एक दुनिया अभी बन रही है - वीरू सोनकर की प्रेम कविताएँ
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वीरू सोनकर |
प्रेम हमेशा से
ही कविताओं का रॉ मटिरियल रहा है। प्रेम, विरह और दर्द की कविताओं से पाठक ख़ुद को आसानी से आइडेंटिफाई कर पाते हैं, कारण है इनकी सहजता, मधुरता,जीवन से उठाए गए बिम्ब और जीवंतता। युवा कवि वीरू
सोनकर की प्रेम कविताएँ भी एकदम से ध्यान आकृष्ट करती
हैं और अपना प्रभाव छोड़ जाती हैं क्योंकि यहाँ शब्दों से बुनी हुई बौद्धिक
कृत्रिमता नहीं बल्कि ज़िंदा भाव हैं जिन्हें उतनी ही संजीदगी और संवेदनशीलता से
कविताओं में व्यक्त किया गया है । शेली, कीट्स जैसे
कालजयी रोमांटिक्स जिन्होने बहुत कम उम्र में ही अँग्रेजी कविताओं के इतिहास में
अपना नाम दर्ज़ करवा लिया और आज़ भी प्रेम और दर्द का नाम आते ही सबसे पहले हमारी
स्मृतियों में उतर आते हैं क्योंकि उन्होने सिर्फ प्रेम लिखा नहीं था उसे जिया भी
था और पूरी शिद्दत से उसे शब्दों में बुन भी दिया था, कुछ
उसी भावालोक में विचरती यह कविताएँ अपनी प्रेयसी ‘शिला’ के इर्द गिर्द बुनी गयी हैं और इन्हें पढ़ते हुए बस एक ही बात ज़ेहन में आती
हैं कि यह कविताएँ सिर्फ शब्द नहीं हैं...यहाँ स्पंदन है, लय है, दर्द है, प्रेम
है और है जीवन । बक़ौल रूमी,
“In your light
I learn how to love. In your beauty, how to make poems. You dance inside my
chest where no-one sees you, but sometimes I do, and that sight becomes this
art.”
(तुम्हारी रोशनी
में सीखा मैंने प्रेम करना, तुम्हारे
सौंदर्य ने सिखाया लिखना कविताएँ , तुम बसती हो
मेरे हृदय में जहाँ तुम्हें नहीं देख पाता कोई भी, कभी –कभी देख पाता हूँ मैं और तभी बनती है यह कविता)
वीरू भी कुछ ऐसा
ही कहते हैं अपने प्रेम और उससे उपजी
कविता के बारे में “सातवें तल में छुपे किसी चोरी के
सामान की तरह, तुम बने ही रहे मुझमें, और उगती रही एक सूफी आवाज सी तुम मेरे कानो में”
प्रेयसी को
संबोधित करती लिखी गयी यह कविताएँ बनारस के घाटों से उठकर जर्मनी की दीवार
के टूटने और कोलंबस के समुद्री अभियान का ज़िक्र करती अपने चरम पर पहुँचती है और
अपने समय से संवाद करने की सफल कोशिश करती हैं। पढिए वीरू सोनकर की कुछ प्रेम
कविताएँ
मेरे प्रेम
1- भोर के प्रथम पहर में,
जब शिव आरती से गलियां गूंजने लगती है
काशी विश्वनाथ की कतार बद्ध पंक्तियों
के बीच,
कहीं हम मिलते है
और
तब हमारी आँखे कह उठती है
बनारस की सुबह से भी सुन्दर
"हमारा प्रेम है"
अचानक से,
मंदिर की सभी घंटियां बज कर
हमे आशीर्वाद देने लगती है
और हम जान जाते है
हमारे प्रेम को किसी कसम की जरुरत
नहीं!
2
बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी के
पार्क में
तुम्हारी पीएचडी की बुक पलटते हुए,
अक्सर, मैं हैरान हो जाता था
और तुम कह देती थी
बाबू
ये आपके लिए नहीं !
तब मैं जानता था,
तुम चाहती थी कि मैं तुम्हारी आँखों
को पढूं
सिर्फ तुम्हारी आँखों को
मेरा प्रेम गवाह है !
मैंने तुम्हे पढ़ा
बखूबी पढ़ा
खूब खूब पढ़ा
3
शिला !
तुम्हारे नाम का उपनाम,
जब मैंने जाना तुम्हारा उपनाम तुम्हे
कितना प्रिय है
तब हमने ये तय किया था
यही नाम हमारे बच्चे भी धारण करेंगे
यही नाम !
मेरे प्रेम
तब नहीं पता था
ये उपनाम तो बना रहेगा तुम्हारे साथ
पर मैं अकेला ही रह जाऊंगा
तुम्हारे बिना
4
दशाश्वमेध घाट की सीढ़ियों पर हम
बैठते है
और याद करते है
हमसे पहले
हजारो हजार साल पहले से
लोग यहाँ आते है
और
हमको हमारा प्रेम
अनवरत जारी गंगा आरती से भी पुराना
लगता है
हम खुद को किसी किवदंती सा समझते है
और चुप चाप गंगा को देखते है
हमारे पैर
एक लय में हिलते है
जैसे हम किसी स्कूल के अल्हड बच्चे हो,
हम एक साथ कोई फ़िल्मी गीत गाते है
हमारे पैर और तेज़ हिलते है !
हम वहां की सांसे खींच खींच कर अपने
फेफड़ो में जमा करते है
और एक दूसरे को देखते है
तय करते है
जब तक ये गंगा है
ये गंगा आरती है
और हम है
तब तक ये प्रेम बना रहेगा
5
गोदौलिया के बाजार की भारी भीड़
में तुम दुकानदार से लड़ती हो,
पंद्रह रुपये की झुमकी को पांच रुपये
की बता कर,
और मैं हँसता हूँ !
तब मैंने
तुम्हे बिना बताये कुछ बेहद महंगे
स्वप्न ख़रीदे थे
तब, जब तुम बाजार में
टुच्चा सा मोलभाव कर रही थी
उन महंगे स्वप्नों में तुम थी
अपने उपनाम के साथ
शिला !
उन स्वप्नों की कीमत आज तक अदा की जा
रही है
और शायद तभी
आज तक
मेरे हाथ में नकद नहीं रुकता
6
कहते है कि
शिव अपने भक्तो की खबर
"नंदी" से लेते है
और हमने नंदी को भी खूब पटियाया था
सर से लेकर पूँछ तक जल अर्पण करके हम
अपना काम उनके कानो में बताते थे
याद करो !
हम युगलप्रेमी नंदी के कानो में एक
दूसरे का प्यार बता रहे थे
और तुमने आगे बढ़ कर
कहा था
बाबा हमे सात फेरे लेने है !
और,
मेरा गला रुंध गया था !
7
शिला सुनो
मेरे प्रेम सुनो !
वह महंगे स्वप्न
वह गंगा घाट
वह पुरातन काल का समझा हुआ प्रेम
तुम्हारी पीएचडी की बुक्स
तुम्हारे कैम्पस में संग संग की गयी
वह चहल कदमी
शिला,
वह सब कभी याद नहीं आता
याद आता है
तुम्हारा आगे बढ़ कर
नंदी के कानो में कहा गया वह वाक्य,
बाबा हम सात फेरे लेंगे !
बाबा हम सात फेरे लेंगे !
बाबा हम सात फेरे लेंगे !
आगे बढ़ कर पीछे लौटना,
हमेशा-हमेशा के लिए पीछे लौटना याद
आता है
मुझे पक्का यकीन है
नंदी बहरे नहीं थे
कभी उनके पास जाना और देखना
वह आज भी हमारे और तुम्हारे इन्तजार
में चुपचाप बैठे है
वही !
शिव के चरणों में,
हमारी अर्जी लिए हुए
नंदी को अभी तक खबर नहीं,
तुमने इन सब बातो को,
एक मजाक कहा था
सिर्फ एक मजाक
शिला मेरे प्रेम सुनो,
लोग कहते है अब नंदी अर्जियां नहीं
लेते
तो तुम जब भी उनके पास जाना
तो कानो में कह देना
"बाबा वह सब मजाक था !"
सिर्फ मजाक
मुझे यकीन है
हठी नंदी समझ जायेंगे
मेरे प्रेम (द्वितीय
भाग)
दो मुठ्ठी चने की तरह
हथेलियों में
भरना चाहता हूँ तुम्हे
मेरे प्रेम,
जैसे एक थका हुआ यात्री
चाहता है
दो गज छाँव,
और एक टूटता हुआ आदमी मांगता है
अपने हिस्से का अपनापन,
मैं ये दो मुठ्ठी प्रेम मांगता हूँ
तुम्हारे संग जो पल
गुजर चुके है
उन्ही में से,
बस ये दो पल अपनी मुठ्ठी में भींचना
चाहता हूँ
मेरे प्रेम
मेरी मुठ्ठी कभी नहीं खुलेगी
ये दो पल
हमेशा मेरे हांथो में बने रहेंगे,
किसी बर्बाद व्यापारी की आखिरी पूंजी
की तरह
जब प्रेम-प्यास लगेगी न,
तब मैं
अपने हाथो की दोनों मुठ्ठियों को
बारी-बारी सूंघ लूँगा,
तब मेरी प्यास भर पानी
मेरी आँखे दे देंगी,
मेरे प्रेम,
तुम्हे तो पता है न
तुमने ही तो कहा था
मेरी आँखे,
किसी सागर जैसी गहरी है
और सागर
कभी नहीं सूखते,
सागर सिर्फ प्यास बुझाते है !
मेरे प्रेम,
मेरी मुठ्ठियों में
वह दो पल
मेरी अंतिम साँस की तरह बने रहेंगे,
मेरे प्रेम,
इस बार मैं तुम्हे जाने नहीं दूंगा
मेरे प्रेम ( तृतीय भाग
)
जैसे एक आवाज किसी पहाड़ी से
टकरा कर,
कई बार वापस लौटती है
जैसे एक समुंद्र
तुम्हारी हर चीज़ वापस कर देता है
और...
जैसे एक पेड़
अपनी जड़ कभी नहीं छोड़ता,
मैं सबसे ऊँची पहाड़ी चोटी से
तुम्हारा नाम पूरी ताकत से चिल्लाना
चाहता हूँ
चाहता हूँ
तुम्हारा नाम लिखी ख़ाली बोतल बार-बार
समुंद्र में फेंकना,
और चाहता हूँ
एक बीज को तुम्हारे नाम से बोना,
मुझे पता है
पहाड़ी चोटी से प्रतिध्वनित आवाज के
बदले
तुम वापस नहीं आओगी,
और
न ही वह बोतल
किसी समुद्री वरदान की तरह तुम्हे
वापस लाएगी,
बीज भी पनप कर पेड़ ही बनेगा
वह पेड़
तुम कतई नहीं होगी,
ये सब तुम्हे पाने की कोशिश नहीं है !
मेरे प्रेम,
मैं हर संभावित जगह
हर कही
अपना पता छोड़ना चाहता हूँ
ताकि
तुम कभी भी
इनमे से किसी से मिलो
तो जान सको,
मैंने तुम्हे कितना ढूंढा !
पहाड़ी चोटी
तुम्हे मेरी पुकार सुनाएगी
पेड़ अपने हजारो बीजो से मेरी गवाही
दिलाएगा,
और
तुम्हारा नाम लिखी खाली बोतल
किसी समुद्री बीच पर
चुपके से
तुम्हारे पैरो को चूम लेगी
मेरे आँसुओ से नमकीन हुई हवा
उसी समय,
एक हलके झोंके से तुम्हारा गाल छू
लेगी
और शायद
ये वही पल होगा
मेरे प्रेम,
जब पलभर को ही सही,
पर
तुम्हे मेरी याद आएगी
एक दुनिया अभी बन रही
है
एक चेहरा कौंधता है !
हर वक्त बार-बार
सोचता हूँ वह चेहरा सोचा जाये बार-बार
और
बिना बोले,
कह दी जाये वह बात,
जो बात अभी ख्यालो में किसी ख्वाब सी
उग रही है
जो,
एक दुनिया अभी बन रही है
वह दुनिया तुमसे उम्र भर की सांसे
उधार मांगती है
और
ये सुन कर तुम,
किसी आकाशगंगा सी हँस दोगी,
और बस मैं
एक अदना सा ग्रह बन जाऊँगा तुम्हारे
किसी कोने में,
सुनो.....मैं तुममे खोना चाहता हूँ
चाहता हूँ न मैं कभी मरूँ न तुम कभी
मरो,
हम इस ब्रह्माण्ड में प्रेम के सबसे
बड़े सबूत बनेंगे,
लोग कहेंगे
देखो
दो लोगो ने प्रेम किया,
और वह आकाशगंगा बन गए
देखो-देखो
वह दूर एक प्रेमी टिमटिमा रहा है
वह तारा नहीं, एक ग्रह है
उसने फैसला किया था
उसकी 'ऑर्बिट' उसकी प्यारी आकाशगंगा से कभी-भी बाहर नहीं जायेगी
प्रेम में जीना
एक सफ़र को अपने,
कुछ कदम मांगता हूँ वक्त के
और चाहता हूँ दिन भर भटकी चिड़िया का
बटोरा हुआ खाना,
पहाड़ से साँस भर ठंडी हवा,
और पगलाई बरसाती नदी का उतावलापन,
आखिरी में,
सफ़र की वक्त गुजारी को मैं लेता हूँ
प्रेम की कुछ कतरने,
और एक कभी न पूरी होने वाली उदास
कविता !
अब चाहता हूँ
उम्र भर की भटकन,
और एक कभी न मिल पाने वाली नशीली
मंजिल मांगता हूँ
चाहता तो ये भी हूँ
दूर किसी अजनबी टापुओं के देश में
किसी बूढ़े रिफ्यूजी को अपनी प्रेम
कविताये सुनाऊँ
और
वह सब बताऊँ
जो 'उससे' कभी न कह सका,
भाषा, रंग और बोली से परे
वह बूढ़ा भी कभी प्रेम में होगा
हमारी भटकने साझा होंगी,
हम दोनों की आँखे एक जैसी तेजी से चमक
उठेंगी
और शायद वह बूढ़ा कह ही उठे
नवजवान !
प्रेम में जीना इसे ही कहते है...
और ये सुन कर शायद
एक बार फिर जर्मनी की दीवार टूट जाये
सभी ध्रुवीय महाद्वीप एक बार फिर से
मिल जाये,
और
हम दोनों बूढ़े और जवान,
एक साथ ये ऐलान कर सके
दुनिया भर के नाकाम प्रेमियों,
सुनो
प्यार पाने का नाम नहीं !
देखो देखो,
हमने सिर्फ प्यार किया,
हमे कोई फर्क नहीं पड़ा कि हमसे किसी
ने प्यार नहीं किया,
और तब यक़ीनन,
वह उदास शाम अचानक से एक गुलाबी रंगत
ओढ़ लेगी !
और ये
वह समय होगा,
जहाँ से उस बूढ़े की प्रेम कविताओ का
वाचन प्रारम्भ होगा
एकल श्रोता,
एकल वाचक के काव्यपाठ में मग्न है !
सातवाँ तल
सातवें तल में
छुपे किसी चोरी के सामान की तरह,
तुम बने ही रहे मुझमे
और उगती रही
एक सूफी आवाज सी तुम
मेरे कानो में,
तुम बने ही रहे मुझमे
और उगती रही
एक सूफी आवाज सी तुम
मेरे कानो में,
मेरे पैरो में नास्त्रेदमस की अफवाह बंधी रही !
और मैं डरता रहा
तुम्हारे न मिलने के डर से,
और मैं डरता रहा
तुम्हारे न मिलने के डर से,
मेरे प्रेम,
कोलंबस की समुद्री यात्रा से सौ गुना ज्यादा भारी रहा
उस सातवे तल तक का सफ़र
कोलंबस की समुद्री यात्रा से सौ गुना ज्यादा भारी रहा
उस सातवे तल तक का सफ़र
चाहा था पृथ्वी के गुरुत्व से लड़ कर दूर आकाश में भाग जाना,
मुझे साँस मिलती थी उस सातवे तल पर
मैं किसी स्तनधारी सा
बार-बार लौटता रहा अपनी साँस के लिए,
मैं किसी स्तनधारी सा
बार-बार लौटता रहा अपनी साँस के लिए,
उसी सातवे तल पर !
लेखक परिचय
नाम: वीरू सोनकर
जन्म स्थान: कानपुर
संपर्क: veeru_sonker@yahoo.com
फ़ेसबुक के सौ कवियों के साझा संकलन - "शतदल" में रचनाएँ प्रकाशित।
बहुत ही संभावनाशील कवि है वीरू जी......मील का पत्थर साबित होगे.......इसमे कोई शक नहीं है.....
ReplyDeleteबहुत खूबसूरर कवितायेँ।
ReplyDeleteजिस तरह से ये कवितायें लिखी गयी है लगता है की शायद ये नई कविताओं की ही कोई विधा है इस लिए सबसे पहले तो वीरू सोनकर जी को बधाई , जो इस प्रकार की नई कविता से हमे सफलता पूर्वक जोड़े रख पाये , और मै सभी कवितायें एक सांस मे ही पढ़ गया ... और फिर दुबारा , तिबारा भी पढ़ी ...
ReplyDeleteबनारस तो सदा से बड़े ही रहस्यमयी तरीके से आकर्षित करता है, रोमांस तो आप कही से भी रिलेट कर सकते है , पर जब भी प्रेम कहा जाएगा तो बनारस ही सब से उम्दा बॅक ड्रॉप लगता है
******************************************************************
“भोर के प्रथम पहर में”
कविताओ की शृंखला भोर की पहली किरण के साथ ही शुरू हो जाती है ... ठीक वैसे ही जैसे प्रेम का आरंभ हो जाता है , हमारे आरंभ के साथ ही ...
मैंने तुम्हे पढ़ा
बखूबी पढ़ा
खूब खूब पढ़ा
हाँ वह विद्यालय ही तो है; जहा हम सीखते है, जीना और ज़िंदा बने रहना ... प्रेम ही तो है जो जीवित रखता है हमारे शिराओ और धमनियों को जीवन देने वाले हृदय को
ये उपनाम तो बना रहेगा तुम्हारे साथ
पर मैं अकेला ही रह जाऊंगा
तुम्हारे बिना
और फिर कॉलेज से बाहर जाकर मिलना, किसी पुराने मंदिर मे, किले मे या फिर कही और फिर वह पत्थरों पर अपना नाम उनके नाम के साथ जोड़ कर उकेरना , शायद प्यार को अमित कर देने की चाहत ही तो है .... यूं ही तो लिखी जाती है न प्यार की दास्ताने ...
तय करते है
जब तक ये गंगा है
ये गंगा आरती है
और हम है
तब तक ये प्रेम बना रहेगा
प्रेम फिर पकता है हमारी बढ़ती उम्र के साथ ... और अब गढ़ी जाती है नयी उपमाए ... प्रगाढ़ होते रिश्ते ...
उन स्वप्नों की कीमत आज तक अदा की जा रही है
और शायद तभी
आज तक
मेरे हाथ में नकद नहीं रुकता
पर सब कुछ स्वप्न आसान तो नहीं होता ... सामने आती है नयी सच्चाईया ... और एक नया समीकरण जो बताता है की गिरे से गिरा रुपैया भी प्यार से बहुत ऊपर होता है ....
क्रमशः
जिस तरह से ये कवितायें लिखी गयी है लगता है की शायद ये नई कविताओं की ही कोई विधा है इस लिए सबसे पहले तो वीरू सोनकर जी को बधाई , जो इस प्रकार की नई कविता से हमे सफलता पूर्वक जोड़े रख पाये , और मै सभी कवितायें एक सांस मे ही पढ़ गया ... और फिर दुबारा , तिबारा भी पढ़ी ...
ReplyDeleteबनारस तो सदा से बड़े ही रहस्यमयी तरीके से आकर्षित करता है, रोमांस तो आप कही से भी रिलेट कर सकते है , पर जब भी प्रेम कहा जाएगा तो बनारस ही सब से उम्दा बॅक ड्रॉप लगता है
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“भोर के प्रथम पहर में”
कविताओ की शृंखला भोर की पहली किरण के साथ ही शुरू हो जाती है ... ठीक वैसे ही जैसे प्रेम का आरंभ हो जाता है , हमारे आरंभ के साथ ही ...
मैंने तुम्हे पढ़ा
बखूबी पढ़ा
खूब खूब पढ़ा
हाँ वह विद्यालय ही तो है; जहा हम सीखते है, जीना और ज़िंदा बने रहना ... प्रेम ही तो है जो जीवित रखता है हमारे शिराओ और धमनियों को जीवन देने वाले हृदय को
ये उपनाम तो बना रहेगा तुम्हारे साथ
पर मैं अकेला ही रह जाऊंगा
तुम्हारे बिना
और फिर कॉलेज से बाहर जाकर मिलना, किसी पुराने मंदिर मे, किले मे या फिर कही और फिर वह पत्थरों पर अपना नाम उनके नाम के साथ जोड़ कर उकेरना , शायद प्यार को अमित कर देने की चाहत ही तो है .... यूं ही तो लिखी जाती है न प्यार की दास्ताने ...
तय करते है
जब तक ये गंगा है
ये गंगा आरती है
और हम है
तब तक ये प्रेम बना रहेगा
प्रेम फिर पकता है हमारी बढ़ती उम्र के साथ ... और अब गढ़ी जाती है नयी उपमाए ... प्रगाढ़ होते रिश्ते ...
उन स्वप्नों की कीमत आज तक अदा की जा रही है
और शायद तभी
आज तक
मेरे हाथ में नकद नहीं रुकता
पर सब कुछ स्वप्न आसान तो नहीं होता ... सामने आती है नयी सच्चाईया ... और एक नया समीकरण जो बताता है की गिरे से गिरा रुपैया भी प्यार से बहुत ऊपर होता है ....
क्रमशः
तू प्रेम का सागर है तेरी इक बूँद के प्यासे हम ..........वाला भाव उमड़ पड़ा .........बधाई वीरू सोनकर ..........प्रेम अनंत है और प्यास का कोई अंत नहीं ........बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत ताज़गी लिए, अद्भुत प्रेम कविताएं..... वीरू में अनंत सम्भावनाएं हैं..... बहुत सारी शुभकामनाएं। पंक्तियों को सजाने का शिल्प भी पसन्द आया और माउस का पॉइंटर जैसे ही चित्र पर जाता है उसका रंग बदल जाता है। बधाई मेराकी........
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