'वो कुरसवां की अँधेरी सी हवादार गली'- श्रीधर दूबे की कविताएँ
कवि अपने लिखने के लिए किसी असाधारण विषय की तलाश में नहीं रहता बल्कि रोज़ के जीवन की वे सभी चीज़ें जो अक्सर सामान्य नज़रों से उ...
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कवि अपने लिखने के लिए किसी असाधारण विषय की तलाश में नहीं रहता बल्कि रोज़ के जीवन की वे सभी चीज़ें जो अक्सर सामान्य नज़रों से उपेक्षित रह जातीं, एक कवि अपनी सजग दृष्टि से उसे कविता में ढालकर हमें उस ओर देखने का संकेत देता है। श्रीधर दूबे कविता के युवा स्वर हैं जिनकी कविताओं के विषय वही छूट गई चीज़ें, छूट गए लोग हैं जिनके अनकहे प्रश्नों को बहुत ही महीन संवेदना के साथ वह अपनी कविताओं में बुन देते हैं।
वरिष्ठ आलोचक ओम निश्चल कहते
हैं, 'कभी हिंदी के सुकवि नीरज ने लिखा था : वो कुरसवां की
अंधेरी सी हवादार गली मेरे गुंजन ने जहां पहली किरन देखी थी. श्रीधर दुबे की
कविताओं में प्रेम का यह अलक्षित जज्बा पग-पग पर देखने को मिलता है। समय के अंतराल
में अपना मूल्य खोती वस्तुएं और रिश्ते उन्हें
विचलित करते हैं। उन्हें राह में पड़ी लेडीज रुमाल, सूनी
बालकनियाँ जीवन के नेह-छोह से भरती हैं। उम्रदराज़ कड़ाही और समय की खूंटी पर टँगे
कोट की तरह वृद्ध पिता का दिखना उन्हें अतीत के दुकूल में विषण्ण कर देता है। भाषा
की दृष्टि से श्रीधर दुबे का निर्भार प्रयत्न उनके सहज कवि स्वभाव का परिचायक है।'
मेराकी पर प्रस्तुत है उनकी चुनिंदा रचनाएँ
औरत
वह जब भी टूटी
तो बस इतना भर ही टूटी
कि कुछ और बन सके
तीखी हुई
तो बस इतना ही
कि बना रहे सब्जी का स्वाद
खट्टे के बाबत भी
बस चटनी के स्वाद भर ही खट्टी हो पाई
नमक बनी
तो स्वाद की ही तासीर के मुताबिक
आहिस्ते-आहिस्ते
घुल गई
दाल में
पापा का कोट
पापा का
पुराना कोट
कहीं गुम हो गया
घर के
एक कोने में
लगी खूँटी से
टँगा रहता था चुपचाप
या कभी-कभी वह भी
आकार पा लेता था
पापा के देह में ही
उन्हीं के देह जैसा,
सालों गुजर गए
उस कोट को
इतिहास में तब्दील हुए
मुझे तो ठीक-ठाक याद भी नही
कि वो चीथडे-चीथडे हो फटा
या फिर
दे दिया गया
किसी ज़रुरतमन्द को
वैसे पापा अब
कोट नहीं पहनते
मुझे वो खुद
अब एक कोट की तरह दिखते हैं
ठीक उसी की तरह
घर के
एक कोने में
समय की खूँटी पर
टँगे हुए चुपचाप
एक उम्रदराज़ कड़ाही
साँझ की
सँवलाई अँगुलियों ने
मानों छुआ हो
घर के कोने में उपेक्षित पड़ी
उस करिखही कड़ाही को
कि जिसकी उम्र का
सही-सही हिसाब लगा पाना भी
अब मुश्किल,
अपने यौवन के रजत दिनों को गवाँ चुकी
एक उम्रदराज कड़ाही है वो
जीवन भर के अथक श्रम से झँवाई
काली कलूटी कि जिस पर
जिद्दी दाग धोने के दावों से भरी
साबुन की टिकिया भी अब बेअसर,
आज घर के कोने में
मृत्युमुखी
किसी धीर-गम्भीर बुढ़िया सी
चुपचाप बैठी
बाट जोह रही है
उस कबाडी वाले का
जो अपने तराजू पर तौल कर
ले जायेगा उसे
औने पौने दामों पर
अपनी ही साथ
किसी दूसरी दुनिया की ओर
सूनी बालकनी
वर्षों बाद आया हूँ अपने घर
जिसके दूसरे तल पर खड़ा देख रहा हूँ
सामने वाले घर की
सूनी बालकनी को,
वहाँ अब सुरुचि के
कपड़े नहीं सूखते
वह वहाँ बैठ अपने
हाथ व पाँवों में
नेल-पालिश भी नहीं लगाती
भींगे बाल तौलिये से झटक कर
सुखाने भी नहीं आती वह
प्रथम प्रेम का एक पूरा अध्याय ही
किताब से फाडे गये
पन्नों की ही मानिन्द
अलग हो चुका है,
सुना है कि
जब सुरुचि भी आती है यहाँ
कुछ दिनों के लिये तो वह भी
घँटों बैठती है अपनी बालकनी में ही
चुप-चाप ताकती हुई मेरी
सूनी बालकनी की ओर
गिरी हुई लेडीज़ रुमाल
सड़क किनारे कुछ देर से
गिरी पड़ी है बित्ते भर की
एक लेडिज रुमाल, लपेटे हुए
अपने अंतस में
उस खूबसूरत लडकी की
खुशनुमा देह-गन्ध
कि जिसकी जेब से
अनजाने ही आ गिरी है
सड़क किनारे
धूलि-धूसरित होने
अगर पता हो
उस लडकी के किसी चाहने वाले को
सड़क किनारे गिरी
इस नन्हीं सी रुमाल के बारे में
तो फिर से फिर उठेंगें
इस गिरी हुई रूमाल के दिन भी
बाबू जी भूल जाते हैं
कुछ रोज हुए
बाबू जी को
गाँव से शहर आए
लेकिन अभी तक
ठीक-ठीक याद नहीं हो पाया उन्हें
कृष्णा नगर,
गली नम्बर 7 और मकान नम्बर 62 सी वाला
मेरा शहरी पता,
बताते हैं बाबू जी
कि शहर की सारी गलियाँ व
गलियों के सारे मकान
उन्हें एक जैसे ही लगते हैं,
एक दफा तो
ऐसे भूले
कि शाम होने तक
पहुँच ही नही पाए
कालोनी के पार्क से
मेरे घर तक
जबकि
बताया है मैनें उन्हें कई बार
गली के मोड़ पर वाले
छोले-बटूरे की दुकान,
फिर गँगाराम मोबाईल शाप
फिर आगे
गुलशन टेलर की दुकान
जिसके ठीक आगे ही है
मेरा घर
इन सब के बावजूद
अब-तक
ठीक-ठीक याद नहीं हो पाया बाबू जी को
मेरा शहरी पता
जबकी याद है उन्हें
अपने गाँव के
एक-एक खेत व मेड़ का हिसाब
यहाँ तक कि
गाँव के
एक-एक आदमी का
नाम व पता भी
लेकिन
न जाने कैसे
बार-बार याद दिलाने पर भी
भूल जाते हैं बाबू जी
इस महानगर में
मेरा ही
शहरी पता
काठ की कुर्सियाँ
अपने ही घर में
अपनी जगह से
बेजगह हुई हैं
वर्षों पुरानी काठ की कुछ कुर्सियाँ,
नई बहू के आगमन पर
साथ-साथ आई
दहेज की नई-नवेली कुर्सियों ने
विस्थापित किया है
बैठक में रक्खी
काठ की कुछ कुर्सियों को,
अब वे रक्खी हैं
घर के खुले आँगन के एक हिस्से में,
उन कुर्सियों में
एक कुर्सी तो
गँवा चुकी है
अपना दाहिना हाथ
और बाकी की कुर्सियों की देह भी
हो चली हैं जर्जर
कभी भींगती हैं ये कुर्सियाँ
बारिस में
कभी सहती हैं शीत
कभी सहती हैं घाम
विस्थापन की पीड़ा झेलती
काठ की ये कुर्सियाँ
काट रही हैं
जैसे-तैसे
अपने बुढापे के
जर्जर दिनों को
एक चिड़िया
काटे जा रहे
एक पेड के गोल-गोल घूमती
चीख-चिल्ला रही है
एक चिड़िया
विरोध कर रही है वह
उस पेड के काटे जाने का
जिस पेड की ही एक टहनी पर
बसा हुआ है
उसका कुनबा
शामिल हैं जिस कुनबे में
कुछ रोज पहले ही
अँडे फोड बाहर आए
दो नन्हे बच्चे भी
जिनकी सुरक्षा की चिंता से चिंतातुर
अधीर हुई वह
चीख-चिल्ला रही है
पेड काटते
उन दो मजदूरों पर
जिनकी कुल्हाड़ियों की चोट पर
हिल रहा है पेड
और साथ ही साथ
उस चीखती-चिल्लाती
चिड़िया का
घोसला भी
यात्रा
स्टेशन पर
कुछ देर के लिए खडी
रेलगाडी की खिडकी से
दिख रहा है
ललाई साँझ में डूबा
एक वृक्ष
लौट रहे हैं
दिन भर के थके-हारे पखेरू
जिसकी गाँछों पर बने
घोसलों,
कुनबों में,
जिनको देख
टूटता है
रोजी-रोटी की तलाश में
अपना कुनबा छोड
शहर जाते
एक गँवई किशोर का मन
जो
रेलगाडी के खुलने पर भी
दूर तक
निहारता चला जाता है
उस खग बसेरी वृक्ष को
इस उम्मीद के साथ
कि
एक साँझ
लौटेगा वह भी
अपने घोसले
अपने कुनबे में
सही सलामत
बचपन का घर
किसी अजनबी शहर में रहते
निकलते हो
जब कभी
ढूँढने के लिए
किराये का नया कमरा
या
बदलते हो अपना सामान
एक कमरे से दूसरे कमरे तक
उसी वक्त
याद आ जाता है तुम्हें
बचपन का वह पुराना घर
जिसके खुले आँगन में लेटे
निहारते थे घँटों
चन्दा मामा को
माँ की हल्की थपकियों के बीच
जहाँ सोते थे
सुख की नीद
आती जी जिसके आँगन में गौरैय्या
बाबा के हाथों छीँटे
अनाज के दाने चुगने
जिसके मुण्डेर पर
कौवे के काँव-काँव बोलते ही
चमक उठती थीं
तुम्हारी नन्हीं, कजरारी आँखें
किसी परिचित के इंतजार में
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संपर्क - श्रीधर दूबे
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