फाँस: राकेश बिहारी की कहानी
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राकेश बिहारी हिन्दी कथा और कथा आलोचना के एक स्थापित नाम हैं। कुछ सालों पहले मेराकी पर प्रकाशित उनकी एक कहानी 'परिधि के पार' बहुत चर्चा में रही थी। आज प्रस्तुत है उनके द्वारा रचित एक और कहानी 'फाँस'। मानसिक रोग और उससे जुड़े अतीत के पन्ने खोलती यह कहानी हमें स्तब्ध कर जाती है और अपने पीछे छोड़ जाती है कई अनुत्तरित प्रश्न।
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उत्तरार्द्ध
सामने बैठे दो व्यक्ति, एक स्त्री और एक पुरुष बतिया रहे हैं आपस में...
"मिस्टर मोहंती
की हालत में कोई नया बदलाव या सुधार...?
वह सैंडविच कुतरते हुए देख
रहा है टुकुर-टुकुर, यह मिस्टर मोहंती कौन है? और यह औरत?
औरत देख रही है उसकी तरफ
गहरी और उदास दृष्टि से... " कोई खास
नहीं। हां सोने की अवधि में थोड़ी कमी
जरूर आई है। लेकिन पहचानते तो अब भी नहीं
हैं वह... डॉक्टर, मैंने यह नहीं चाहा था ... सोचा
भी नहीं था... और आप... आपने भी तो... "
डाक्टर कहे जानेवाले उस शख्स
का हाथ उस औरत की हथेलियों पर है... वह
उठता है और उन दोनों की हथेलियों के ऊपर अपनी हथेली रखता हुआ एक खेल खेलता है... "अटकन-चटकन दही चटाकन... "
वह औरत और रुंआसी हो उठती है
और ढह पड़ती है सोफे की पीठ पर... "ऐसे नहीं चलेगा शिखा जी, हिम्मत रखनी होगी आपको। धीरे-धीरे
ठीक हो जायेगा सब कुछ... "
शिखा नाम कुछ चीन्हा है, कुछ अन्चीन्हा... वह बुदबुदाता है- शिखा... शिखा आशा भरी नजरों से देखती
है उसकी ओर... पर पहचान की कोई लकीर नहीं
है उसकी आंखों में... वह और ज्यादा उदास
हो उठती है...
डॉक्टर और शिखा बैठे हैं बिलकुल
पास-पास। डाक्टर का दाहिना हाथ शिखा के
कन्धों पर है। उसे लगता है जीभ लपलपाती कोई छिपकली शिखा के कन्धों पर आ बैठी है। वह चुपके से उठता है, छुपता-छुपाता सोफे के पीछे-पीछे बढ़ता है और पेपरवेट उठा कर दे मारता है
उस छिपकली पर... डॉक्टर व शिखा की दुहरी
चीख से बेपरवाह वह चला जाता है अपने कमरे की तरफ। उसने तो जीभ लपलपाती छिपकली को मारा था। कोई
चीखे तो उसे क्या...
वह जाते-जाते सुन रहा है
"यह एक अच्छा सिमटम है शिखा जी, वह आप पर अपना अधिकार
नहीं भूल सके हैं अभी। रिश्ते भी याद आ ही
जायेंगे, धीरे-धीरे। थोड़ा वक्त दीजिये उन्हें... और हां, कुछ भी याद करने के लिये मजबूर नहीं करना है उन्हें... " डॉक्टर कहे
जाने वाले व्यक्ति के चेहरे पर पछतावे के भाव हैं। "मैंने भी ऐसा कब सोचा था...
मैने देखा था सोडियम पेन्टोथैल की मात्रा बिलकुल थोड़ी थी, लेकिन
शेखर कुछ ज्यादा ही सेंसेटिव हैं। सिगरेट-शराब
कुछ भी तो नहीं लेते... जाने इस विंदु पर तब क्यों नहीं गौर किया... "
दोनों अब भी खड़े हैं एक
दूसरे से बतियाते। वह उंगÍलयों से गमले की मिट्टी कुरेद रहा है...
"लेकिन शेखर की
इच्छाशक्ति इतनी कमजोर भी नहीं कही जा सकती... बहुत जल्दी और आसानी से नहीं खुले
थे वह... मैं पहली बार किसी केस मे फेल हुआ हूं और वह भी इस तरह... "गमले मे हिलते
पौधे के साथ डॉक्टर के स्वर भी हिल रहे हैं।
"मैं ही... मैं
ही ज़िद पर अड़ गई थी, पता नहीं क्या सूझा था मुझे" औरत
के स्वर मे सुबकियों जैसा कुछ है... " पढ़ा था मैंने कि दुनिया के कई देश
बहुत पहले आजमा कर छोड़ चुके हैं इसे। कि किसी
व्यक्ति के अधिकार और स्वतंत्रता का हनन है यह, बर्बरता है,
मानवाधिकार के खिलाफ है यह... लेकिन तब तो मुझे इन्हें ठीक करने की पड़ी थी...
कानूनी प्रावधानों पर भी बहुत नहीं सोचा"
कभी-कभी उसे लगता है वे उसके
बारे में ही बात कर रहे हैं लेकिन क्या, समझ नहीं पाता। पर हां, उसका रोना,
उदास होना, पछताना सब अच्छा लगता है उसे... बहुत-बहुत अच्छा। लेकिन डॉक्टर कहा जाने वाला यह शख्स उसे बिलकुल
भी अच्छा नहीं लगता, शिखा कही जानेवाली उस औरत के आस-पास मंडराता
तो और भी नहीं, बिलकुल मिट्टी से निकले उस जोंक की तरह, जिसे दूर फेंका है उसने अभी-अभी।
डॉक्टर कुछ बोल रहा है, वह सुनना चाह रहा है कि आखिर क्या कह दिया उसने कि इस शिखा की आंखें चमक
उठी हैं अचानक... "हो सकता है यह सब एक स्वांग हो... खुद को
अपने अतीत को दूसरों की आंखों मे नंगा न देख पाने लिए किया गया स्वांग।"
डॉक्टर के हाथ फिर शिखा के
कन्धों पर हैं। शिखा चुप है उसकी इस बात
पर,
धीरे से बरजती है वह उसका हाथ... मन में एक आशंका उभरती है, कहीं यह सब इस डॉक्टर की सोची-समझी चाल तो नहीं है उसे हासिल करने की। लेकिन प्रत्यक्षत: कहती है - "यह पता कैसे
चलेगा?"
"यह जानना मुश्किल
है थोड़ा। इसे आप ही जान सकती हैं सिर्फ... " शिखा कुछ
नहीं कहती। डॉक्टर जा रहा है... और वह उसे
जाते देख रही है चुपचाप।
उसे फिर गुस्सा आ रहा है, उसने एक कंकड़ फेका है डॉक्टर की तरफ। लेकिन यह क्या, वह पत्थर
तो शिखा को लग गया। वह छुप जाना चाहता है
गमले के पीछे।
शिखा मुड़ी है क्रोध से... पर
क्षण भर मे मुस्कुरा उठती है वह - "डॉक्टर का आना तुम्हें पसन्द नहीं न... ?"
वह चुप है
"उसका मुझसे बात
करना भी?"
वह चेहरा घुमा लेता है।
"तुम केवल मेरे साथ
रहना चाहते हो?"
वह आंखें नीचे कर लेता है।
"तुम मुझसे
प्यार करते हो न, बोलो... ?"
वह फिर से कमरे की तरफ भागता
है, लगभग दौड़ता हुआ...
पूर्वार्द्ध
सामने बैठे व्यक्ति के चेहरे
पर नर्म सी मुस्कुराहट फैली थी, मूँछों के नीचे और पीछे से
छल-छल बहते जलप्रपात-सी। चेहरा गोरा, लंबोतरा, उलझे-उलझे से घुंघराले बाल आगे से उड़े-उड़े। शेखर ने सोचा वह बेकार ही जिद
लिए बैठा था, वह मिल सकता था इस शख्स से, अकेले भी। शिखा और उसने जो इतनी लंबी-लंबी बहसें की, नाराज़ हुए एक दूसरे से, खाना-पीना छोड़ा सब बेकार...
उसके भीतर बसी जिद पिघलने
लगी थी,
नाराजगी घुलने लगी थी, अपनापा और प्यार पसरने
लगा था गर्मी से पिघलते चाकलेट की तरह। क्या था इस चेहरे में ऐसा जो उनके शीतयुद्ध
को सम पर ला रहा था। शायद उसकी हँसी, हाँ हँसी बिल्कुल पिता
जैसी। ऐसी हँसी नहीं जो किसी पर हँसने के लिए हँसी गई हो, व्यंग्य
बिल्कुल नहीं... स्नेह-सौहार्द से घुली-मिली... एक निर्मल और मुक्त हँसी।
हँसता हुआ चेहरा मेरी तरफ़
मुखातिब था। आवाज से, मन से... एकदम भीतर से निकली आवाज़...
‘‘गुड मार्निंग,
मिस्टर शेखर मोहंती।’’
मैंने जवाब में बस हौले से
सिर हिलाया था।
आप विप्रो इंडिया में सीनियर
एक्जक्यूटिव हैं न?’’
मैं चौंक गया था, जैसे चोरी पकड़ ली गई हो मेरी। कुछ-कुछ सहम भी गया था मैं, इसे मेरे बारे में यह सब कैसे पता। मेरा सोचना शायद मेरे चेहरे तक छलक आया
था।
‘‘चौंकिए मत मिस्टर
मोहंती। आपकी पत्नी ने अप्वायंटमेंट लेते हुए फोन पर आपका परिचय दे दिया था मुझे।
कुछ सोच रहे थे आप शायद। इतना मत सोचा करिए। इतना सोचना भी अच्छा नहीं होता सेहत
के लिए।’’
मैं झेंप-सा गया था।
‘‘हाँ तो बताइए, आप अपनी परेशानियों के बारे में... नहीं, परेशानी नहीं अपनी
उन आदतों के बारे में जिनसे आपकी पत्नी परेशान होती हैं।’’
‘‘नहीं, ऐसा तो कुछ भी नहीं।’’
‘‘मिस्टर मोहंती,
कुछ भी। कोई छोटी-सी भी बात...’’
‘‘छिपकलियाँ... दीवार पर रेंगती, जीभ
लपलपती, कीड़ों को पीछे से धर दबोचती, लिजलिजी
छिपकलियाँ मुझे बहुत घिनौनी लगती हैं। मुझे उबकाई आती हैं उन्हें देखकर, और... ’’
‘‘और क्या मिस्टर
मोहंती?’’
‘‘नहीं, जाने दीजिए... और कुछ भी नहीं...’’
‘‘और कुछ कैसे नहीं...
दफ्तर से घर आते हैं थके-माँदे और डंडा लिए पड़ जाते हैं उन छिपकलियों के पीछे। शुरू-शुरू
में तो मैं भी करती थी इनकी मदद। लेकिन अब तो... दीवार पर रेंगती छिपकलियां ही क्या
घर से बाहर उस तरफ बेचारे मेढकों के पीछे भी पड़ जाते हैं ये...’’
शिखा, यानी मेरी पत्नी के बीच में इस तरह बोलने से शर्म और झिझक की पतली-सी
झिल्ली पसर गई है मेरे चेहरे पर, जैसे कोई बच्चा चुराकर
मिट्टी खाते पकड़ लिया गया हो।
‘‘हाँ, होती है मुझे इन चीज़ों से दिक्कत। मुझे बहुत सारी चीज़ों, दृष्यों से परेशानी है। उन सारे दृष्यों से जिसमें कोई ताकतवर अपने से
कमजोर को अपना ग्रास बनाना चाहता है।’’
‘‘मैं समझ सकता हूं मिस्टर
मोहंती। कई केसों में होता है ऐसा। और आप तो छात्र राजनीति से गहरे जुड़े थे कभी। शायद
किसी पार्टी के होल टाइमर भी बनने वाले थे... ’’
मेरे चेहरे पर अब विस्मय
नहीं,
खरगोश जैसा चैकन्नापन है। क्या-क्या पता है इसे मेरे बारे में। शिखा
ने क्या-क्या बात रखा है इसे। कहीं वह सब भी तो नहीं बता दिया उसने। चौकन्नेपन ने शायद
कान भी खड़े कर दिए हैं मेरे। मैं सहज होने की कोशिश करते-करते भी शिखा को उलाहने
भरी दृष्टि से देख ही लेता हूँ। शिखा के चेहरे पर उग आए असमंजस को नजरअंदाज़ कर रहा
हूँ मैं... गलती है उसकी। जब मैं तैयार हो ही गया था यहाँ तक आने को तो फिर क्या
ज़रूरत थी खुद उसे यह सब बताने की... आखिर
क्यों कर रही है वह ऐसा... क्या साबित करना चाहती है वह...
शायद डॉक्टर ने भी भाँप लिया
है मेरी इस उधेड़बुन को... ‘‘देखिए, मैं पूछता रहा हूँ
इनसे, आपके बारे में कुरेद-कुरेदकर। मुझे आपके व्यक्तित्व के
बारे में ज़्यादा से ज़्यादा जानना अच्छा लगा, शायद इसलिए
भी। आपका व्यक्तित्व निहायत ही खूबसूरत और दिलचस्प है। तमाम तरह के उतार-चढ़ाव
समेटे हुए। मुझे आपसे दोस्ती करने की इच्छा हुई। कुछ लोग अपनी तरफ खींचते हैं,
हठात्। आप में भी कुछ ऐसा ही है, खास होने
जैसा कुछ।
शिखा जी ने तो बाद में मना
ही कर दिया था मुझे कि आपको काउंसिलिंग की कोई जरूरत नहीं। पर मैं आपसे एक दोस्त
की तरह मिलना चाहता था, किसी चिकित्सक की तरह नहीं। आपको तो
खुद भी पता है आप रोगी नहीं है... क्यों, क्या मैं दोस्त
बनने के काबिल नहीं?’’
मुझे उसकी हँसी के साथ अब
उसकी बातें भी अच्छी लगने लगी है।
एक पितृविहीन गरीब लड़के से
सीनियर एक्जक्यूटिव तक की वह यात्रा... एक लंबा दिलचस्प सफ़र... बीच के कितने पड़ाव, पहले गायक और फिर होलटाइमर बनने की चाह... कुछ नहीं, कुछ भी नहीं से इतना कुछ अर्जित करने की एक सहज और गतिशील यात्रा।
घोंघे की तरह मैं भी अपनी
खोल से निकलने का उपक्रम करता हूँ, पर उतना ही, जितने में सुरक्षित-संरक्षित रह सके मेरा मैं।’’ बताने लायक जैसा कुछ भी
नहीं है मेरे पास। लोगों की जीवन-यात्रा तो इससे भी दुरूह होती है, डॉक्टर... ’’
‘‘फिर भी कोई खास
घटनाक्रम, कोई ऐसा दृश्य जिसने आपको परेशान किया हो देर तक?’’
‘‘शायद नहीं। छोटा
होने के बावजूद पिता की मृत्यु को पूरी जिम्मेदारी और गंभीरता से लिया था मैंने।
मुझे पता था कोई भी मर सकता है, कभी भी। मेरे आंसू तक नहीं
निकले थे। जबकि पिता को बहुत प्यार करता था मैं। उनके लिए कोई भी क्षोभ, कोई आक्रोश नहीं था मेरे भीतर।’’ मैं बहुत धीरे-धीरे अपनी ज़िंदगी को खोल रहा
था।
‘‘रोना अवसाद को धो
देता है। लेकिन कई बार नहीं रोने के कारण अवसाद अपनी तहें बैठाता रहता है भीतर तक।
तब शायद नहीं समझ पाते हम लेकिन उम्र के साथ धीरे-धीरे प्रकट होता है यह। कई रूपों
में हमारे सामने आ सकता है यह- फ्रस्ट्रेशन, डिप्रेशन यहां
तक कि नर्वस ब्रेक डाउन के रूप में भी।’’
शिखा की हथेलियाँ मेरी
हथेलियों को भींच रही हैं। पसीने की बूँदें मेरे चेहरे से ज्यादा उसके चहरे पर
छलछला आई हैं। मैं जानता हूँ उसकी यह हालत मेरी ही चिंता में हो रही है। लेकिन
अचानक ही मैं अपनी हथेलियों को उसकी हथेलियों से मुक्त करना चाहता हूँ... और क्षण
भर में झटक ही देता हूं उसका हाथ... यही सब सुनाना-समझाना चाहती थी वह मुझे... पल
भर पहले उसके प्रति उमड़ा स्नेह पलक झपकते हीं कर्पूर की मानिंद हवा हो चलता है।
आखि़र बार-बार वह क्यों जताना चाहती है कि मैं एबनार्मल हूँ... अनायस ही बीते हुए कुछ माह हमारे बीच फेंस की
तरह उग जाते हैं।
‘‘आपकी हरकतों से
मुझे बार-बार शर्मिंदगी उठानी पड़ती है... मेरे भाई हँसते हैं मुझ पर... बहनें
मुस्कराती हैं पीठ पीछे... डरती रहती हूं मैं कि पर्व-त्योहार, फंक्शन, पार्टी कब-कहाँ शुरू कर देंगे आप अपनी
ऊल-जुलूल हरकत। अजीब होते जा रहे हैं आप, आफिस से आते ही
छिपकलियों-मेढकों का शिकार और बिस्तर पर लाख मनुहार के बाद मुंह फेर लेना... किसी
से कह भी नहीं सकती अपना दुख... लेकिन आपको क्या... आप तो डॉक्टर के यहाँ भी नहीं
जा सकते। पता भी है आपको आपका बेटा आपके सामने पड़ने से कतराता है... इतनी पाबंदी...
इतनी हिदायतें... चैकन्नापन...
पिछले कुछ महीने की किचकिच
मुझे लगातार परेशान कर रही थी... मैं वहाँ होकर भी नहीं था... कि तभी मुझे लगा शिखा
कुछ बोल रही है।
‘‘डॉक्टर साहब एक और
खास बात है इनके बारे में।’’
‘‘हाँ-हाँ, जरूर बताइए। आपका सपोर्ट बहुत जरूरी है मेरे लिए। मिस्टर मोहंती ने तो
वैसे भी अब तक कुछ खास बताया नहीं है। शायद कुछ खास बता भी न पाएँ।’’
‘‘बस एक बात। हमारी
एक बेटी है-साक्षी। बारह साल की और फिर एक बेटा। बड़ी अजीब सी बात है, इन्हें साक्षी को लेकर कोई चिंता-फिक्र नहीं है। न उसकी पढ़ाई-लिखाई को
लेकर न उसके भविष्य के लिए। उसे पूरी आज़ादी दे रखी हैं जो मन हो करे, जहां चाहे जाए। जैसे मन हो कपड़े पहने। लेकिन आदित्य यानी बेटे के पीछे हाथ
धो कर पड़े रहते हैं ये। पल-पल का हिसाब माँगते हैं उससे... कितनी देर तक कहाँ थे,
लंच आवर में क्या किया... पिकनिक, क्लास-टूर
तो दूर की बात है, दोस्तों के जन्मदिन तक पर जाना अलाउ नहीं
करते उसे और चाहते हैं कि वह दिन-रात मैथ्स और सिर्फ मैथ्स पढ़ता रहे। मैथ्स की एक
छोटी सी भूल के लिए भी कड़ी से कड़ी सजा दे देते हैं उसे...
मेरा चेहरा लाल हुआ जा रहा है...
यह भी कोई कहने की बात है... अपने बच्चे की परवाह करना भी दोष हो गया मेरा... काश मैं
अदृश्य हो सकता... डॉक्टर की तीखी निगाहों का सामना तो नहीं करना पड़ता... कुछ घंटे
पहले जिसकी हँसी खींच रही थी मुझे अब उसकी आँखें अजीब लगने लगी हैं... जैसे खँगाल
लेगा वह मुझे भीतर तक, सिर्फ देखकर ही... और यह सब हो रहा
है इस शिखा की जिद के करण... लेकिन तभी...
‘‘बेटे के भविष्य की
चिंता लाजिमी है, मिसेज मोहंती। सारी दुनिया बेटों में अपना भविष्य,
अपना अक्स तलाशती है। शेखर अगर ऐसा कर रहे हैं तो इसमें असामान्य
कुछ भी नहीं।’ उसने पहली बार मुझे मेरे फर्स्ट नेम से बुलाया है। मैं समझ नहीं पा
रहा वह किसकी तरफ़ है... मेरी या फिर शिखा की तरफ...
‘‘शेखर, क्या आप अपने बेटे को इंजीनियर बनाना चाहते हैं?’’
‘‘नहीं...’’
‘‘वैज्ञानिक?’’
‘‘नहीं... वह क्या
बनना चाहता है, यह उसका निर्णय होगा मेरा नहीं।’’ मैंने अपनी
आवाज़ को शांत-संयत किया है। आखिर क्या चाहता है वो मुझसे... कौन-सी ऐसी बात जो उसके अनुसार, उसे मेरी समस्या के तह तक पहुंचा सकती है। उसे लग रहा है कुछ छुपा रहा हूँ
मैं। लेकिन मेरे पास है ही क्या जो छिपाता फिरूँ... मैं चुपके से अपने भीतर उतरता
हूँ... भीतर के गंदे पानी को उलीचते खुद को तलाशते... और भीतर... लेकिन यहां तो
सिर्फ काला घना अंधकार है... मैं आँखें फाड़-फाड़कर तलाशता हूँ... पर सिवाय उस
अंधेरे के मुझे कुछ नहीं दीखता... कितनी तो कोशिश की है मैंने खुद भी लेकिन एक
अनाम सी बेचैनी... एक अजीब-सी उलझन लिपट जाती है मुझसे... नहीं खोज सकता मैं और
कुछ... नहीं उतर सकता मैं इससे भीतर... दूर तक फैला यह अंधकार अकेला कर देता है
मुझे और मैं अकेला नहीं होना चाहता।
‘‘शेखर साहब, क्या सोच रहे थे आप? कुछ याद आया खास?’
‘‘नहीं, सिवाय इसके कि अकेलेपन से डरता हूँ मैं। आज से नहीं, बचपन से। जबकि भीड़ भी मुझे पसंद नहीं। हाँ अपनों का साथ मुझे हमेशा
चाहिए।’’
‘‘सोचिए आराम से।
अपने बचपन, अपनी गरीबी को लेकर कोई गिल्ट?’’
‘‘नहीं बिल्कुल भी
नहीं।’’
मुझे खुशी होती है, पेशे और चेहरे की स्निग्धता के खिलाफ शिकन की कुछ रेखाएँ उभर रही हैं उसके
चेहरे पर, कुछ नहीं खोज पाने की शिकन... एक गैर मामूली सी खुशी
तैरती है मेरे भीतर- मैं नार्मल हूँ, पूरी तरह नार्मल।
‘‘मैं शिखा जी से कुछ
पूछूँ? कोई ऐतराज?’’
‘‘नहीं। लेकिन जहां
तक मुझे लगता है जितना मुझे मेरे बारे में पता है उतना ही शिखा को। और शिखा तो सब
आपको पहले ही बता चुकी है।’’
‘‘हो सकता है आप सही
हों। मैं भी यही चाहता हूं। लकिन फिर भी... ’’
‘‘मिसेज मोहंती,
आपने बताया की आपकी शादी के तेरह साल हो चुके। पहले भी कभी शेखर
बाबू में कुछ ऐसा लगा जो...’’
‘‘नहीं, कभी नहीं। वो तो छह-सात महीने पहले की बात है, ये आदित्य
का ऐडमिशन छठी क्लास में करवा कर आए थे, दफ्तर से छुट्टी ले
रखी थी... और उसी दिन पहली बार छिपकलियों
पर टूट पड़े थे। तब मुझे कहाँ पता था कि... ’’
डाक्टर से मुलाकातों का
सिलसिला लगातार चल रहा है। अब तो एक साल पूरा हो गया है यहाँ आते हुए... लेकिन यह शिखा मानती ही नहीं... हर बार फालतू के
सवाल... डाक्टर बेवकूफ बना रहा है और वह
कि पैसे फूँके जा रही है...
‘‘मिसेज मोहंती,
अब तक की बातों से मुझे कोई पक्का सूत्र नहीं मिला है लेकिन पता
नहीं क्यों मुझे इसका संबंध किसी न किसी घटना से जुड़ा लगता है जिसके बारे में मिस्टर
मोहंती बता नहीं रहे। हो सकता है उन्हें याद भी न हो। कई बार ऐसा देखा गया है कि
हमारे भीतर कुछ ऐसी बातें दबी होती हैं जिसका पता हमें खुद भी नहीं होता। उन्हें
जबरन धकेल देते हैं हम विस्मृति की कंदराओं में, बाहर कोई
बड़ा पत्थर रखकर। वह मेरे जीवन की घटना नहीं, इसे भूल जाना है
मुझे... और आश्चर्य कि कई बार हो भी जाता है ऐसा। पूरी ज़िंदगी बीत जाती है
विस्मृति में। कई बार कोई छोटी घटना भी, जिसका साम्य हो उस
विस्मृत घटना से, परेशान करती है हमें बार-बार। यह कुलबुलाहट
दरअसल उसे उजागर करने की ही चाह होती है लेकिन विस्मृति का पत्थर दबाए रहता है उसे
जिसकी परिणति असामान्य हरकतों में होती है।’’
‘‘लेकिन उसका पता
कैसे चल सकता है? कोई उपाय? कोई थेरैपी?’’
मुझे फिर से क्रोध आ रहा है
इस डॉक्टर पर और उससे भी ज्यादा शिखा पर... ये दोनों मुझे पागल साबित करके ही
मानेंगे। मैं चाहता हूँ भाग जाऊँ यहाँ से। लेकिन ऐसा करना उनके संशय को और मजबूत
ही करेगा। एक बार फिर पसीने से भर आई हथेलियों को मसलता हुआ क्रोध पीकर रह जाता
हूँ मैं।
‘‘तरीका है, इसका, पर गारंटी नहीं। लेकिन प्रयोग किया जा सकता है।
‘‘कौन-सा तरीका?’’
मैं अब झुँझला उठता हूँ।
‘‘दवा के प्रभाव में
आपके अवचेतन की तलाश।’’
मैं कुछ बोलूँ इससे पहले शिखा
चौंक पड़ती है- ‘‘कहीं आप नार्को अनालिसिस की बात तो नहीं कर रहे हैं?’’
‘‘आप ठीक समझ रही
हैं।’’
तो अब मैं इसे पागल के बाद
अपराधी भी लगने लगा। मैं अब उन दोनों के बीच कुछ नहीं बोलना चाहता। देखूँ यह शिखा
क्या-क्या करवाती है मुझे एबनॉर्मल साबित
करने के लिए।
‘‘लेकिन यह परीक्षण
तो खूँखार अपराधियों से गुनाह कबूल करवाने के लिए होता है।’’
‘‘आप फिल्मों,
समाचारों की बात कर रही हैं। मैं एक साइकेट्रिस्ट की हैसियत से बोल
रहा हूँ। और फिर अपराधी भी तो मनोरोगी ही होता है। वैसे मैंने तो उपाय भर बताया
है। निर्णय तो आपका होगा।’’
‘‘डॉक्टर इसका कोई
साइड इफेक्ट! शेखर ठीक तो हो जाएंगे न?’’ नहीं कोई साइड
इफेक्ट नहीं है इसका। लेकिन मैंने पहले ही कहा है कोई गारंटी नहीं है ठीक होने
की।’’
और हां, शेखर बाबू आइ एम सारी। मैंने आपको बहुत परेशान किया। यूं तो डॉक्टर के लिए
हर केस महत्वपूर्ण होता है लेकिन यकीन मानिए, मेरे लिए यह
महज एक केस नहीं है। आप अब हमारे दोस्त हैं। आप ऐसा मत सोचिए कि यह परीक्षण आपको
एबनार्मल साबित करने के लिए है। दरअसल सबकुछ ठीक रहा तो इससे ही यही साबित होगा कि
आप नार्मल थे, नार्मल हैं।’’
डॉक्टर हमें छोड़ने खुद कार
पार्किंग तक आया है।’’ मिसेज मोहंती आपलोगों का जो भी निर्णय हो, बताइएगा ज़रूर। यह दोस्ती जारी रहेगी।’’
मुझसे ज्यादा शिखा परेशान
है। लेकिन मैं जानता हूँ वह मानेगी नहीं। उसे अपनी जिद के आगे कुछ भी नहीं सूझता।
डर तो मुझे भी लग रहा है लेकिन... इतना जानता हूं वह मुझे सचमुच प्यार करती है... पता
नहीं क्यूं मैं चाहकर भी उस पर गुस्सा नहीं कर पा रहा। अचानक ही मेरे भीतर यह शांति
कहाँ से आ गई है। कहीं मेरे इस तोष की वजह उसकी बेचैनी तो नहीं है... मैं करवटें बदल रहा हूँ। वह इंटरनेट खंगाल रही
है... बार-बार गुगल इंजन सर्च कर रही है।
बीसियों पोर्टल के लिंक चेक कर चुकी है वह। वह अपनी तरफ से पूरी तसल्ली कर लेना
चाहती है। नार्को अनालिसिस क्या है? कैसे किया जाता है?
इसके साइड इफेक्ट्स क्या हैं? वह जितने पन्ने
पढ़ती हैं उसकी बेचैनी और बढ़ती जाती है। बीच-बीच में एक संतोष भी छलकता है उसके
चेहरे पर और अब जब उसने इंटरनेट से लॉग आउट किया है उसकी आंखों में नींद की जगह
निर्णय के निशान हैं। वह जानती है कि जो
भी चिकचिक होनी थी पहले हो चुकी है जब एक बार मैंने डॉक्टर से मिलने को हाँ कह
दिया तो पीछे नहीं हटूँगा।
शिखा रास्ते भर मेरा हाथ
अपने हाथों में लिए है। हम चुप हैं। लेकिन हमारी चुप्पी बतिया रही है आपस में बहुत
कुछ... मुझसे नाराज हो?... नहीं खुद से... मैं जानती हूं तुम
बिल्कुल नॉर्मल हो... लेकिन वो छोटी-छोटी बातें... वो रातों को तुम्हारी बेरूखी...
वह आदित्य का रोज सहमते जाना... लेकिन तुम कहो तो हम अभी भी... मैं उसके होठों पर
अपनी उंगलियां रख देता हूँ...
आज डॉक्टर ने हमें
लेबोरेट्री में बुलाया है। आज वह अकेले नहीं है, उसके साथ
एनैस्थीसीया एक्सपर्ट भी है और एक ट्रेंड नर्स भी। सबने हरा एप्रन, टोपी और मास्क पहन रखा है। हमारी कल्पना की लैबोरेट्री से ज्यादा आपरेशन
थिएटर का दृश्य लग रहा है यह। शिखा भी मेरे साथ रहना चाहती है लेकिन डॉक्टर मना
करता है। शिखा डॉक्टर को हिदायत दे रही है, ‘‘डॉक्टर,
सोडियम पेन्टोथैल की मात्रा का ध्यान रखिएगा। मैंने रात इंटरनेट पर
पढ़ा है कि उसकी थोड़ी-सी ज्यादा मात्रा सबकुछ तबाह कर सकती है। यदि ऐसा कुछ हुआ तो...
’’ उसकी आंखें छलछला आई हैं। ‘‘आप निश्चिंत रहिए मिसेज मोहंती, मैंने एक्सपर्ट को बुला लिया है, कुछ भी नहीं होगा शेखर
बाबू को।’’
उदास शिखा मेरा हाथ थाम लेती
है,
‘‘बेस्ट ऑफ लक। मैं बाहर ही खड़ी हूं।’’
नर्स ने मुझे बेड तक पहुंचा
दिया है। अब वह दूसरे डॉक्टर की मदद कर रही है। हमारा डॉक्टर सिरहाने सामने की
कुर्सी पर बैठा है। यह क्या, वो दूसरा वाला डॉक्टर मेरी तरफ
झुका आ रहा है। उसके चेहरे की मासूमियत कहीं बिला गई है। उसकी आंखों का रंग बहुत
पहचाना सा लगता हैं। मैं पूरी ताकत से उसे परे धकेल देता हूं। वह गिरते-गिरते बचा
है।
‘‘क्या हुआ आपको,
मैं तो बस इंजेक्शन के लिए वेन तलाश रहा था।’
‘‘नहीं, कुछ नहीं हुआ। मेरा दम घुट रहा है। घबराहट हो रही है। मैं अकेले नहीं रह
सकता यहाँ... डर लग रहा है मुझे। डॉक्टर प्लीज शिखा को बुला दीजिए।’’
‘‘मैं अभी मिसेज
मोहंती को बुलवाता हूँ वह रहेंगी आपके पास।’’
शिखा के हाथों में मेरे हाथ
हैं,
सांत्वना भरे हाथ। मैं डरता क्यों हूँ... छिपाने लायक क्या है ही मेरे
भीतर... मैं क्यों घबराऊं... अंधेरा धीरे-धीरे घेरने लगा है मुझे... चारों तरफ
अंधेरे का सागर उग आया है... लेकिन शिखा की उँगलियां ले जाएँगी मुझे इसके पार... सबकुछ
तैरने लगे हैं... कुर्सी, टेबल, डॉक्टर, नर्स, शिखा... मैं तैर नहीं पा रहा।
यह क्या डॉक्टर ने क्या इशारा
किया है... शिखा भी धीरे-धीरे दूर जा रही है मुझसे। अब डॉक्टर भी नहीं दिख रहा... मैं
फिर अकेला...
उसके चेहरे पर पहले दिन की
तरह मुस्कान है। पता नहीं अब क्या चाहता है वह? मैं या शिखा कुछ
पूछें उसके पहले ही वह बोल उठता है-
‘‘मिसेज मोहंती,
लगता है हम सही रास्ते पर चल रहे हैं। डिप्रेशन की दवा से मिस्टर
मोहंती का कुछ नहीं होने वाला। हमने इस पर काफी सोचा है और इस निर्णय पर पहुंचे
हैं कि क्यों न उस दिन की रिकार्डिंग आप दोनों को इकट्ठे दिखाऊं। शेखर बाबू की
समस्याओं का रास्ता यहीं से निकले, शायद।’’
फिर वही अंधेरा कमरा, हम सब बैठे हैं... धड़कते दिल लिए। पता नहीं उस दिन क्या कहा था मैंने। मैं
एक बार फिर पसीने से तर-ब-तर हो रहा हूं। और तभी सामने स्क्रीन पर वही दृश्य उभरते
हैं। मैं, दोनों डॉक्टर, नर्स और एक
मद्धम सी तांबई रोशनी। नर्स मेरे मुंह से निकल आए झाग को साफ करती है और फिर डॉक्टर
का स्वर गूंजता है...
‘‘याद कीजिए मिस्टर
मोहंती, अपने बचपन की कोई बात, जिसने
आपको बहुत तकलीफ पहुंचाई हो। कोई घटना... कोई व्यक्ति...’’
प्रत्युत्तर में मेरे अस्फुट
से जो स्वर निकल रहे हैं वे औरों के लिए भले ही ध्वनि मात्र हों पर मेरे आगे तो जैसे
दृश्यों के जंगल उग आए हैं। सब कुछ एक बार फिर से घटित हो रहा है मेरे आगे... मैं शर्मिंदा
हूं,
छुप जाना चाहता हूं किसी दूसरे अंधरे में... इस कमरे का अंधेरा तो
जैसा मुझे और अनावृत कर रहा है...
मैं छठी क्लास में हूँ। उम्र
है कोई नौ साल। माँ चाहती हैं मैं खूब पढूँ, बड़ा आदमी बनूँ। मैं
चाहता हूँ गायक बनूँ, पिता भी यही चाहते थे। लेकिन अब पिता
नहीं रहे सिर्फ़ माँ हैं, और उनके सपने भी। माँ ने गांव के
नामी शिक्षक रामसेवक बाबू से बात कर ली है। मैंने वहीं सैनिक स्कूल, नेतरहाट और इसी तरह की कई अन्य प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी के लिए
पढ़ना शुरू कर दिया है।
रामसेवक बाबू अपनी अनुशसनप्रियता
और कठोर सजा के लिए पूरे गांव में जाने जाते हैं।
‘‘तुम्हारे सामने दो
सजायें हैं, तुम्हारी मर्जी जो चुन लो। पांच सौ बार
कान-पकड़कर उठक-बैठक या फिर पढ़ाई खत्म होने के बाद चक्रवृद्धि व्याज के दसों प्रश्न
हल करके ही घर जाओ’’ मैंने दूसरे विकल्प के लिए हामी भर दी है। साथ के सारे बच्चे
अपनी-अपनी किताबें और लालटेन लेकर घर जा रहें हैं... मुझे अंधेरी रात में अकेले
लौटने का डर अभी से सताने लगता है।
‘‘तो तुम सवाल बनाओ,
मैं खाना खाकर आता हूँ।’’
रामसेवक बाबू जब तक लौटे मैं
पांच प्रश्न हल कर चुका हूँ।
‘‘बन गए सारे सवाल?’’
‘‘अभी तक पांच ही बने
हैं।’’
‘‘लाओ देखूँ कितने
ठीक हैं।’’
‘‘चलो ये तो ठीक हैं।
अब जाओ काफी देर हो गई है। कल पूरा बना कर लाना।’’
‘‘तुम अभी तक गए नहीं?’’
रामसेवक बाबू के हाथ-पैर धोकर आने तक मैं वहीं खड़ा हूँ।
‘‘अकेले डर लग रहा
है। पंकज कह रहा था कि जंगली माई के पास भूत रहता है।’’
‘‘चलो, उठाओ लालटेन तुम्हें सड़क तक छोड़ दूँ।’’
दूसरे दिन मैं सारे प्रश्न
हल करके लाता हूं। रामसेवक बाबू गणित में और मेहनत करने की बात करते हुए मेरी कॉपी
पर गुड लिख देते हैं। ‘‘तुम चाहो तो सुबह जल्दी जा आया करो। मैं तुम्हें अलग से
गणित पढ़ा दूँगा।’’
अब मैंने गणित का अभ्यास और
तेज कर दिया है। रामसेवक बाबू अब मुझे पहले से ज्यादा मानने लगे हैं। ट्यूशन में
कोई पाठ पढ़ाते वक़्त बच्चों की झुंड में मैं अब बिल्कुल उनके पास खड़ा होता हूँ। अब
मैं उनका सर्वप्रिय छात्र हूँ और कुछ लड़के मुझसे जलने भी लगे हैं।
जाड़े के दिन हैं। सुबह
अंधेरा देर तक पसरा रहता है। लेकिन मुझे क्या जैसे रात वैसे भोर। मैंने सूरज उगने
से पहले ही गणित पढ़ने जाने का क्रम नहीं तोड़ा है।
‘‘आज कुछ तबीयत ठीक
नहीं लग रही। पूरा बदन टूट रहा है। सारी रात बुखार था। तुम बगलवाली चौकी पर खुद ही
कुछ अभ्यास करो। मैं थोड़ी देर और सो लेता हूं।’’ दरवाज़ा खोलने के बाद आज पहली बार
रामसेवक बाबू रजाई में घुस गए हैं।
मैं किताब के पन्ने पलट रहा
हूं। उधर रामसेवक बाबू करवट बदलते हुए कराह रहे हैं।
‘‘सर तबीयत ज्यादा खराब
है? पैर दबा दूँ?’’
‘‘अरे नहीं बस यूँ
ही।’’ मैं उनके पैर दबा रहा हूँ।
‘‘अरे तुम तो बहुत
अच्छा पैर दबाते हो। कहाँ से सीखा इतना अच्छा पैर दबाना।’’
‘‘सर, इसमें सीखना क्या है? घर में दादाजी के पैर दबाता
हूं। कभी-कभी माँ के भी।’’
‘‘नीचे का दर्द खत्म
हो गया अब जरा जांघ भी दबा दो ऐसे ही। रामसेवक बाबू पीठ के बल लेट गए हैं। और मैं
गुरू सेवा में तल्लीन हूँ। उन्होंने खुद ही मेरा हाथ और ऊपर तक खींच लिया है-
‘‘जरा इधर भी’’ मैं सकपका जाता हूँ, रामसेवक बाबू ने जांघिया
नहीं पहना है। ‘‘वैसे ही दबाना जैसे नीचे दबा रहे थे... पूरा दर्द निकल गया बस
इतना ही बचा है।’’ और थोड़ी ही देर में मेरा हाथ गीला हो जाता है। मुझे घिन-सी हो
आती है। ‘‘छोड़ दो अब। बहुत सेवा की तुमने।
अब शायद नींद भी आ जाए। ’’
पूरे दिन एक घिन-सा चिपका
रहता है मेरे हाथों में। बार-बार हाथ धोता हूँ पर लगता है जैसे कुछ गीला, लिजलिजा सा मेरी हथेलियों में चिपका हुआ है। उन हाथों से खाने का भी मन
नहीं हो रहा। मैं माँ से कहता हूँ माँ मुझे अपने हाथों से खिला दो।’’ माँ
मुस्कुराती हुई मुझे कौर-कौर खिला रही हैं। इतना बड़ा हो गया पर बच्चों जैसी लाड़।
इस बार मंथली टेस्ट में मुझे
सौ में सौ अंक आए है। और मेरा ऊहापोह भी कमा है कुछ। कितनी खुश हैं माँ। धीरे-धीरे
फिर सब कुछ पूर्ववत होने लगता है। मैं भूलने लगा हूँ उस दिन को, उस दिन की घटना को। मुझे लगता है, अब मुझे गणित के
अतिरिक्त ट्यूशन की जरूरत नहीं।
जब से रामसेवक बाबू ने नौकरी
कर ली है,
सुबह के बैच में उन्हें जल्दी रहती है। इन्हीं दो घंटों के बीच थोड़ा
वक्त निकालकर वे नहा लेते हैं। बगल वाले का मकान आजकल खाली ही है। उन्होने चाभी
रामसेवक बाबू को ही दे रखी है सो वे नहाने अक्सर वहीं जाते हैं। सर के नहाने के
लिए चापाकल चलाने के लिए बच्चों में होड़-सी रहती है। एक तरफ पढ़ाई से कुछ देर की
छुट्टी और दूसरी तरफ सर के कृपापात्र होने का सुख। और आज तो उन्होंने मुझे खुद ही
चलने को कहा था।
‘‘बहुत देर तक कल
चलाना पड़ा न, हाथ दुख गए होंगे और खड़े-खड़े पैर भी। आओ आज
तुम्हारी देह मैं दबा देता हूँ।’’ मेरे ना-ना कहने के बावजूद रामसेवक बाबू मुझे
जबरदस्ती बिस्तर पर लिटाकर मेरे पैर दबाने लगते हैं।
‘‘सर, यह क्या कर रहे हैं आप? आप शिक्षक हैं मेरे। मुझे
जाने दीजिए। अभी स्कूल का सबक तो बचा ही हुआ है। लेकिन वे नहीं मान रहे। उनका यह
अप्रत्याशित व्यवहार परेशान कर रहा है मुझे। मेरा पैर दबाते-दबाते जैसे वे लेट ही
गए हैं मेरे ऊपर। मैं कोशिश करता हूँ पर उनके भारी वजन से मुक्त नहीं हो पा रहा।
अचानक उन्होंने मेरी हाफ पैंट नीचे कर दी है और मैं एक बेइंतहा दर्द से कराह उठा
हूँ। मैं भाग नहीं पा रहा उनके चंगुल से। मेरी चीख जैसे दरवाजों से लड़कर लौट-लौट आ
रही है।
मैं स्कूल नहीं जाता हूँ।
कुएँ पर बैठा रो रहा हूँ। सारा दिन। दर्द रिस-रिसकर बह रहा है। सोचता हूँ माँ से
कह दूँ यह सब, लेकिन कैसे, शब्द नहीं समझ
में आ रहे...
मैंने ट्यूशन जाना छोड़ दिया
है। हाँ सुबह-शाम घर से निकलता जरूर हूँ पर बैठा रहता हूँ जाकर उसी कुएँ पर जहाँ
अब लोग पानी भरने नहीं आते... कुँआ सूखा तो नहीं है लकिन कभी साफ नहीं होता और
उसमें झाँको तो मेढकों को लपकते साँप दिखाई पड़ते हैं।
‘‘रामसेवक बाबू आए
थे। कह रहे थे तुम आजकल पढ़ने नहीं जा रहे।’’
‘‘माँ मेरी तैयारी हो
गई है। अब फालतू पैसे देने से क्या फायदा। अब तो सिर्फ परीक्षाएँ ही शेष हैं,
मैं अभ्यास घर पर ही कर लूँगा।’’ माँ खुश हैं, पिता की अनुपस्थिति में बेटा जल्दी बड़ा हो गया है इसे फालतू खर्च की समझ
भी हो गई है, अब से ही।
मेरा चयन नेतरहाट स्कूल में
हो गया है। अब मुझे गांव छोड़ना होगा। लेकिन स्मृतियाँ अब भी मेरे पीछे पड़ी हैं।
जाने से पहले एक बार फिर मैं उसी कुएँ पर हूँ, उदास और भारी मन।
अब गावँ छोड़ना होगा, माँ को भी। मैं कुएँ में ईंट-पत्थर का
एक-एक टुकड़ा फेंक रहा हूँ साथ में अपनी सारी पीड़ा... सारी तकलीफ और वो स्मृतियां भी...
आखि़री पत्थर मेढक को दबोचते सांप को लगा है... छपाक...
कमरे में रोशनी होते ही
सकपका जाता हूँ मैं... यह अंधेरा तो नंगा कर गया मुझे... छुप जाना चाहता हूँ मैं
किसी दूसरे अंधेरे में... मैं भाग जाना चाहता हूँ दूर, बहुत दूर। ठीक नहीं किया शिखा ने... डॉक्टर ने तो और भी नहीं, बहुत मुश्किल से भूल सका था मैं यह सब... और इन दोनों ने... मैं बिना कुछ
बोले निकल पड़ता हूँ बाहर...
***
रचनाकार परिचय
जन्म : 11 अक्टूबर 1973, शिवहर (बिहार)
पेशे से कॉस्ट अकाउंटेंट। कहानी तथा कथालोचना दोनों विधाओं में समान रूप से सक्रिय।
प्रकाशन : वह सपने बेचता था, गौरतलब कहानियाँ (कहानी-संग्रह)
केंद्र में कहानी, भूमंडलोत्तर कहानी (कथालोचना)
सम्पादन : स्वप्न में वसंत (स्त्री यौनिकता की कहानियों का संचयन),‘खिला है ज्यों बिजली का फूल’ (एनटीपीसी के जीवन-मूल्यों से अनुप्राणित कहानियों का संचयन), ‘पहली कहानी : पीढ़ियां साथ-साथ’ (‘निकट’ पत्रिका का विशेषांक) ‘समय, समाज और भूमंडलोत्तर कहानी’ (‘संवेद’ पत्रिका का विशेषांक)’, बिहार और झारखंड मूल की स्त्री कथाकारों पर केन्द्रित 'अर्य संदेश' का विशेषांक, ‘अकार- 41’ (2014 की महत्वपूर्ण पुस्तकों पर केन्द्रित), दो खंडों में प्रकाशित ‘रचना समय’ के कहानी विशेषांक।
वर्ष 2015 के लिए ‘स्पंदन’ आलोचना सम्मान से सम्मानित।
संपर्क: D 4 / 6, केबीयूएनएल कॉलोनी, काँटी बिजली उत्पादन निगम लिमिटेड,
पोस्ट– काँटी थर्मल, जिला- मुजफ्फरपुर– 843130 (बिहार)
मोबाईल – 9425823033; ईमेल – brakesh1110@gmail.com
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