित रूप से तय की गई सीमा रेखा का अतिक्रमण करती भी दिखाई देतीं हैं और इसलिए अक्सर उनके लेखन को बोल्ड और बिंदास जैसे ब्रैकेट में भी रख दिया जाता है।
मेराकी पर प्रस्तुत है उनकी ताज़ातरीन कहानी जहाँ प्रेम के बदलते स्वरूप और उसकी जटिलताओं के मनोवैज्ञानिक चित्रण के साथ आधुनिक स्त्री के अंतर्द्वंदों की झलक और उसकी मुक्ति की छटपटाहट भी है।
फिर से वह वहीं पर सट आई थी, जहाँ पर उसे
सटना नहीं था। फिर से उसने उसी को अपना तकिया बना लिया था, जिसे वह कुछ ही
पल पहले दूर फेंक आई थी। उसने देखा कि खिड़की से चांदनी का आना बदस्तूर जारी था, इस बात के
बावजूद कि बादल आसमान पर छाए थे। चाँद के लिए इतनी जगह वह छोड़े दे रहे थे कि वह
चांदनी को उसके कमरे में भेजता रहे। उसका कमरा? वह चौंक गयी? हाँ, उसका ही तो!
बल्लू तो उसके कमरे में ही सोने आता है। अपने कमरे में तो अपनी बदबूदार शर्टें उतार
कर फेंक आता है। जैसे दिन भर का गर्द उतार कर फ्रेश होने के लिए आ गया हो! फिर इस
कमरे में प्रेम गंध फैलती है। जिसने प्रेम किया है, उसने प्रेम गंध
भी महसूस की होगी। कितनी अपनी होती है प्रेम गंध? वह दो देहों को
एक कर देती है! दो देह कब एक हो जातीं है, यह तो खिड़की से
आती चांदनी भी महसूस नहीं कर पाती होगी!
अजंली यह सोचते सोचते कब नींद में चली गयी, पता न
चला!, मगर जैसे ही दो देह अलग होती हैं, उनकी देहों के
मध्य पसरे एकांत में नींद अपना बसेरा कर लेती है। अंजली इस एकांत की आदी थी। इस
नींद की आदी थी।
सुबह उसकी आँख खुली, तो उसने देखा कि उसका बल्लू और जमाने
के लिए बलदेव, ऑफिस के लिए तैयार हो रहा था। अंजली ने मोबाइल
उठाकर समय देखा। खिड़की से आती रोशनी यह इशारा कर रही थी कि अभी समय नहीं हुआ है।
और आज तो वैसे ही नए साल की छुट्टी ही होनी थी, तो फिर बल्लू
इतनी जल्दी तैयार क्यों हो गया है? उसकी समझ में
कुछ नहीं आया! मगर उसका मन नहीं हो रहा था कि वह उठे! उसने रजाई को फिर से अपने
शरीर पर डाल लिया। आँखें बंद कर लीं, जैसे रोशनी
देखना न चाहती हों। जैसे रोशनी से विरक्ति हो रही हो।
“सुनो, मैं निकल रहा
हूँ! आज कुछ काम है, शाम को मिलते हैं!” चादर में होती
हलचलों को देखते हुए उसने कहा
अंजली के पास आज कुछ काम नहीं था, तो उसने सोचा
था कि देर तक सोएगी और फिर कहीं घूमने जाएगी! कहाँ जाएगी? दिल्ली में
इतनी जगहें हैं, कहीं भी चली जाएगी! कौन सी जगहों की कमी है? बल्लू होता तो
वह खींच कर मॉल ले जाता, मगर उसे मॉल पसंद नहीं थे। उसे नकली
चमक पसंद नहीं आई कभी। बल्लू को भी कहाँ पसंद आती थी। यही जो नकली चमक की नापसंदगी
थी, वह दोनों को पास ले आई थी। कितना कुछ था उस रोशनी में जो उन दोनों के
दिलों में थी। कितना कुछ था उस एकांत में जो उन दोनों की हथेलियों में था।
अंजली ने हिंदी से बीए करने के साथ ही टूर्स एंड ट्रेवल्स में
डिप्लोमा किया था और अब फ्रीलांसिंग कर रही थी। उसे हिंदी की ताकत पता थी। मगर उसे
यह भी पता था कि अकेली हिंदी और किताबो की हिंदी उसे रोजगार नहीं देगी। इसलिए उसने
टूर्स एंड ट्रेवल्स में डिप्लोमा भी ज्वाइन कर लिया था।, तभी ठान बैठी
थी कि वह दिल्ली ही जाएगी। अम्मा बाबा ने कितना कहा कि यहीं कहीं मास्टरी कर लो, मगर उसे तो
दिल्ली आना था। कविता कहना था।
कविता कहने के लिए दिल्ली? उसकी सहेलियां
हंसती!
और फिर अम्मा की सलाहों और नसीहतों की टोकरी के साथ दिल्ली आ गयी थी।
हिंदी में बीए में एडमिशन होना बाकी विषयों की तुलना में सरल था। दिल्ली के सबसे
अच्छे कॉलेज में उसका एडमिशन हो गया था। बाबा एक कमरा दिलाकर सामान सेट कराकर और
तमाम बातें बताकर चले गए थे और फिर अम्मा रहने के लिए आ गईं थीं।, तो चली आईं थीं, संतुष्ट होकर।
और वह लग गयी थी, पढ़ाई में! उसके सपने थे। सपने क्या
थे, पोटली थी सपनों की! तमाम कार्यक्रमों में भाग लेती थी। आंदोलनों में
भाग लेती और हाँ कविता करती! कितना प्यार है उसे कविता से, यह उसे तब समझ
में आया था, जब उसने कॉलेज में कविता पढ़ना शुरू किया।
“हे स्त्री,
तुम्हारी न ही कोई है पितृभूमि,
न ही कोई मातृभूमि,
तेरे साथ हैं तेरे विचार,
तेरा द्वन्द,
तेरी आत्मा,
तेरे विषय, तेरा विषाद!
तू, नहीं मिथ्या आह्लाद का विषय,
छद्म परिहास का विषय,
तू नदी अपनी धुन की,
तू स्वर अपनी देह का”
यह कविता उसकी कई बार मंचित की गयी थी।
ऐसे ही एक फेस्ट में टकरा गयी थीं दो निर्दोष आँखें! वहीं आँखें, शायद जिनका
इंतज़ार उसे था। वहीं आँखें जिनके मोह में वह न फंस सके, इसलिए उसकी
अम्मा साल भर तक रुक गयी थीं! यह वही आँखें थीं, जिनका साथ वह
शायद चाहती थी।
उन आँखों में एक कविता थी। वही कविता जिसे वह गाती रही थी।
“कविता बढ़िया कर लेती हैं आप?” उसने आकर पूछा
था
“जी, बस ऐसे ही, शौकिया!” वह
सकुचा गयी थी। वह फेस्ट जैसे उसी तक सिमट गया था। वैसे भी वह बहुत ज्यादा किसी से
बातें करती नहीं थी। दोस्त ज्यादा थे नहीं।
वह बस खुद में ही सिमटी हुई थी। उस दिन उससे मिलकर और खुद में सिमटने
का मन हुआ था। बलदेव! हां, बलदेव! उसके जैसे ही छोटे शहर का
लड़का था। एक्टिविस्ट टाइप का! वह एक्टिविस्ट नहीं थी। वह बस कविता लिखती थी। कविता
लिखने वाले एक्टिविस्ट होते हैं क्या? बलदेव के दिल
में स्त्री के लिए सम्मान था। वह जिस गाँव से आता था। उस गाँव में गरीबी अभी भी
बहुत थी। बुखार फैलता तो फैलता ही जाता, छोटी जोत का
खेत था उसके बाबा का। सो भी गिरवी रखा हुआ! वैसे भी बाबा चारपाई और लकड़ी के बाकी
सामान बनाने का
“यह तो गनीमत है दोस्तों, कि मैं अपने
माँ बाबा की इकलौती संतान हूँ, कुछ नहीं हुआ तो उन्हें यहीं ले
आऊँगा! और कुछ हो गया तो जमीन छुड़ा कर उनके लिए वहीं घर बना दूंगा। अपनी जड़ें कोई
छोड़ता है भला?”
वह अपने गाँव की बातें बताता और अपने घर की बातें बताता तो साथी हंसने
लगते। कुछ की आँखों में हौसला होता तो कुछ की आँखों में उपहास।
बलदेव का कमरा भी खिड़की एक्सटेंशन में था। धीरे धीरे वह साथ साथ जाने
कॉलेज के लिए जाने लगे। और साथ साथ दिल्ली हाट की सैर करने लगे। नए नए मॉल बनते जा
रहे थे, और दिल्ली के गाँव भी धीरे धीरे मॉल संस्कृति में ढलते जा रहे थे। मॉल
जाना कभी भी अंजली को पसंद नहीं आया। वह तो क़ुतुब मीनार चली जाती, या फिर पुराने
किले में बैठी बैठी इमारतों से बातें करती। वह जानना चाहती थी कि आखिर क्या हुआ
होगा इन दीवारों का, जब वह ढही होंगी। दीवारों के ढहने का
दर्द वह महसूस करना चाहती थी।
मगर जब से बलदेवने उसके कमरे पर आना शुरू किया तो उसकी शामें कमरे में
बीतने लगीं। वह लोग बातें करते। बातें जो शुरू होतीं गरीबी से, बातें जो शुरू
होतीं भ्रष्टाचार से और बातें जो शुरू होतीं कि सपने क्या हैं?
बलदेव को पढ़ने का जूनून था। वह पढता, और रोज़ उसके
साथ चर्चा करता। वह भी चर्चा करना चाहती थी, मगर चर्चा
किसकी करती? बातें करने बैठती तो बलदेव की बातें जहां दास
कैपिटल आदि पर जातीं तो वहीं उसकी बातें कहीं और जातीं। मगर फिर वह लोग मार्क्स के
स्त्रियों के बारे में जो विचार थे उन पर बातें करते। कितना कुछ था बातें करने के
लिए। शाम रात में बदल जाती। मगर बाते खत्म न होतीं।
, तो उसके पास
चार पैसे आ जाते थे, मकान मालकिन के लिए कुछ खरीद लाती
थी। और बच्चों को फ्री में पढाती भी थी तो बहुत ज्यादा पाबंदी नहीं लगाई थी। वैसे
भी उस बड़े मकान के बाहर की तरफ एक कमरा अलग से था इसलिए ज्यादा डिस्टर्बेंस नहीं
था। उन दोनों की बातें चलती रहतीं।
बलदेव को सिगरेट पीना पसंद था, सिगरेट पीने की
नकल करते हुए कहता “देखना, एक दिन यह सिस्टम बदलेगा, और पक्का
बदलेगा! नहीं तो हम जैसों के बाबा लोग हमें केवल इसी लिए बाहर पढने भेजेंगे कि
दहेज़ पढ़े लिखे लड़के के लिए ज्यादा मिलेगा! मुझे इस कैद से भागना है!”
वह खूब हंसा! अंजली भी हंसी। उसे लगता था कि सिगरेट पीकर ही होशियार
दिखा जा सकता है। “सुन, मैं मिश्रा प्रोफ़ेसर के सिगरेट के
छल्लों जैसे सिगरेट के छल्ले निकालना चाहता हूँ। फंसे हुए, आपस में धंसे
हुए! पता ही न चले कि पहले कश का कौन सा है और दूसरे कश का कौन सा?”
“ठीक है, मैं ले आती
हूँ!” उसने कहा था
“नहीं! अपनी ही कमाई पर अपने शौक! पहले कार
खरीदूंगा। उसके बाद सिगरेट पियूंगा, उसकी खिड़की से
झांकते हुए। धुंआ बाहर निकलेगा। मेरी गरीबी और देश की अव्यवस्था इसी तरह छल्ले में
बाहर भाग जाएगी।”
वह फिर खिलखिला उठती।
“तुम व्यवस्था में बदलाव कैसे लाओगे? यह सब तो इतने
सालों से ऐसा ही चलता आ रहा है। देखा नहीं है क्या हर जगह? हमें हारना ही
पड़ता है। ऐसा लगता है कि हमें ही एक दिन फूलन देवी जैसे हथियार उठाने ही होंगे!”
वह थोडा गंभीर हो जाती।
“ऐसा लगता है कि नया काम शुरू करने में जितनी
परेशानी भारत में आती है उतनी कहीं न आती होगी! हम लोग अपने गाँवों से इतनी दूर
केवल किसी के ऑफिस में कुछ हज़ार की नौकरी करने तो नहीं आए हैं न! अपनी पहचान बनाने
आए हैं! मगर यहाँ पर अंग्रेजी बोलने वालों का बोलबाला है! सब कुछ तो जैसे उनके ही
पास है!”
अंजली की आँखों में आंसू से तिर आए थे। सफ़ेद डोरे लाल डोरों में बदल
गए थे।
बलदेव ने चाय का कप रख दिया। और सोचने लगा कि वह क्या करेगा? उसका भरोसा था
कि उसके जैसे युवा एक न एक दिन भ्रष्टाचार को तो ख़त्म करेंगे ही। यह भ्रष्टाचार ही
तो है, जिसके कारण हर घर में पानी नहीं पहुँच पा रहा है। आज भी उसके जैसे कई
युवाओं का आधा जीवन पहले पानी की लाइन में और फिर आधा जीवन राशन की लाइन में खत्म
हो जाता है। अंजली ने अपनी राह चुन ली है। मगर वह अभी तक सोच नहीं पाया था। नारे
लगाने तक तो ठीक था। कभी कभी बड़े प्रदर्शन में जाने के लिए पैसे भी मिल जाते थे।
गरीबों को न्याय दिलाने वाले एनजीओ के साथ काम कर रहा था। जिनका पहला लक्ष्य था इस
पूंजीवादी व्यवस्था से लड़ना। कई बार कुछ वह लिखकर देता था, तो कई बार किसी
घटना के होने पर फैक्ट चेक करने जाता था। चाहे लड़की का बलात्कार हो या फिर हत्या, मूल में
भ्रष्टाचार या फिर यही पूंजी होती थी। उसे लगता कि कुछ लोगों के पास ज्यादा पैसा
होने और कुछ लोगों के पास कम पैसा होने के कारण ही इतना गलत हो रहा है। फिर उसे
ध्यान आता कि उसके बाबा भी तो आजकल के क्राफ्ट के आगे नहीं टिक पा रहे हैं। नहीं
तो उनके जैसी चारपाई और लकड़ी का बाकी सामान आसपास के कई गावों में बनाने वाला नहीं
है। कई बार उसे लगता है कि वह अपने उसी काम में चला जाए! जितना दिमाग वह इस
व्यवस्था परिवर्तन में लगाता है, उतना दिमाग वह अपने बाबा के साथ
मिलकर उस क्राफ्ट को निखारने में लगाए! मगर उसे पता था कि गाँव की व्यवस्था उसे
पीस देगी!
इधर उसे अंजली को देखकर भी कुछ कुछ होने लगा था। अब वह उसे देखकर सहज
नहीं रह पाता था। पहले तो वह रात तक गप्पे मारने के बाद दो तीन बजे उसकी बालकनी
में आकर सो जाता था, मगर अब वह घर आ जाता! अब उसे देखकर
उसका मन होता कि वह घर न जाए! उसे अंजली खींच रही थी अपनी तरफ। मगर क्या अंजली भी
ऐसा कुछ सोचती है? उसने सोचा!
“हाँ क्यों नहीं! अगर कुछ सोचती नहीं तो इतने सहज
होकर बुलाती तो नहीं!”
“मगर पहले कुछ बन जाएं फिर ही उससे कहेंगे कुछ!”
“और कुछ जो उससे पहले हो जाए? मने उसकी तरफ
से भी पहल हो तो?”
बलदेव के दिमाग में सवाल अपनी रफ़्तार से चल रहे थे।
अंजली का बीए का आख़िरी साल था। अब तक उसका फ्रीलांसर का काम चल निकला
था। जो आर्टिकल लिखती थी उन्हें पढ़कर ऐसा लगता जैसे कोई गद्य कविता ही लिख रहा हो।
हाँ गद्य कविता ही होता है।
ऐसे ही एक दिन कविता की तरह बलदेव ने, जिसे अब वह
बल्लू कहने लगी थी। उसके हाथ पर अपना हाथ रख दिया था। उस शाम उसने कढ़ी चावल बनाए
थे। उसके और बल्लू दोनों के फेवरेट! मूढ़े पर थाली रख ली और नीचे दरी बिछा कर बैठ
गए। दोनों के सामने एक किताब थी। मशहूर हस्तियों के प्रेम पत्र! और सामने आ गया शायर
दाग का खत मुन्नी बाई के नाम। दोनों साथ साथ पढ़ने लगे,
बाई जी सलाम शौक!
गजब तो यह है कि तुम दूर बैठी हो। पास होती तो सैर होती। कभी तुम्हारे
चारों ओर घूमता और शोला बन जाता और कभी तुम्हें शमा करार देता और पतंगा बनकर
कुर्बान हो जाता.....................।।।। खुदा के लिए जल्दी आओ या आने की तारीख
की तय करके खबर दो। दिन रात इंतज़ार में गुजरते हैं। .......।।। ये भयानक काली
रातें, यह अकेलापन!” न जाने कब वह बीच की दूरी मिट गयी थी और मूढा एक तरफ पैर
से सरका दिया। किसने सरकाया, यह दोनों में से किसी को नहीं पता।
कढ़ी चावल का आख़िरी कौर किसने खाया, यह नहीं पता, मगर देह का
स्वाद घुल गया। बलदेव ने उसके चेहरे को अपने चेहरे के पास लाते हुए कहा “और फिर
दाग ने लिखा क्या कहूं, क्यों कर तड़प तड़प कर सुबह की मूरत
देखना है? यकीन मानना ऐसे तड़पता हूँ, जैसे बुलबुल
पिंजरे में! मेरे खतों का जबाव देना जरूरी है! और बल्लू पूछ रहा है अंजली क्या जो
लेटर मैंने अभी तक लिखे नहीं, उनका जबाव हाँ में मिलेगा!”
अंजली ने उसे कसकर थाम लिया, जैसे सब कुछ कह
दिया हो!
उस रात सब कुछ बह निकला! दो सालों से जिस देह को दूर दूर से देखकर
परिचित हो गए थे, कि कहाँ तिल हो सकता है, डिम्पल में
कितना गहरा गड्ढा होता है, आज की रात दोनों महसूस कर रहे थे।
सुबह उस दिन बहुत खूबसूरत हुई थी। अभी तक होता यह था कि रात में खाना
खाने के बाद गप्पे आदि मारने के बाद या तो बल्लू चला जाता था या फिर वह बाहर
बालकनी में सो जाता था। मगर उस रात बालकनी का वह कोना खाली ही रह गया।
जल्दी ही अंजली ने नया फ़्लैट किराए पर ले लिया था। उसका काम चल निकला
था और सरकार की योजनाओं
बलदेव ने अभी आगे कुछ और करने का फैसला किया।
“क्या सोचा है?” अंजली ने उसे
चाय पकड़ाते हुए पूछा
“कुछ नहीं! इनफैकट अभी तो कुछ भी समझ आ नहीं रहा।
यह अजीब समय है अजंली!” वह कुछ हताश सा लग रहा था।
“ऐसा क्यों?”
“मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ। मैं यह नहीं समझ
पा रहा हूँ कि मैं क्या करूं? केवल बीकॉम करके मैं अकाउंटेंट हो
सकता हूँ, मगर मेरी मंजिल तो वह नहीं है। जिस एनजीओ में हूँ, वह ठीक ठाक
पैसा देते हैं, मगर, कभी कभी मैं
हैरानी में पड़ जाता हूँ! उनके कई रूप देखकर?”
“मतलब?”
“मतलब वह लोग अमेरिका को पूंजीवादी देश कहते हैं!
कहते हैं कि अमेरिका का विरोध करना चाहिए। क्योंकि वह पूरे विश्व में आतंकवाद फैला
रहा है। वह जानबूझकर मिडल ईस्ट को बदनाम कर रहा है। और वह जानबूझकर इस्लाम को
बदनाम कर रहा है। वह वर्ल्ड ट्रेड टावर पर हमले का उदाहरण देते हैं। मगर कई
अधिकारियों के बच्चे उसी अमेरिका में जाकर पढ़ रहे हैं और नौकरी भी कर रहे हैं। हम
यहाँ पर अमेरिका के राष्ट्रपति के आने पर काला झंडा लहराते हैं, पुलिस की लाठी
खाते हैं, और अपने खिलाफ एक दो मुक़दमे भी लाद लेते हैं, वहीं लोग जो
हमें यह करने के लिए उकसाते हैं, उनके सभी के बच्चे उसी व्यवस्था में
जाकर खप जाते हैं, जिसका उनके मातापिता विरोध करते हैं।
वह जिस मशीनीकरण के खिलाफ यहाँ पर बातें करते हैं, उसी मशीनीकरण
या कहें तकनीकों में अपने बच्चों की सफलता देखकर उसी तरह तालियाँ बजाते हैं, जैसे बंदरों को
देखकर मदारी ताली बजवाता है। मैं यह देखकर हैरान हूँ! मेरे दिल में एक बेचैनी उठती
है। यह बेचैनी बहुत तेज है! मैं छोटे छोटे टुकड़ों में बंट जाता हूँ।”
अंजली ने उसके माथे पर आए पसीने को पोंछ लिया। वह चाहती थी कि वह भी
कहे कि हाँ साहित्य में भी ऐसे लोग हैं, जिनकी कथनी और
करनी में तमाम अंतर है। मगर वह अभी बलदेव को सुनना चाहती थी। वह चाहती थी कि वह
अपना दिल खोलकर एकदम रुई के फाहे की तरह हल्का हो जाए!
बलदेव अंजली की गोद में लेट गया। यही जगह उसे सबसे पसंद थी। उसे सहारा
देती थी। उसे लगता था कि वह कहीं भी हारे, यहाँ जरूर
जीतेगा। पर हर चीज़ हार और जीत से परे होती है। जैसे अंजली की यह गोद। अंजली की
उँगलियाँ, जो उसके माथे पर गाहे बगाहे आ जाती हैं। अंजली के होंठ जो जब उसके
होंठों से बाते करते हैं, तो ऐसा लगता है जैसे तार सप्तक बज
उठा हो। जैसे साक्षात रति ही सामने आ गयी हो। बलदेव ने उसका हाथ कसकर पकड़ लिया। और
छिपा लिया वह ख़त जो उसके बाबा ने भेजा था कि जमीन को जैसे भी हो छुड़ाना ही है।
बीकॉम होते ही बलदेव की नौकरी उसी एनजीओ में लग गयी थी, जिसके लिए वह
वोलंटरी काम करता था। दिन दिन बार वह खातों में सिर खपाता और कमरे पर जाते ही उसका
दिल होने लगता कि अंजली के पास चला जाए। खाते कुछ और कहते थे और उस एनजीओ का विजन
और मिशन कुछ और, जो उन्हें दिया जाता था। क्या दो चीज़ों में इतना
अंतर हो सकता है? क्या दो एकदम विपरीतार्थी हो सकते
हैं?
अंजली का घर अब दो कमरों का फ़्लैट था। जो उसने अपने काम के सिलसिले
में लिया था। कब और कैसे उनमें से एक कमरा बलदेव का हो गया, किसी को पता न
चला। अंजली ने बाज़ार से जो काम उठाना शुरू किया था, उसे उसमें मज़ा
आने लगा था, उसे वैसे ही लिखना पसंद था, इसने उसे एक नई
दिशा दे दी। अम्मा बाबा को हर महीने पैसे भी भेजने शुरू कर दिए थे। टूर्स एंड
ट्रेवल्स में डिप्लोमा के कारण उसे यह पता चल गया था कि बाज़ार को कैसी हिंदी पसंद
है। यूट्यूब पर उसकी कविताओं का चैनल भी चल रहा था। कुल मिलाकर उसका काम धीरे धीरे
अपनी रफ़्तार पकड़ रहा था।
बलदेव के साथ बैठकर उसकी शामें कट रही थीं। अब शामें रातों में बदल
गयी थीं। बलदेव अब न ही अपने कमरे में सोने जाता और न ही अंजली के घर में दूसरे
कमरे में। वह उसीकी रजाई में उसीके लम्हे चुरा लेता। इतना बुरा भी नहीं था सब कुछ!
बहुत कोमलता से प्रेम करता था। आहिस्ता, आहिस्ता! जैसे
वह केवल प्यार देना ही जानता हो। दिन भर जो वह मूल्यों के भटकाव में भटकता, रात में कोई
भटकन नहीं, कोई उलझन नहीं थी। उसके लिए अंजली केवल एक शरीर
नहीं थी, बल्कि वह उसकी आत्मा में छिपी वह कबूतरी थी जिसे वह हर कीमत पर बचाना
चाहता था। इसलिए वह भरसक कोशिश करता कि अंजली को वह हमेशा सुख दे।
अम्मा का हर छ महीने पर आना बदस्तूर जारी था। जब फसलों का मौसम नहीं
होता तो वह आ जातीं। तब अंजली का काम बढ़ जाता था। उसे बलदेव का वह पायजामा छिपाकर
रखना पड़ता था, और उसके साथ ही सिगरेट के पैकेट भी, एशट्रे भी!
“तुम्हें पता अंजली, इस बार हमारे
ऑफिस वाले दीवाली पर क्या गिफ्ट दे रहे हैं हम लोगों को?”सितम्बर की एक रात बलदेव ने अंजली को जैसे
नेपथ्य में झांकते हुए बताया
“उहूं! नहीं तो! मैं तो कहीं नौकरी करती नहीं, तो मुझे क्या
पता होगा कि दीवाली पर यह सब भी चलता है!”
“न न, चलता है न!
पूरा एक बजट में आइटम होता है! मैंने सजेस्ट किया था कि हमें गाँव में जो लोग कुछ
स्पेशल सजावट के सामान बनाते हैं,उन्हें बल्क ऑर्डर देकर हम अपने हिसाब से बनवा सकते हैं और एक हिंदी
की किताब दे सकते हैं। मगर जब मैंने यह सुझाव दिया तो सब हंसने लगे। और उन्होंने
कहा कि “किसे गावों के सामानों में और हिंदी में इंटरेस्ट है। दुनिया पेट्रो-डॉलर
से चलती है, बैलगाड़ी से नहीं। पेट्रो-डॉलर के जमाने में अगर
हम बैलगाड़ी या तांगा के समय का गिफ्ट देंगे तो क्या होगा? हम इतने दोहरे
क्यों हैं अजंली? अपनी जमीन, अपनी मिट्टी के
लिए काम करने का दावा और अर्थव्यवस्था में योगदान बाहरी अर्थव्यवस्था को! गांधी जी
के नाम पर आन्दोलन करते हैं और गांधी जी के उस सपने को एकदम भूल जाते हैं जो वह
देखा करते थे। गांधी जी ने ही अपनी सभ्यता के बारे में कहा था कि जो सभ्यता
हिन्दुस्तान ने दिखाई है, उसके आसपास दुनिया में कोई नहीं पहुँच
सकता। जो बीज हमारे पुरखों ने बोए हैं, उनकी बराबरी कर
सकें, ऐसी कोई चीज़ देखने में नहीं आई। रोम मिट्टी में मिल गया, ग्रीस का सिर्फ
नाम ही रह गया, मिस्र की बादशाही चली गयी। मगर गिरा टूटा जैसा
भी हो, हिन्दुस्तान आज भी अपनी बुनियाद में मजबूत है।”
“तुम बहुत सोचते हो बल्लू! अगर तुम्हें ठीक नहीं
लगता है तो तुम नौकरी बदल लो!” कहते हुए अंजली ने करवट ली!
“क्या नौकरी बदलने से सब कुछ हो जाएगा? गांधी जी कहा
करते थे कि हम पश्चिमी जाल में फंस गए हैं, और हमें उस जाल
को तोडना है, अपनी चेतना को मजबूत करना है। मगर अंजली यहाँ पर
तो हम अपनी मिट्टी की सेवा करने के लिए उसी जाल से पैसा लेते हैं, जिस जाल में
फंसने के लिए गांधी जी ने मना किया था। मैं जितना सोचता जाता हूँ, मेरा सिर फटता
जाता है। यह सब दोहरी दुनिया है। कहने के लिए गांधी जी, और करने के लिए? उनका सपना
तोड़कर ऐसी किताब दीवाली पर गिफ्ट दे रहे हैं जिसमें अमीर कैसे बनें के तमाम तरीके
सुझाए गए हैं। मुझे अमीर बनने से दिक्कत नहीं है, दिक्कत है कि
जब ऐसी किताबें लिखने वाले हमारे यहाँ भी हिंदी भाषा में मौजूद हैं, तो उस लेखक की
किताब क्यों खरीदना जो हमारी मिट्टी का नहीं है! अमीरी पश्चिम के हिसाब से अलग है, हमारे हिसाब से
अलग! अगर हमें पश्चिमी विचार के हिसाब से ही अमीर होना है तो यह देशी लेबल की क्या
जरूरत?”
अंजली उसके बालों में उंगली फिराती रहती। मगर वह बार बार उसके विचारों
से सहमत होती हुई खुद पर गर्व करती कि उसका चयन गलत नहीं है। उसे ऐसी ही रीढ़ वाला
प्रेमी चाहिए था। उसे ऐसे ही विचार रखने वाला प्रेमी चाहिए था। फिर हंसती, और सोचती कि
क्या प्रेम में विचार मायने रखते हैं? हाँ, नहीं तो देह तो
सभी की एक सी ही होती है।
दीवाली पर वह घर चलीगयी थी। अम्मा ने कई बार बुलाया था और फिर वह कई
दिनों से गयी भी नहीं थी। काम इन दिनों उसके पास बहुत था और अब उसने अपना एक छोटा
सा ऑफिस लेकर दो तीन लड़कियों की टीम भी बना ली थी। सभी ने एक हफ्ते की छुट्टियाँ
ले ली थीं।
इस बार अम्मा ने उस पर शादी का काफी दबाव बनाया था। बनाती भी क्यों
नहीं! अब तो वह शादी की उम्र की हो गयी थी। “देखो, अगर तुम्हें
कोई पसंद है तो बता दो, नहीं तो हमारे हिसाब से कर लो!” बाबा
ने उसके सामने शर्त रख दी थी। “बलदेव अच्छा लड़का है। अगर तुम उसके साथ शादी करने
के लिए तैयार हो तो हमें दिक्कत नहीं है। अपनी ही जाति का है।” अम्मा ने उसका हाथ
दबाते हुए कहा
हर रिश्ते में यह दबाव आना ही होता है। शादी तो करनी ही है। कब तक
प्रोटेक्शन लेकर सारे काम होंगे। अब उसका काम भी ठीक ठाक चल ही रहा है, तो शादी भी कर
ही लेनी चाहिए। बलदेव से बात करेगी इस बार वह!
मन में बहुत कुछ सपने लेकर वह घर से दिल्ली आई थी। बलदेव शाम को उससे
मिलने आया। आते ही उसने उसके गले में बाहें डाल दीं, और होंठों को
उसके होंठों के पास ले गया। वह देखना चाहता था कि इतने दिनों में क्या वही इस
रिश्ते को नाम देने के लिए व्याकुल हुआ है या फिर अंजली ने भी कुछ सोचा है? अंजली सोच रही
थी कि क्या शादी की बात वह आज ही करे या रुके? न जाने किस
ऊहापोह में हवा दोनों के बीच आती थी। कुछ घड़ियों तक एक दूसरे के होंठों को इसी तरह
देखने के बाद, अंजली ने अचानक से पूछा “चाय पियोगे?” शायद यह असहजता
से बचने के लिए था या किसी और के लिए, वह समझ न पाई!
दोनों के बीच उतनी ही असहजता ने पैर पसार लिए थे जितनी असहजता बिखरे
हुए क्षणों को समेटने में होती है। अंजली समझ नहीं पाई कि आखिर ऐसा क्यों हुआ है? उसकी बाहों से
आज़ाद होते ही उसने देखा कि बलदेव के बाल आज कुछ ज्यादा ही तरतीब से हैं, उसकी देह से
उसकी देहगंध नहीं बल्कि किसी और तरह की गंध है। वह तो किवड़ा की तरह महकता था, फिर आज? खैर उसने अपने
दिमाग को झटक दिया। क्या क्या सोचती रहती है वह भी!
वह जल्दी से चाय बनाकर ले आई।
“तुम जानती नहीं हो अंजली, इस बार मैंने
तुम्हें कितना मिस किया?” अंजली कुर्सी पर बैठी तो वह उसके
पैरों में बैठ गया। उसके पैरों को उसने अपनी गोदी में रख लिया और सहलाने लगा। ओह, यही स्पर्श! इस
स्पर्श की आकांक्षा में तो वह चल सकती है अथक! अंजली ने अपनी आँखें बंद कर लीं, जैसे कि आँखें
खोलने से सब कुछछूट जाएगा। यही रह जाएगा सब कुछ! जो कुछ क्षण पूर्व होंठों के बीच
असहजता थी, उसे यह स्पर्श दूर कर रहा था। रात को बलदेव की
तरफ से पार्टी थी और उसने पिज़्ज़ा मंगवाया था। अंजली को अजीब लगा क्योंकि उसे
पिज़्ज़ा जरा भी पसंद नहीं था। कहता था कि हमारे देसी फ़ूड बिजनेस को यह सब नुकसान
पहुंचा रहे हैं। खाने पीने से ही इंसान के विचारों का निर्माण होता है, और अगर खाएगा
ही विदेशी, तो वह देश से कैसे प्यार कर पाएगा? मगर उसने
ज्यादा सोचा नहीं क्योंकि अक्सर उसके ऑफिस में पिज़ा पार्टी होती ही रहती थी।
अगले दिन से वह काम में बिजी हो गयी क्योंकि प्रोजेक्ट्स आ रहे थे और
वह अपनी टीम के साथ काम में बिजी हो गयी। कभी कभी उसे पूरी रात भी काम करना होता
था। शादी की बात आज कल , आज कल में टलती जा रही थी। अब बलदेव
का भी आना रात को थोडा कम हो रहा था। वह देखता कि अंजली बिजी है तो वह चाय पीकर ही
चला जाता। कौन शादी की जल्दी थी अभी!
अंजली के माँ बाबा फोन करके पूछते तो वह काम सेटल होने की बात कहती।
“बाबा, मैं आपकी बात
समझती हूँ, पर मुझे अभी काम सेट करना है। इस कोम्पेटीशन के
दौर में मुझे अपनी कम्पनी एक बार बना लेने दीजिए, मैं अगले ही
दिन शादी कर लूंगी। और बलदेव से भी बात करती हूँ!”
उसे पता था कि अभी भी उसके पास इतने पैसे नहीं हो पाए हैं कि जमीन
छुड़वा पाए। दो बहने और भी हैं। बाबा अब राशन की दुकान करे हुए हैं।
समय बीत रहा था और इस बीतते समय में वह देख रही थी कि बलदेव बदल रहा
है। इतनी जल्दी तो लोग पार्टी नहीं बदलते, जितनी जल्दी वह
बदल रहा था। उसकी शामें अब मॉल में बीतने लगी थीं। हौज ख़ास विलेज में बीतने लगी
थीं। जब भी वह उसे फोन करती तो वह या तो खेल गाँव की तरफ जा रहा होता या फिर वह
हौजखास विलेज की तरफ जा रहा होता ड्रिंक करने के लिए। “बियर तो अपने कमरे पर भी पी
सकते हो,” वह मेसेज करती
उधर से कोई जबाव न आता,
अंजली का मन होता कि वह उसके साथ बैठकर गांधी जी की बातें करें, लोहिया जी की
बातें करें, उसी तरह वह मार्क्स ने जो औरतों को आज़ादी की बात
की कही थी वह बातें करे! वह बातें करे कि कैसे मार्क्स ने कहा था कि स्त्री श्रम
करे, और व कहते थे कि अगर स्त्रियाँ घर से बाहर श्रम करेंगी तो वह नियंत्रक
की स्थिति में आएंगी। उनपर नियंत्रण करना कठिन होगा और परिवार संस्था को भी सोचना
होगा।
वह पहले की तरह ही बातें करना चाहती थी, फैज़ की, कबीर की, तुलसी की! सभी
की!
वह चाहती थी कि दिल्ली की रूमानी शामों को वह उनकी बातों के साथ और
पुराने साहित्यकारों के प्रेम को बांचें। वह चाहती थी कि वह इकबाल का अतिया फैजी
के नाम लिखा गया खत पढ़े। वह इंग्लैण्ड के उस यात्री और इतिहासकार का अंतिम पत्र
पढ़े जो उसने अपनी पत्नी एलिजाबेथ को भेजा था। उसे मौत की सजा इसलिए सुना दी गयी थी
क्योंकि वह राजा के लिए सोने की खान खोजने में असफल रहा था।
अंजली को लगता कि कहीं वह भी तो बलदेव के लिए कुछ खोजने में असफल तो
नहीं हुई है, जिसके कारण वह उसे इस तरह उपेक्षित मौत दे रहा
है। फिर वह सिर झटक देती। मगर 31 दिसंबर की रात कुछ ऐसा हुआ जिसकी
उसने उम्मीद नहीं की थी। बलदेव ऐसा करेगा उसने सोचा न था।
उस शाम वह बहुत दिनों के बाद उसके पास आया था। दीवाली से नए साल के
बीच केवल दो ही महीने का तो अंतर था! यह दो महीने क्या सब कुछ उलट पुलट करने के
लिए काफी थे। पिछले इतने वर्षों का साथ केवल इन दो महीनों में ही लड़खड़ा जाएगा? अंजली कई बार
सोचती थी। मगर उसके पास शक करने का कोई कारण नहीं था। बलदेव के जीवन में उसके
अलावा कोई लड़की नहीं थी, यह वह जानती थी। उसके सोशल मीडिया का
पासवर्ड उसके पास था। वह मेसेंजर आदि देख सकती थी। मगर कुछ दिनों से वह देख रही थी
कि बलदेव ने जो पेज लाइक किए थे, वह वैचारिक न होकर मार्केटिंग से
जुड़े हुए थे। उनमें जर्मनी, अमेरिका आदि के कुछ प्रोडक्ट्स के
पेज थे। वह पेज, जिनकी वह पहले आलोचना किया करता था। उसकी
पोस्ट्स भी अब जीवन में कुछ बड़ा करना चाहिए जैसी हो गयी थीं।
अभी तक तो अंजली ने उन पर ध्यान नहीं दिया था। मगर इस बार जब वह आया
तो उसकेहाथ में एक थैला था। उस थैले पर जो लिखा था उसे देखकर अंजली चौंक गयी! इतना
महंगा ब्रान्ड? और वह भी केवल पजामे के लिए? उसे महंगे
ब्रांड से कोई दिक्कत नहीं थी, मगर जब उसे लगता था कि यहीं के या
फिर बांग्लादेश के गारमेंट हाउस में अधिकतर यह सारे कपडे बनते हैं और फिर वहां से
यहाँ आकर उनके ब्रान्ड के साथ बिकते हैं, तो उसे ऐसे
खर्च अजीब लगते थे। मगर उसने कुछ कहा नहीं! वह चाय बनाने लगी थी। आज ही दो बड़े
प्रोजेक्ट्स का पैसा आया था, आज उसका मन था पार्टी करने का। उसने
चाय खोलने रख दी। उतनी देर में बलदेव कपडे बदलने चला गया था।, ध्यान से! हाँ
ओहम ही तो था? और यह तो बीस हज़ार से कम का होगा भी नहीं। उसने
फटाफट से उसका फोटो लिया और गूगल इमेज में डाला। हाँ, ओहम का ही था
और वह भी पच्चीस हज़ार का! मगर उसके पास इतने पैसे? और इतने पैसे
केवल पर्स के लिए? इतने में वह अपने बाबा के लिए टूल
किट ले सकता था और काम शुरू कर सकता था। यही तो उसका सपना था? फिर यह सब? अंजली की आँखों
में जलन हो रही थी और उसके कानों में सन्नाटे के अलावा कुछ नहीं था। 31 दिसम्बर की रात
वैसे ही इतनी ठंडी होती है कि सब कुछ जमा दे, मगर वह रिश्तों
पर बर्फ जमा दे, यह उसने नहीं सोचा था!
“तो, चाय ले आईं तुम? आज न जाने
कितने समय बाद इस रजाई में बैठने का मौक़ा मिला है!” उसने रजाई में घुसते हुए कहा।
“अरे यह तुमने देख लिया? बढ़िया है न!”
बलदेव ने उसके हाथ से अपना वॉलेट लेते हुए पूछा
“यह तुमने खरीदा?” जैसे बहुत
मुश्किल से उसने शब्द उधार लेकर पूछा!
“हाँ, क्यों? बढ़िया है न!
सेल लगी थी, उसमें पंद्रह हज़ार का मिल गया! नहीं तो छबीस
हजार का था।” उसने गर्वीली मुस्कान से कहा, जैसे बहुत कुछ
पा लेने की उपलब्धि थी उसमें!
अंजली ने वह पन्ना छिपा दिया, जो उसके साथ
पढ़ना चाहती थी। वाल्टर रेले ने मरने से पहले अपनी पत्नी के लिए पत्र लिखा था। वह
पढ़ना चाहती थी और उसी चाहत को महसूस करते हुए वह शादी की बात करना चाहती थी। “मेरी
सैलेरी भी बढ़ा दी गयी है। अब मुझे उस टीम का हिस्सा बनाया गया है, जो मार्केटिंग
और पब्लिसिटी और उससे जुड़े काम देखती है अंजली! अब मैं खुश हूँ! तुम्हारे बाबा से
भी हाथ मांग सकता हूँ। सब कुछ तो है मेरे पास अब, नौकरी है, ब्रांडेड कपडे
और पर्स खरीदने लायक जेब है! बस अब तुम्हारे साथ चलूँगा और पूछ लूँगा तुम्हारे
बाबा से कि “क्या आप अपनी बेटी का हाथ मेरे हाथ में देने के लिए तैयार हैं?”
वह बोलता जा रहा था और जब जब वह ब्रांडेड बोल रहा था तो उसका मन उसके
पुराने बलदेव में घूम रहा था जो कहा करता था कि मैं अपने सामानों को एक ब्रांड
बनाऊंगा! सब कुछ ऐसे कैसे बदल गया।
“तुम्हें पता अंजली, कई बार मैंने
सोचा कि मेरे भीतर बिखराव है। अपना देश देखूं कि खुद को अमीर करूं? बाबा की जमीन
छुडाऊँ या फिर उनका काम चलवाऊँ? बाबा का काम चलने का कोई फायदा नहीं
है, क्योंकि बाहर का इम्पोर्ट किया हुआ सामान बाबा के हाथ के सामान से
ज्यादा सस्ता है, बाज़ार भरा पड़ा है उनसे! बाबा क्या
बना पाएंगे? और मेरे भीतर की इच्छा क्या है? फिर मैंने वह
किताब पढ़ी, हाँ वही, अमीर कैसे
बनें! हा हा! और फिर मुझे ध्यान आया कि मुझे भी तो अमीर ही बनना है! मैंने अपने
बॉस को देखा। देशी का प्रचार और विदेशी पैसे की भरमार! जो पहले मुझे दोगलापन लगता
था मुझे वह प्रैक्टिकल बातें लगने लगीं। अब ज़िंदा रहने के लिए कुछ तो करना ही है!
मैंने देखा कि लडकियों, मगर मैं हार
गया। मैंने देखा कि गांधी थाली को लोग हजारों रूपए में बेच रहे हैं! गांधी अब
ब्रांड हो गए हैं! फिर मुझे लगा कि मैं ही क्यों पीछे रहूँ? मुझे भी हक़ है
अपनी डिजायर पूरी करने का। ग्रीड नहीं है मेरी। ग्रीड होती तो अभी तक तुम्हारी जगह
ईवा हो सकती थी। मगर मेरी डिजायर है कि मुझे आनंद मिले, मुझे प्लेज़र
मिले।”
इधर वह बोलता जा रहा था उधर वह संज्ञाशून्य होती सोच रही थी कि क्या
यह वही है, जिसके साथ उसने प्यार किया था? उसके लिए क्या
जरूरी था? पैसा अब बलदेव के पास बहुत था। उसे वह क्षण याद आ रहे थे जब वह काम से
फ्री होकर बलदेव के मेसेज का इंतज़ार करती थी और जब उसे नहीं मिलता था तो फोन उससे
कहता था “अभी भी कोई मेसेज नहीं है, तुम काम करो, जब आएगा तब मैं
बता दूंगा!” मगर प्यार इतने सरल तरीके से मानने की बात होती है क्या? उसे कार्लाइल का
पत्र याद आता जिसमें वह जेनवैल्श से कहता है “प्रियतमा पत्नी, अफ़सोस! लगभग एक
सप्ताह से मुझे तुम्हारा पत्र नहीं मिला। आज सुबह मैं जर्मीन स्ट्रीट लभग दौड़ता
दौड़ता गया, मुझे विश्वास था कि तुम्हारा पत्र मिलेगा। मैंने
कह रखा था कि मेरा पत्र वहीं रोक लिया जाए! जिससे मैं उसे निश्चित समय से पहले पा
लूं, मगर “तुम्हारा कोई पत्र नहीं कार्लाइल” ने मेरा स्वागत किया था।”
जब वह बलदेव का मेसेज नहीं पाती थी तो उसके दिल में वही पागलपन पैदा
हो जाता था, मगर काम ने उसे डुबो लिया था खुद में! बलदेव ठीक
है, यह उसे पता ही रहता था। मगर वह इतना बदल रहा है, कि उसने गांधी
को ही ब्रांड बना दिया है, यह जानकार वह टूट गयी। उसने अपने
पिता को टूलकिट लाकर देने के बजाय उनसे वह कला ही छीन ली और शहर लाकर बैठा दिया!
टीवी के सामने! यह उसने पाप किया!
उसका दिल भीतर ही भीतर कांप रहा था। यह तो वह बलदेव नहीं था! मगर बाबा
की नज़रों में यही बलदेव शानदार था, मिट्टी को सोना
बनाकर बेचने वाला बलदेव? उसके लिए आदर्श था बलदेव! उसे नहीं
पता कि कब देह ने उसके मन की बात नहीं सुनी और जैसे ही बलदेव ने उसके और खुद के
बीच से दूरी मिटाई उसकी महीनों की प्यासी देह उसकी देह से जाकर मिल गयी! क्या देह
और मन अलग अलग है? देह मन की बात नहीं सुनेगी? अपना रास्ता
खुद तय करेगी? यह सब सोचते सोचते वह उन लम्हों से बाहर आने की
कोशिश कर रही थी।
“कम ऑन- बी अ स्पोर्ट यार!” यह सुनकर उसकी रही
सही उम्मीद भी मारी गयी थी। प्यार स्पोर्ट नहीं होता! स्पोर्ट देह के साथ होता है, प्यार दिल से!
दरवाजा बंद होते ही वह वर्तमान में आ गयी। बलदेव चला गया था। चाय पीकर
नहीं गया था। उसने जाते हुए कहा “मैंने अब चाय पीनी बंद कर दी है!”
नई और पुरानी आदतों के बीच क्या करना था यह तय अब अंजली को करना था।
क्या उसे यह ब्रांडेड बलदेव चाहिए या फिर उसका बल्लू, जो अपने गाँव
को ही ब्रांड बनाना चाहता था? वह भी तो काम कर रही है, उसके सामने
क्या प्रलोभन नहीं आए, मगर बलदेव उसकी आत्मा रहा, वह डिजायर या
ग्रीड नहीं बना! जबकि वह बलदेव के लिए अब केवल डिजायर रह गयी है। यह देह की डिजायर
है, जो ईवा भी पूरी कर सकती है! उसका मन नहीं हुआ कि ईवा के बारे में
ज्यादा जाने! अब उसका मन बलदेव से उचट रहा था। क्योंकि उसके विचार उचट रहे थे।
अम्मा कहती हैं कि लड़का बढ़िया कमाने वाला होना चाहिए, बाबा कहते हैं
कि एब नहीं होने चाहिए। यह दोनों ही गुण अब बलदेव में है, मगर अब वह उसका
बल्लू नहीं रहा है! वैचारिक विचलन वाला लड़का कहीं टिक सकता है क्या? क्या गारंटी है
कि एक दिन वह डिजायर पुरानी हो जाए!
उसकी कुछ समझ नहीं आ रहा था। क्या करे? सिर दर्द के
मारे फटता जा रहा था, मगर उसे जो भी फैसला करना था, शाम तक करना ही
था, क्योंकि वह आज ही उसके बाबा से बात करने की जिद्द थामे बैठा था। क्या
करे, इस छोटी सी बात के लिए इतने लम्बे समय के रिश्ते तोड़ का अंत कर दे? या फिर रुके? उससे शादी कर
ले? बलदेव के घरवाले तो कब से तैयार हैं! वह बहुत ऊहापोह में थी।
आठ बजे से ग्यारह बज गया था। मगर वह रजाई से बाहर आने की हिम्मत नहीं
जुटा सकी थी।
मगर हकीकत का सामना तो उसे करना ही था।
उसे तय करना था कि पेट्रो-डॉलर और आयातित ब्रांड के साथ ज़िन्दगी
बितानी है या फिर खुद का ब्रांड बनाना है, कविता से भरा, विचारों से
भरा! जहां अपनी मिट्टी की खुशबू हो! एनजीओ हो तो उसमें उसके बाबा की भी खुशबू हो, अम्मा के हाथों
की बनी कैरी वाली अरहर दाल जैसी मीठी खटास हो!
उसने अनमने मन से अपना फोन उठा लिया। न जाने कितने मेसेज थे, मगर एक मेसेज
पर उसकी निगाह टिक गयी! उसने उस मेसेज का जबाव “हाँ” में दिया और फिर फोन उठाकर
बलदेव को मेसेज करने बैठ गयी
“तुमने चाय पीना छोड़ दिया, मुझे अभी भी
पसंद है। तुम्हें बीस हज़ार रूपए बाहरी बाज़ार पर खर्च करना पसंद आ गया हैं, मगर मैं अभी भी
तुम्हारा दिया ही सपना देख रही हूँ। तुमने मुझे सपने दिए हैं, मैं चाहती हूँ
कि अपनी ही मिट्टी का अपना ब्रांड हो! मैं तकनीक की विरोधी नहीं हूँ, मगर मैं बाहर
की तकनीक से अपने देश के लिए काम करने का सपना अभी देखती हूँ। तुमने मुझे केवल
डिजायर तक सीमित कर दिया है, जबकि तुम मेरी अभी भी आत्मा हो! और
मैं अपनी आत्मा को डिजायर होते नहीं देख सकती। शाम को आने की जरूरत नहीं है। बहुत
दिनों से गाँव गाँव की हस्तशिल्प की कहानियों को लाने के लिए एक प्रोजेक्ट पर
बातचीत चल रही थी, आज फाइनल हो गया है। मैं उनके साथ जा
रही हूँ। यहाँ पर मेरी टीम ऑफिस देखेगी। कब आऊँगी, पता नहीं, कब तुमसे बात
करूंगी पता नहीं! ऐसा नहीं है कि मै तुमसे बात नहीं करना चाहती हूँ, मगर तुमसे बात
करते ही मेरी देह में कुछ होने लगता है, फिर वह मेरे
नियंत्रण में नहीं रहती। देह और विचार दो अलग हैं! देह अभी भी तुम्हें उतना ही
चाहती है, क्योंकि तुम आत्मा हो। धीरे धीरे उसे समझ आएगा कि वह तुम्हारे लिए
केवल डिजायर है और सम्हल जाएगी! अपना सोशल मीडिया का पासवर्ड अब तुम बदल लो, चाहो तो ईवा को
दे दो! मेरे दिल में तुम्हारे अलावा कोई ख्याल तक नहीं आया और तुमने मुझे मजबूरी
बनाकर ईवा का नाम ले लिया! मेरा जाना जरूरी है, गाँव मुझे बुला
रहे हैं। मैं भी केवल एक बिजी एग्ज़ेक्युटिव की बीवी बनने के लिए दिल्ली नहीं आई थी
और वह भी उसकी जिसकी रीढ़ न हो! बाय, फिलहाल के
लिए!” और उसने मेसेज भेजकर सिम निकालकर फेंक दिया। दूसरा नंबर उसके पास कई दिनों
से एक्टिव था।
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रचनाकार परिचय
सोनाली मिश्रा स्वतंत्र अनुवादक रूप से अनुवाद एवं लेखन कार्य करती हैं.
वह जनगण के राष्ट्रपति, मूल्यों की पुनर्स्थापना सहित कई पुस्तकों का अनुवाद कर चुकी हैं. जन गण के राष्ट्रपति, भारत के पूर्व एवं सर्वाधिक लोकप्रिय राष्ट्रपति स्वर्गीय एपीजे अब्दुल कलाम आज़ाद के व्यक्तित्व पर लिखी गयी पुस्तक है.
अच्छी कहानी शाबास लडकी अपने ही शर्तों पर ही जीना ����
ReplyDeleteएक ही सांस में पढ़ ली जाने वाली शानदार कहानी
ReplyDeleteस्त्री के स्वनिर्माण की सुन्दर कहानी
ReplyDeleteबदलते विचार-बदलती सोच और साथ ही रिश्तों की बदलने की बढ़िया कहानी। एक पुरानी मूवी साथ-साथ की याद आ गई हालांकि उसकी और आपकी कहानी भिन्न है। लिखती रहें, शुभ कामनायें
ReplyDeleteसब प्रभु इच्छा से होता है..वरना आज ही कैसे पढ़ने को मिली ये कहानियाँ..इतनी सशक्त कहानियाँ लिखने वाली व इतने सशक्त विचारों वाली सोनाली जी जैसी आत्माओं की बदौलत ही पेसबुक का भी स्तर बना हुआ है🌻
ReplyDeleteLovely bloog you have here
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