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यहाँ बिसात पर बिछे हैं जुगनू


रोहिणी कुमारी अनुवाद के क्षेत्र में एक सुपरिचित नाम है। कोरियन भाषा पर विशेषाधिकार रखने वाली रोहिणी पुस्तकों पर भी बहुत सजग समीक्षाएं लिखती रहतीं हैं। उन्होंने वंदना राग के हालिया प्रकाशित उपन्यास 'बिसात पर जुगनू' पर एक सुचिन्तित टीप लिखी है। 
पढिए मेराकी पर-






किताबों के बारे में कहते हैं कि दुनिया में एक आदमी किसी दूसरे आदमी को निराश कर सकता है, लेकिन किताबें कभी किसी को निराश नहीं कर सकती. और हर नई किताब पढ़ने के बाद यह बात ज़्यादा और ज़्यादा समझ में आती है.
वंदना राग हिंदी की दुनिया का स्थापित नाम हैं, इनसे मेरी पहली और आख़िरी मुलाक़ात शायद 2016 के अंतिम या 2017 के शुरुआती महीन में मुक्तांगन के कार्यक्रम में हुई थी. इससे पहले सिर्फ़ इनका नाम ही सुना था क्योंकि तब तक सिर्फ़ फ़ेसबुक ही वह खिड़की दरवाज़ा था जो मुझे हिंदी साहित्य के झरोखे दिखाता था. लेकिन उसके बाद की स्थिति में परिवर्तन आया और फिर फ़ेसबुक के इतर बहुत सारे माध्यम मिले जिससे हिंदी साहित्यकारों को नज़दीक से जानने और उन्हें पढ़ने का मौक़ा मिला.
मुक्तांगन की वह मुलाक़ात मुझे क्यों याद है इसका एक निजी कारण है. उस समय तक मैंने अपनी Phd के लिए टॉपिक तय कर लिया था, जो मेरे M.Phil की टॉपिक से अलग था. M.Phil में मैंने दक्षिण कोरियाई साहित्य में कोरियाई महिलाओं की स्थिति पर शोध किया था और इसके कारण दुनिया भर में स्त्री जीवन और पितृसत्ता पर लिखा गया बहुत कुछ पढ़ा और जाना. लेकिन वहाँ हो रहे कार्यक्रम में वंदना जी ने किसी संदर्भ में कहा था कि “पितृसत्ता बहुत चालाक होती है.” और उनका यह कहा मेरे कानों में आजतक गूँजता है. उस समय यह सुनकर लगा था कि शायद यह एक बात है जो मैं अपने थीसिस में सही से नहीं कह पाई. यह तो वंदना राग के प्रति मेरे लगाव का एक कारण है. इसके बाद आते हैं नई बातों पर. नई किताब की बात पर. कोरोना काल के भारत आगमन के पहले चीन से “बिसात पर जुगनू” ने प्रवेश ले लिया था. मुझे यह किताब अपने शीर्षक के कारण ख़ास लगी थी. क्योंकि बिसात पर तो मोहरे होते हैं, बिसात पर जुगनू का क्या काम. लेकिन नहीं यही तो लेखनी का कमाल होता है, जहाँ मोहरों को होना चाहिए वहाँ लेखिका ने जुगनुओं को बिठाया है. तीन महीने से भी ज़्यादा का समय लगा है मुझे इस किताब को पढ़ने में. बीच में कई अन्य किताबें पढ़ डाली सिर्फ़ इस डर से कि इसे ना पढ़ना पड़े. इतने बड़े परिवेश को कुछ सौ पन्नों में समेट लेना का हुनर भर ही सिहारन पैदा करता है. भारत और चीन दो विशाल और संस्कृति के स्तर पर भी महान देशों को जोड़ते हुए एक कहानी लिखना और इतिहास से खींचकर समकालीन परिवेश में लाकर खड़ा कर देना. कैसे किया जा सकता है यह सब, कितना ज़्यादा समय और संयम की माँग रही होगी इस दुरूह काम को करने के लिए, तथ्यात्मक रूप से भी सही होना, देस-काल का ध्यान रखते हुए पटकथा में रोचकता भी बरक़रार रखना. यह सब कुछ कोई सामान्य कथाकर नहीं कर सकता है. इस तरह की कहानी ज्ञान और अनुभव से भरा हुआ कोई कथाकर ही गढ़ सकता है. इस किताब को पढ़ते हुए यह विश्वास और अधिक पुख़्ता हुआ कि साहित्य में उपन्यास की विधा को साधना आसान नहीं है.
उपन्यास में फ़तह अली खान से लेकर परगासो जैसे ऐतिहासिक पात्र है जो कहीं पर आपको यह एहसास नहीं होने देते हैं कि वे आपके समय के नहीं हैं या फिर उनकी कहानी आपके आसपास की कहानी नहीं है. उनके माध्यम से होते हुए आप 19वीं शताब्दी के मध्य में घटित हो रहे स्वतंत्रता संग्राम की कहानी तक पहुँचते हैं और कई ऐसे नायकों और नायिकाओं से रूबरू होते हैं जिन्हें शायद इतिहास के पन्नों पर जगह नसीब नहीं हुई है. वंदना राग इतिहास की शोधार्थी रही हैं लेकिन इस उपनायस को पढ़ने पर ऐसा महसूस होता है कि शायद साहित्य को वह जीती हैं. एक ही उपन्यास में एक ही कथा के अंदर कई कहानियों को पिरोने का काम “बिसात पर जुगनू” में बहुत अच्छे से करके दिखाया गया है. किसी अनाथ के जीवन संघर्ष के साथ-साथ परगासो और चीनी पात्र यू यान के माध्यम से लेखिका ने स्त्री की भूमिका और उसके जीवन को भी साधा है इस उपन्यास में. इन दो स्त्री पात्रों को देखकर एक बार और यह तथ्य पुख़्ता होता है कि भले ही स्त्री का जीवन भूगोल के किसी कोने में क्यों ना रहा हो, उनका जीवन किसी भी समय में क्यों ना धरती पर आया हो उनकी समस्याओं और संघर्षों का रूप और उनकी तासीर में कुछ ज़्यादा बदलाव नहीं आया है. इसका प्रमाण हमें यह पंक्तियाँ देती हैं:
“मैं कैसे बदल दूं इबारतें? कैसे बताऊं दुनिया को कि मुल्क में एक परगासो बीबी होती हैं और चीन में एक यू यान बीबी। दोनों की ज़मीन कितनी अलग है लेकिन फिर भी कितनी एक सी. ये बहादुर औरतें जंग में कितना कुछ हार गई है, लेकिन फिर भी मुल्क की बेहतरी की चिंता करती हैं.”
इनके अलावा एक चौथा पात्र है एक चीनी लड़का चिन्ही कान्हा, जो उस दौर के दो संघर्षरत देशों के दर्द को जोड़ने का काम करता है और उस विरासत को आगे ले जाने में भी अपनी भूमिका निभाता है.
और इन सबसे से होता हुआ, गिरता-पड़ता यह उपन्यास चमत्कारिक ढंग से बिहार के पटना शहर में होने वाले साहित्यिक कार्यक्रम की कहानी कहने लग जाता है.
निदा फ़ाज़ली कहते हैं कि “एक आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी”, उसी तरह इस उपन्यास को पढ़ने के बाद मुझे लग रहा है कि एक ही कहानी में हो सकती हैं कई-कई कहानियाँ. अपने अद्भुत पटकथा, रोचकता और नए शिल्प के कारण यह उपन्यास हिंदी साहित्य जगत को थोड़ा ज़्यादा ही समृद्ध करती है. यह उपन्यास सिर्फ़ आपके मन सिर्फ़ गहरे ही नहीं उतरता है बल्कि इसका क्षैतिज विस्तार भी उतना ही बड़ा है.
इस उपन्यास को पढ़ते हुए आपको बहुत अधिक सावधानी बरतनी पड़ती है, शुरुआत में यह बिलकुल हरारी के सेपियंस जैसी उलझी हुई लगती है लेकिन एक असली पाठक वही होता है जो हार नहीं मानता है. अगर आपने एहतियात बरतते हुए और पात्रों की कहानी से ख़ुद को जोड़ते हुए इस उपन्यास के शुरुआती 90-100 पन्ने पढ़ लिए तो बाक़ी की किताब आपको ख़ुद ही पढ़वा ले जाएगी. लेकिन यही 100 पन्ने पढ़ने में आपको सम्भवत: कई महीने लग जाएँगे जैसे मुझे लगे हैं.
और अंत में उनकी ही किताब से उद्धृत निम्नलिखित पंक्तियों के साथ लेखिका को शुक्रिया इस महान किताब को हमें देने के लिए.
“दुनिया और प्रकृति को खत्म करने के लिए हर युग मे कुछ सनकी जन्म लेते हैं। उन्हें लगता है उनकी उंगलियों पर नाचने वाली, दुनिया की व्यवस्था हमें मिटाकर बनेगी.....बिटिया रानी। लेकिन ऐसा नही होगा। हमेशा याद रखना... वे हमें मारेंगे भी तो भी हम खत्म न होंगे... हम भी हर युग में उन्ही की तरह पैदा होंगे और अपने गीत गाएंगे.”
Indeed, it’s not a good read but It’s a great and must read.



प्रकाशक -राजकमल प्रकाशन समूह

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                                        रचनाकार परिचय 



रोहिणी कुमारी 

 आलोचना एवं अनुवाद में विशेष सक्रिय                            
 जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से कोरियन साहित्य में उच्चशिक्षा, वर्तमान में जामिया मिलिया इसलामिया में असिसटेंट प्रोफ़ेसर के रूप में कार्यरत। अनुवाद: कोरियन भाषा से हिंदी और अंग्रेज़ी अनुवाद अंग्रेज़ी से हिंदी अनुवाद, कई प्रसिद्ध अनुवाद पुस्तकें प्रकाशित जैसे मिशेल ओबामा की चर्चित पुस्तक बिकमिंग का अनुवाद

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