'लूव्र के इस भयावह एकांत में' : विनोद भारद्वाज की कविताएँ
विनोद भारद्वाज कविता और कला की दुनिया में पूरी तरह रमे होने के बाद भी मुख्यधारा की साहित्यिक राजनीति से बहुत द...
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विनोद भारद्वाज कविता और कला की
दुनिया में पूरी तरह रमे होने के बाद भी मुख्यधारा की साहित्यिक राजनीति से बहुत
दूर खड़े नज़र आते हैं; कविता, उपन्यास, पेंटिंग्स, विश्व
सिनेमा के सुंदर तत्वों से रची गयी अपनी ही दुनिया में लीन। लेकिन इसका यह अर्थ
नहीं कि उनका कवि अपने समय से कटा हुआ है। उनकी कवि दृष्टि में निरंतर हमारा समय
और उसके प्रश्न अपनी उपस्थिति बनाए हुए हैं।
समालोचन पर उनकी कविताओं पर लिखी एक
टीप में दिवंगत कवि विष्णु खरे ने लिखा था :
‘विनोद आसानीपरस्ती, playing to the gallery और constituency-building
के कवि नहीं हैं. वह लोकप्रियता और सराहना के सवाल को सीधे भाड़ में
जाने देते हैं. यदि विनोद के पास हिरणों का शिकार जैसे जटिल, अद्वितीय कविताएँ हैं तो टाइप करनेवाली लड़की जैसे बेहद मार्मिक रचनाएँ भी
हैं. 'हवा' सरीखी कविता भी सरलता से न
सूझ पड़ती है न समझ आती है. पर्यावरण जैसे बहुआयामीय विषय पर,जिसमें
राजनीति और पूँजीवाद लगातार मौजूद हैं,कविता की कल्पना आज से
35 वर्ष पहले बहुत कम की जा रही थी, फिर भी टाइप करने वाली
लड़की जैसी near-perfect, flawless कविता यदि समय-सीमा में
होती तो भारत भूषण पुरस्कार उसी को देना था. उसका अनुवाद 1984 में जर्मन में भी
बहुत सराहा गया था.’
मेराकी पर प्रस्तुत है कोरोना काल में
लिखी गयी उनकी कुछ नयी कविताएँ
वाइरस
मेरी प्रेरणा
तुम इतनी उदास क्यूँ हो
क्यूँ तुम इतनी दूर भाग जाती हो
जब इस बेरहम सूखे मौसम में मुझे
तुम्हारी बहुत ज़रूरत है
तुम खंडहरों में कहीं छिपी होगी
मैं ज़रूर तुम्हें खोज निकालूँगा
मैं तुमसे कहूँगा हेलो
तुम थोड़ी देर के लिए मुझे देखोगी
प्यार से
कहोगी, ये
वक़्त नहीं है हेलो करने का
तुम जानते हो मैं कल रात कितनी देर तक
रोती रही
भागती रही अपने सुखों से भी
दुखों से भी
सारे सुख तो बहुत तेज़ी से सूख जाते
हैं
इस कड़ी धूप में
दुख बढ़ते ही जाते हैं इन खंडहरों में
सुख की तलाश में
ये वक़्त प्रेम करने का नहीं है
फिर धीरे-से तुम फुसफुसाई
शायद
इस शायद में
कई शहद के जंगल हैं मेरी प्रेरणा
तुम मुझे कभी-कभी दिखती रहा करो न
तुम ज़ोर से हँसती हो
इन सूने खंडहरों में
भाग जाती हो उस लंबे बीहड़ रास्ते पर
कुछ लोग वहाँ खड़े हैं
जाने क्यूँ उनके हाथों में मरहम,कुछ सूखी रोटियाँ और पानी के पुराने
मटके हैं
तुम उस भीड़ में शामिल हो जाती हो
मेरी प्रेरणा
तुम
कहती हो
किस प्रेरणा की तलाश में हो तुम
अरे, ओ
कवि!
प्रेरणा तो उस वाइरस की तरह है
जो मरा पड़ा रहता है
तुम उसे छू कर
मेरे शहद के स्वाद में डूबे ओंठों पर
रख कर
उसे ज़िंदा कर देते हो।
अंतिम प्रेम -पत्र
प्रेम- पत्र क्या प्रेम हो जाने के
बाद
बहुत देर से भी लिखा जा सकता है
क्या कोई डाकिया उसे सही जगह पर
पहुंचा देगा
क्या वो पढ़ेगी उस पत्र को जो वजन में
किसी किताब की तरह होने का भ्रम पैदा कर रहा है
काफ्का कैसे लिख पाया होगा मिलेना को
इतने गहरे प्रेम -पत्र
वॉट्सएप्प की दुनिया में
गहरे विचारों वाले प्रेम- पत्र
क्या कोई
अर्थ रखते हैं
डाकिया बहुत तेज़ लू में सर पर साफा
बांधे
उस टूटे लेटर बॉक्स में एक प्रेम पत्र
डाल कर
चुपचाप चले जाता है
क्या उस लड़की को एहसास हुआ होगा किसी
प्रेम पत्र के अचानक इस तरह से आ जाने
का
लू में वह क्या निकली होगी
क्या उसने कहीं अलग कोने में जा कर
उसे कई बार पढ़ा होगा
प्रेम-पत्र एक बार पढ़ने के लिए नहीं
होते
उसका स्मार्ट फ़ोन कहीं खो क्यूँ नहीं
जाता
इस प्रेम पत्र में आत्मा की रोशनी का
जो अद्भुत अन्धेरा और आलोक है
उसे स्मार्ट फ़ोन की टिक टिक
कुछ कांपते हुए
खत्म किए जा रही है
![]() |
चित्र साभार -ए रामचंद्रन |
ये नहीं है कविता
सत्तर किलोमीटर चल कर मेरी माँ ने
मुझे जन्म दिया
इस एक वीरान सड़क पर
और उसकी हिम्मत देखिए वो फिर चल पडी
सिर्फ एक घन्टे बाद
चलती रही चलती रही एक सौ साठ किलोमीटर
और
नाशिक से हम चले सोलह थे,बॉर्डर पर पहुँचे सत्रह
मैं नन्ही -सी थी पर देख सकती थी सब
कुछ
समझ सकती थी बहुत सारी चीजें
बॉर्डर पर पुलिसवाला बुरा नहीं था
उसने मुझे थोड़ी देर गोदी में सम्भाला
उसने मेरी माँ से पूछा,कहाँ जाओगी
माँ देर तक हिसाब लगाती रही
शायद अभी घर बहुत दूर है
अभी तो मीलों मुझको चलना है
और मैं देख रही हूं कि वह अपने अजीब
पागलपन में
चले जा रही है
मैं क्या किसी घर पहुंच पाऊँगी
घर कैसा होता है माँ?
ये दुनिया क्या मुझे कोई घर दे सकेगी
रास्ते में बैठ कर तेरह औरतें और तीन
मर्द
आग के लिए लकड़ियाँ ढूंढ रहे हैं
और मैं एक बच्ची इस लंबे रास्ते में
अपना घर खोज रही हूँ
तुम बताओ न माँ घर क्या इतने दूर होते
हैं?
(एक सच्ची घटना से प्रेरित )
![]() |
चित्र साभार- जतिन दास |
मीठी उदासी
मैं एक उजाड़ में खड़ा था
मैं घर लौटना चाहता था
मुझे अचानक एक उदासी मिल गई
बोली,मैं
भी अब थक गयी हूँ इस भयावह उजाड़ से
मुझे अपने कंधे पर बैठा कर ले चलो
उस हरे रसीले मैदान में
जिसे तुम अपना प्यारा -सा घर कहते हो
मुझे लगा उसका वज़न ज़्यादा नहीं है
ले चलता हूँ इस बेचारी को
मुझे क्या पता था कम्बख़्त मेरे ही घर
को हथिया लेगी
मैं अपने घर में ही क़ैद था
उदासी अब कभी -कभी ज़ोर से हँसने भी
लगी थी
और बस एक दिन एक अल्बम मुझे मिल गई
तुम्हारी तस्वीरों की
मैं अब एक दूसरी उदासी में क़ैद था
एक मीठी उदासी
और उससे मैं ख़ुद ही बाहर नहीं आना
चाहता था
![]() |
चित्र साभार- रेने मागरित्ते |
मोना लीसा 2020
स्त्री का रहस्य उसके बालों में है
उसकी आँखों में
या उसकी मुस्कान में
यह मेरी समस्या नहीं है
सारे मर्दवादी कवियों को मैंने कब से
विदा दे रखी है लियोनारदो !
इस मास्क ने ज़रूर मेरी मुस्कान मुझसे
छीन ली है
मेरी भीड़ कहीं बेरहमी से छिपा दी गयी
है
बरसों पहले लोगों पर पाबंदी नहीं थी
वे मेरे पास आ सकते थे
मुझसे बातें कर लेते थे
कुछ उनके गुप्त रहस्य मैं जान जाती थी
कुछ औरतें मेरी सहेलियाँ बन जाती थीं
एक दिन उन्हें भी मुझसे दूर कर दिया
गया
एक मज़बूत रस्सी का घेरा बना दिया गया
यह लक्ष्मण रेखा मेरे लिए नहीं थी
मेरे चाहने वालों के लिए थी
तुम्हें क्या सचमुच लगता है लियोनारदो
कि मुझे एक आराम की ज़रूरत थी,या एक गहरे अकेलेपन की
कमबख़्तों ने मुझे भी एक ख़ूबसूरत
मास्क पहना दिया है
क्या उन्हें डर है कि यह महामारी मेरी
रहस्यमय मुस्कान
मुझसे छीन लेगी
नहीं, डरो
नहीं
मेरे पास आओ
मुझे छुओगे तो ख़तरे की घंटियाँ बज
जायेंगी
पर मेरे बहुत क़रीब आ जाओ
आज मुझे तुम्हारी सबसे ज़्यादा ज़रूरत
है
लूव्र के इस भयावह एकांत में
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लेखक परिचय
वरिष्ठ कवि,उपन्यासकार,कला-फिल्म समीक्षक विनोद भारद्वाज ये मानते हैं किसी भी दौर में एक साथ लिखनेवाले एक तरह से समकालीन ही होते है। दिनमान साप्ताहिक में रघुवीर सहाय द्वारा चुने जाने पर वह वहां लंबे समय तक पत्रकार रहे। आजकल लेखन के अलावा कला सम्बंधी फिल्में भी निर्देशित कर रहे हैं। बिहार म्यूजियम और कलाकार स्वामीनाथन पर उनकी फिल्में काफी चर्चित रही हैं। तीन कविता संग्रह, तीन उपन्यास, एक कहानी संग्रह के अलावा सिनेमा और कला पर कई पुस्तकेँ प्रकाशित। हार्परकोल्लिंस ने अंग्रेज़ी में उनके दो उपन्यास भी छापे हैं। 89 में रूस के अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह की जूरी के सदस्य रह चुके हैं।
निर्णायक विष्णु खरे ने 1981 में विनोद भारद्वाज की कविता हवा को 1981का प्रतिष्ठित भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार दिया था। उन्हें नामवर सिंह और मन्नू भंडारी,केशव मलिक इन तीन सदस्य के निर्णायक मंडल ने श्रेष्ठ सर्जनात्मक लेखन के लिए संस्कृति पुरस्कार दिया था