कहानी : पर पाज़ेब न भीगे - सत्यनारायण पटेल
https://www.merakipatrika.com/2015/05/par-papej-na-bheege.html
लोककथाओं की
सुगंध
अद्भुत
होती
है।
इनमें
रचे
बसे
होते
हैं
मिट्टी, पानी, बोली, लोक और परम्पराएँ
और
इन्हीं
से
कहीं
मिलता
है
इतिहास
का
कोई
छूटा
हुआ
सिरा।
“….पर
पाज़ेब
ना
भीगे”
में
सुगंध
है
उसी
छूटते
जा
रहे
लोक
की, जो विकास की
राह
पर
आँखें
मूँदे
भागते
हमारे
कदमों
के
साथ
होड़
नहीं
ले
पा
रहा
। इस
कहानी
में
उसी
पीछे
छूटी
बोली, परम्पराओं को समेटने
की
एक
सुंदर
कोशिश
की
है
रचनाकार
ने।
नानी
की
कहानियों
जैसी
सुरमई
जादू
बुनती
हुई
यह
कहानी
हमें
वापस
उसी
संसार
में
ले
जाती
हैं
जहां
राजा
और
रानी
होते
थे, जहां एक अद्भुत
देश
होता
था
और
बसते
थे
उसमें
मिट्टी
से
जुड़े
मेहनतकश
लोग।
विजयदान
देथा
की
कहानियों
की
सी
सुगंध
समेटे
ऐसी
कहानियाँ
आजकल
कम
पढ़ने
को
मिलती
हैं।
बकौल
लेखक, “मैं उस ख़ुशबू
का
दीवाना
हूँ, इसलिए लिखता हूँ”
...ख़ुशबू
अपनी
जड़ों
की, मिट्टी की, लोक
की, संस्कृति की... पढ़ें
उसी
एहसास
से
बुनी
सत्यनारायण
पटेल
की
यह
कहानी।
एक क़िस्सा है। और क़िस्सा क्या… ? हक़ीक़त है जी…! कल की हक़ीक़त आज क़िस्सा है। आज की हक़ीक़त कल क़िस्सा होगी। तो क़िस्सा उन दिनों का है, जब अब जैसे देश नहीं हुआ करते थे। तब देश का मतलब-एक क्षेत्र हुआ करता था। जैसे आज मालवा में निमाड़ के लोग आते हैं, और जब काम होने के बाद वापस जाते हैं, तो कहते हैं- देश जा रहे हैं। यानी जब मालवा भी एक देश था। निमाड़ भी एक देश था। झाबुआ भी एक देश था। हर क्षेत्र जिसकी बोली-बानी अलग थी, रहन-सहन, पहनावा, खान-पान और संस्कृति में फ़र्क़ था, वह एक अलग देश था। तब भी एक देश से दूसरे देश में काम-धंधा करने जाते थे लोग। किसी को पासपोर्ट, वीजा, अनुमति आदि की ज़रूरत नहीं होती थी। होती थी ज़रूरत तो बस इतनी कि आता हो काम-धंधा। व्यापार-व्यावसाय करने की हो इच्छा। जहाँ जाते, वहाँ को बोली-भाषा भी सीख ही लेते। ताकि काम-धंधा करना आसान हो सके। लोग ऎसे ही करते थे व्यापार-व्यावसाय। बड़े-बड़े हाट भरते। कई-कई दिन चलते मेले। हाट और मेलों में अलग-अलग जगहों की संस्कृति, बोली घुलती-मिलती। लोगों में दोस्ती, प्रेम और कई तरह के संबन्ध विकसित होते। अभी भी होता है वही सब…लेकिन स्वरूप बदल गया है।
फिर जैसे-जैसे बहने
लगी विकास की गंगा। रिति-रिवाज, रहन-सहन, भाषा-बोली और सब कुछ में बदलाव होना शुरू
हुआ। बरस बीतते रहे, बदलाव जारी रहा। गाँव क़स्बों में और क़स्बे शहरों में और शहरों
का….. शायद जंगल में बदलना जारी रहा।
क़िस्सा उसी किसी
जमाने में शुरू हुआ था यह। जाने कितने लोगों ने सुना-सुनाया। समय बदला। लोग बदले। कहन
का ढँग बदला। तो क़िस्से में भी आया ही होगा कुछ बदलाव। फिर भी जब क़िस्सा सुना। तो ताज़गी
भरा लगा। मन फिर से वही क़िस्सा कहने को ललचा उठा। दरअसल क़िस्सा एक नहीं, दो है।
और पहला क़िस्सा कुछ
यूँ है- दूर कहीं किसी गाँव में एक बंजारा था। था तो वह बंजारा। पर उसकी क़द-काठी ग़ज़ब
की ऊँची और तगड़ी थी। आकर्षक भी। साँझ सरीके उसके गालों पर डूबते सूरज का ललछौहापन
दमकता था। आँखें हल्की नीली और भूरी थीं। बोलता-हँसता तो सफ़ेद झक दाँत बादामी और मजबूत
मसूड़ों में आकर्षक ढँग से जमे हुए नज़र आते थे। वह एक व्यापारी था। वह जिस गाँव में
रहता था, उसके आस-पास के आठ-दस गाँव के लोगों की ज़रूरतों का सामान उसी के पास मिलता
था। इसलिए उसका व्यापार-व्यावसाय चलता भी अच्छा था।
उसके इलाक़े का राजा
भी एक बंजारा था। हालाँकि राजा से उसकी दूर की भी राम-राम नहीं थी। उस क्षेत्र में
बंजारों के कई गाँव थे। क़बीले थे, और थी घुमंतु टोलियाँ भी। ज़रूरी नहीं कि सभी राजा
को जानते हों। लेकिन चिमनी लेकर ढूँढ़ने पर भी कोई नहीं मिलता था, जो उस बंजारे को
नहीं जानता हो। कहने का मतलब इत्ता भर है… कि बंजारे का क़िस्सा सेमल की रुई की तरह
हवा में उड़ते-उड़ते पूरे बंजारा प्रदेश-देश में फैल गया था।
हालाँकि बंजारा इलाक़े
में पहले से ही बहुत ठावा था। क्या है कि बंजारे का पैत्रक काम ही था व्यापार। वह अपने
व्यापारी माता-पिता की इकलौती संतान था। माता-पिता ने ज़िन्दगी भर घूम-घूम कर ख़ूब धन-दौलत
कमायी थी। धीरे-धीरे उन्होंने अपने बेटे यानी बंजारे को भी व्यापार-व्यावसाय सिखा दिया
था। उसके रहने के लिए एक विशाल भवन बनवा दिया था। व्यापार-व्यावसाय के लिए बहुत सारी
धन-दौलत रख छोड़ी थी। जब बंजारे के माता-पिता बूढ़े हो गये और वह होशियार हो गया। तब एक दिन उसके माता-पिता लम्बी
तीर्थ यात्रा पर रवाना हो गये, और फिर वे कभी नहीं लौटे।
कुछ बरस बंजारा माता-पिता
के आने की राह देखता रहा। उदास रहा। फिर धीरे-धीरे वह व्यवसाय में डूबता गया। बंजारा
अनेक चीज़ों के व्यापार के साथ नमक का भी बड़ा व्यापारी था। व्यापार में उसका हाथ बँटाने
के लिए कई नौकर-चाकर थे। व्यापार में हर चीज़ में उसे अच्छा मुनाफ़ा होता था। लेकिन नमक
में उसे सदा ही घाटा होने की संभावना बनी रहती थी। घाटे की वजह थी एक नदी। नदी को पार
करे बग़ैर कोई भी सामान नहीं लाया-ले जाया सकता था।
बाक़ी सभी सामान ठीक-ठाक
आ जाता। भीग जाता तो भी सूखा कर बेच देता। पर नमक हमेशा ही चिंता का विषय होता। क्योंकि
जब बंजारा या उसके यहाँ काम करने वाले गधों पर नमक लेकर नदी पार करते, तो नदी पार करते
वक़्त, नदी में इतना नमक गल कर बह जाता कि नदी का पानी खारा हो जाता। बहे हुए नमक का
घाटा, बंजारा बचे हुए नमक को महँगे दाम पर बेच कर ही पूरा करता।
आठ-दस गाँव के लोग
बंजारे के यहाँ सौदा लेने आते। लोग नमक के दाम को लेकर हमेशा किच-किच करते। पर बंजारा
क्या करता…? नमक घाटे में बेचने से तो रहा..! पूरे क्षेत्र में बंजारे की नामोसी होती।
लोग उसे जाने क्या-क्या कहते..! बद्दुआ देते।
बंजारे के पास अच्छा-भला
घर-बार था। पैसा-कौड़ी था। व्यापार-व्यावसाय था। फिर भी वह कुआँरा था। बंजारे की उम्र
शादी के योग्य थी। वह शादी करना भी चाहता था, क्योंकि माता-पिता के जाने के बाद उसका
क़रीबी कोई नहीं था। उसे एक जीवन साथी की ज़रूरत थी। लेकिन नमक के दाम ज्यादा लेने की
वजह वह बदनाम था। इसलिए कोई उसे अपनी बेटी न देना चाहता था। लोग पैसा-कौड़ी से ज्यादा
ईमान और इंसानियत को तवज्जो देते थे तब।
जब कभी बंजारा किसी
की शादी होते देखता। वह उदास हो जाता। वह सोचता- क्या करूँ..? घाटा उठा कर लोगों को
नमक देना शुरू करूँ….? या नमक का व्यावसाय ही बंद कर दूँ….? या अपना गाँव छोड़ कर नदी
पार किसी दूसरे गाँव में बस जाऊँ…? लेकिन दूसरे गाँव जाऊँगा.. तो फिर यहाँ के घर-बार
का क्या होगा..? यहाँ इतना बड़ा घर तो कोई ख़रीद भी नहीं पायेगा….? फिर यह सब छोड़
कर कैसे दूसरे गाँव में बस जाऊँ..? क्या मेरे माता-पिता की वंश बैल मुझ तक ही रुक जायेगी..?
मैं उनके वंश को आगे कैसे बढ़ाऊँ..?
लेकिन फिर कुछ दिन
में उदासी छंट जाती। बंजारा व्यापार-व्यावसाय में जुट जाता। कभी-कभी सोचता और लोगों
से सलाह भी लेता- क्या करूँ कि नमक न गले..? कैसे कम दाम पर नमक उपलब्ध कराऊँ....?
एक बार उसे एक बूढ़े
बंजारे ने ही सलाह दी कि नदी पर बाँध बना। जब नदी पर बाँध बन जायेगा। तब गधों पर लदा
नमक तो ठीक, गधों के पैरों की खुर भी न भीगेगी। नमक भीगेगा नहीं, तो गलेगा नहीं। गलेगा
नहीं, तो बहेगा नहीं। बहेगा नहीं, तो वाजिब दाम पर बेच सकेगा…! वाजिब दाम पर बेचेगा
तो कोई बद्दुआ नहीं देगा। कोई भला-बुरा नहीं कहेगा। कोई न कोई अपनी बेटी भी तुझसे ब्याहने
को राजी हो जायेगा।
बंजारे को बूढ़े
बंजारे की बात जँच गयी। उसने नदी पर एक बाँध बनवाया। बाँध ‘बंजारा बाँध’ के नाम से
ही जाना जाने लगा।
बाँध बनाने के बाद
बंजारे की शादी हो गयी, और वह सुख पूर्वक रहने लगा। अगर यही सही मान लें, तो बंजारा
का क़िस्सा यहाँ समाप्त हो जाता है।
लेकिन ऎसा नहीं है।
बंजारा बाँध के पीछे एक और क़िस्सा है। गाँव वाले कहते हैं कि बंजारा बाँध बनवाया तो था बंजारा ने ही। लेकिन सिर्फ़
नमक लदे गधों के लिए नहीं बनवाया था। बाँध बनवाने की सलाह भी किसी बूढ़े ने नहीं दी
थी। बाँध बँधवाने की ऊपरी कथा से अलग, ज्यादा प्रमाणिक और लोक प्रिय क़िस्सा कुछ यूँ
है -
एक बंजारा जो नकम
का बहुत बड़ा व्यापारी था। वह व्यापार करने दूर-दूर के देशों में जाया करता था। एक
बार वह एक मेले में गया था। मेले में कई दुकाने लगी थीं। बंजारे की दुकान के सामने
एक बूढ़े बंजारे की दुकान थी। बूढ़े की एक बेहद ख़ूबसूरत लड़की थी।
नमक व्यापारी बंजारा
देखने में अच्छा-ख़ासा और कुआँरा था ही। शादी के लिए एक बंजारन की तलाश में भी था।
वह मेले का पहले ही दिन था, जब बंजारे की नज़रें बंजारन की नज़रों से उलझ गयी थीं। वह
बंजारन पर इस तरह लट्टू हुआ कि भँवरा भी लजाने लगा। व्यापार में उसका मन जरा भी नहीं
लगता। उसकी नज़रें हर समय सामने टिकी होती। जहाँ बंजारन अपने पिता की मदद कर रही होती।
बंजारे के साथ काम
करने वाले नौकर-चाकर भी नज़रों के खेल से वाक़िफ़ हो गये थे। फुर्सत की घड़ी में वे भी
खेल देख आपस में हँस-बोल लेते।
बंजारे और बंजारन
की दुकानों के बीच से ख़रीदार लोगों का आना-जाना चलता रहता। नमक ख़रीदने वाला, बंजारे
की दुकान से ख़रीदता। नौकर ही तौल-मौल करते। वही हिसाब-किताब रखते। जेवर ख़रीदने वाला,
बंजारन की दुकान से ख़रीदता। बंजारन के पिता और नौकर ही सब कुछ संभालते।
उन दोनों के बीच
चलते नज़रों के खेल को बूढ़े ने भी भाँप लिया। लेकिन बेटी को कुछ नहीं कहा। सोचा- जवान
छोरी है। शादी की उम्र है। मैं तो व्यापार-व्यावसाय में उलझा रहा। छोरी की उम्र का
ख़्याल ही न रहा। फिर सामने की दुकान वाला भी व्यापारी है। पहनावे और नाक-नक्श से बंजारा
ही है। देखने में भी अच्छा-ख़ासा है। अच्छा है, छोरी को पसंद आ जाये, तो दोनों की शादी
कर देंगे।
मेले के दिन पर दिन
बीतने लगे। उन दोनों के बीच बातचीत होने लगी। दोनों साथ-साथ मेले में घुमते। खाते-पीते।
मन की बाते करते। फिर जब मेला समाप्त होने को आया। व्यापारी अपनी-अपनी दुकाने समेटने
लगे। कुछ जाने भी लगे। तब बंजारे ने बंजारन से कहा- मैं तुमसे बेहद प्रेम करने लगा
हूँ और शादी करना चाहता हूँ।
बंजारे ने यह बात
अकेले में नहीं कही थी, बल्कि बंजारन के पिता की मौजूदगी में कही थी। पिता सुन कर मन
ही मन ख़ुश हुए, पर कुछ बोले नहीं। उसके पिता बूढ़े ज़रूर थे, पर दकियानूसी नहीं थे।
न अपनी मर्ज़ी को बेटी पर थोपना पसंद था उन्हें। उन्होंने सोचा- छोरी होशियार है, उसे
जो सही लगेगा, वही जवाब देगी। छोरी का निर्णय ही मेरा भी निर्णय होगा।
बंजारन ने पहले अपने
पिता की तरफ़ देखा। पिता के चेहरे पर भरोसे की चमक थी। फिर उसने बंजारे की तरफ़ देखा
और बोली- सुन.. बंजारे… अपने बीच इतने दिन जो कुछ हुआ.. उसकी मधुर स्मृति अपने मन में
रख… और शादी का ख़्याल भूल जा।
-क्यों.. तुम ऎसा
क्यों कह रही हो..? बंजारे ने व्याकुल स्वर में पूछा और आगे कहा- मैं तुम्हारे बग़ैर
आगे का जीवन नहीं जी सकूँगा… मुझे नींद में भी तुम्हारी पाज़ेब की
घूघरियों की आवाज़ सुनायी देती है। तुम्हारी सूरत और मत्स्य आँखें सदा ही मेरी आँखों
में बसी रहती हैं।
-वह सब तो ठीक है
बंजारे…पर फिर भी मैं तुम्हारे गाँव नहीं चल सकती हूँ। बंजारन ने कहा- क्योंकि तुम
रहते हो नदी उस पार … और मैं इस पार। तुम्हारे गाँव जाने के लिए नदी को चल कर पार करनी
पड़ती है। और कोई साधन नहीं है। मैं उस नदी को भीगते हुए पार नहीं करना चाहती। अगर
तुम मुझसे शादी ही करना चाहते हो… तो तुम्हें मेरी एक शर्त पूरी करनी होगी।
-क्या शर्त है..बंजारे
ने बेसब्री से पूछा और बग़ैर कुछ विचारे आगे बोला- मुझे हर शर्त मंजूर है।
-बंजारे… उतावले
मत होओ… पहले मेरी शर्त सुनो.. बंजारन ने कहा- और शर्त यह है कि तुम्हें उस नदी पर
एक बाँध बनवाना होगा। बाँध ऎसा बने कि पैरों की पगथली तो भीगे, पर पाज़ेब नहीं भीगे। अगर तुम मेरी यह शर्त पूरी करोगे… तो मैं ख़ुशी-ख़ुशी
तुम्हारे गाँव चलूँगी। तुमसे शादी कर लूँगी, और अगर बाँध पार करते वक़्त पाज़ेब भीग गयी.. तो जहाँ भीगेगी.. उससे एक क़दम भी आगे नहीं बढ़ाऊँगी…
वापस अपने माइके लौट आऊँगी… तुम्हें शर्त मंजूर हो तो बोलो… वरना जो कुछ अपने बीच हुआ..
उसे भूल जाओ..।
बंजारे को तो बंजारन
के सिवा कुछ सूझ ही नहीं रहा था। उसने बाँध बनवाने की तुरंत हामी भर ली थी। लेकिन नौकर-चाकरों
का दिमाग़ चकरा रहा था- भला कोई ऎसा बाँध कैसे बना सकता है, जिसमें पगथली तो भीगे पर
पैरों की पाज़ेब नहीं भीगे। बाँध पर पानी का क्या भरोसा…कभी
कम बहे, कभी ज्यादा।
चिंता में तो बंजारा
भी पड़ गया। कैसे बनेगा ऎसा बाँध..? हर समय दिमाग़ दर-दर भटकने लगा। अपने प्रण को पूरा
करने में प्राण सूखने लगे। किसी ने कहा- न हो पूरा प्रण, तो न हो….प्रण के पीछे प्राण
देने की ज़रूरत नहीं।
किसी ने कहा- जैसा
चाहा बंजारन ने, न बने वैसा….तो कम से कम ऎसा तो बन ही जायेगा, कि जब गधों पर नमक लेकर
निकलेंगे, तो नमक गल कर न बहेगा।
बंजारा सुन सभी की
रहा था। लेकिन ज़हन में एक ही धुन सवार थी। जल्दी से जल्दी वह बाँध बनवाये, जिस पर चल
कर बंजारन घर आवे। बंजारन की शर्त और बंजारे के प्रण की ख़बर उसके गाँव के आस-पास के
सभी गाँवों में फैल गयी। फुर्सत के क्षण हो या न हो। लोगों की जबान पर बंजारे और बंजारन
की ही बात हो। कुछ लोगों के मन में भी उस बंजारन को देखने की लालसा जाग उठी। कुछ लोगों
के मन में ऎसा अनोखा बाँध देखने की इच्छा मचलने लगी। लोग भी सोचने लगे- बंजारा आखिर
कैसे बनवायेगा ऎसा बाँध..!
कोई हंसी-मज़ाक़ में
कहता- मैं तो उस बंजारन की पाज़ेब देखना चाहता हूँ। आखिर कैसी
है. वे पाज़ेब… जिसकी खातिर उसने बंजारे जैसे व्यापारी के सामने
ऎसी शर्त रखी…? ऎसी पाज़ेब
को जिन पैरों में पहना होगा.. वे पैर कैसे होंगे…? और जिसके पैर ऎसे होंगे..
वह बंजारन कैसी होगी…?
वक़्त बीतने लगा।
बंजारे का प्रण दिन पर दिन दृढ़ होता गया। एक दिन बंजारे ने नदी पर बाँध बनवाने का
काम शुरू करवा दिया। वह बाँध बनवाने का काम सिर्फ़ मज़दूरों से नहीं करवाता था, बल्कि
ख़ुद मज़दूरों के साथ मिल कर करता था। लोग देखने आते कि आख़िर बाँध को कैसे बनाया जा
रहा है..? बाँध बनते-बनते ही ख़ूब प्रसिद्धि हो गया था। और जब एक दिन बाँध बनकर पूरा हो गया…
तो बंजारा फिर बंजारन के पास गया, और गाँव
चलने का निवेदन किया।
बंजारन ने बंजारे
के बारे में ख़ूब सुना था। वह उसे देख कर मन ही मन भावुक हो रही थी कि उसकी शर्त को
पूरी करने की खातिर बंजारे ने ख़ूब मेहनत की है। लेकिन उसने अपनी भावना को आँखों और
चेहरे से झाँकने नहीं दिया। वह प्रकट रूप से दृढ़ स्वर में बोली- बंजारे तू कहीं शर्त तो नहीं भूल गया…?
बंजारे ने गर्दन
हिलाकर कहा- नहीं…. तुम्हारी शर्त और अपना प्रण याद है मुझे।
मन ही मन बंजारन
भी चाहती थी कि बंजारे की मेहनत सफ़ल हो जाए। बंजारे से शर्त लगाने के कुछ माह बाद बंजारन
के पिता चल बसे थे। वह अकेली रह गयी थी। घर में माँ या कोई भाई-बहन नहीं था। अब वह
भी घर बसाना चाहती थी। लेकिन बंजारे से शर्त लगाने के बाद वह बहुत ठावी हो गयी थी।
लोगों से उसे ताने भी ख़ूब सुनने को मिले थे। लेकिन अब बंजारन अपनी शर्त से, अपनी बात
से पलट नहीं सकती थी। पलटने पर भारी बदनामी होती। उसने एक बार फिर अपनी शर्त दोहरायी-
जहाँ पाज़ेब की एक घूघरी भी भीगी, वहीं से मैं लौट आऊँगी..।
तुम या कोई भी मुझे रोकने या तुम्हारे साथ चलने के बारे में एक शब्द भी नहीं कहेगा..?
बंजारे ने कहा- ठीक
है.. तू जैसा कहती है.. वैसा ही होगा..। मैं तेरे मान की रक्षा अपने प्राण की बाजी
लगा कर करूँगा..।
बंजारन ने कहा- तो
ठीक है…… आज तुम भी यहीं रुको…. आराम करो…कल सूरज उगते ही चल देंगे..।
जब बंजारन के गाँव
और घर पहुँचा था बंजारा, तो गाँव में हलचल मच गयी थी। लोग बंजारे की एक झलक देखने को
बावले होने लगे। बंजारन के घर सामने लोगों
का हुजूम देखते ही बनता था।
कुछ लोग बंजारे के
साथ भी गये थे। बंजारन ने अपने नौकर-चाकरों से कहा- आज पूरे गाँव के लोगों के लिए बढ़िया
पकवान बनवाओ…. सभी को खिलाओ…। बंजारे के साथ पधारे लोगों की भी विशेष खातिरदारी हो।
उनके रुकने और आराम का उचित प्रबन्ध हो। खान-पान के बाद हमारी संस्कृति, रिति-रिवाज
के मुताबिक़ मनोरंजन, गीत-संगीत का इंतजाम हो।
बंजारन को किसी चीज़
की कमी तो थी नहीं। उसके नौकर-चाकर झटपट जुट गये। सभी प्रबन्ध चटपट कर दिये। लोगों
ने छक कर पकवान झाड़े..। ख़ूब नाच-गान हुआ। फिर बढ़िया आराम किया। सुबह सभी बंजारे
और बंजारन को बाँध तक विदा करने को तैयार होने लगे। बंजारन भी सजने-सँवरने लगी।
कैसा ग़जब तो खिला-खिला
बंजारन का रूप था। और पहनावा…आह..हा..हा। नौ कली का घेर वाला, रंग बिरंगा और छींटदार
घाघरा। चटक रंग, बड़े-बड़े छापे और सितारों जड़ी झीनी-झीनी लूगड़ी। कई रंगों की काँचली।
काँचली, घाघरा और लूगड़ी की किनोरों पर जैसे सोने के तार से सिवन की हो। काँचली के
कस में झूलती सोने-चाँदी की घूघरियाँ। गले में एक से एक जेवर। बाजू में बाजूबंद। कमर
में कमरबँध, कलाई में कड़े और चूड़ियाँ। अंगुलियों में हीरे-मोती जड़ी सोने की अंगूठियाँ।
नाक में नथनी। कान में टोंटी। रिंग । माथे का बोर और पैरों की पाज़ेब।
ओह…हो..होह.. क्या श्रृँगार था। जिसकी जहाँ नज़र पड़ जाये…बस.. उम्र वहीं हिलगी रह जाये।
बंजारा और बंजारन
को देखने गाँव-गाँव से बाँध की दोनों तरफ़ लोग जमा होने लगे थे। बंजारे और बंजारन के
पहुँचने से पहले भीड़ बाँध को निहारती। कोई बाँध के बारे में, तो कोई बंजारे और बंजारन
के बारे में बात करता। अटाटूट भीड़ की आँखों में प्रश्न थे- क्या होगा… जब बंजारन चल
कर बाँध पार करेगी…? क्या केवल उसकी पगथली ही भीगेंगी और पाज़ेब न
भीगेंगी..? क्या बंजारन…पाज़ेब भीगने पर भी बंजारे के साथ चली
आयेगी…? क्या बंजारन लौट जायेगी..? क्या बंजारा अपनी असफलता को बर्दाश्त कर सकेगा..?
कहीं निराश होकर नदी में छलाँग तो न लगा दे देगा…? कहीं सदमें से खड़ा का खड़ा सूख
तो न जायेगा..?
जब भीड़ ऎसे ही प्रश्नों
में उलझी थी। सूरज आँखें खोलने लगा था। पक्षी दानों की तलाश में उड़ते निकल पड़े थे।
बंजारन और बंजारा भी बाँध की तरफ़ बढ़ने लगे। उन्हें आता देख, वहाँ जमा हुए लोगों की
बेसब्री बढ़ने लगी। क्या होगा..? पाज़ेब भीगेगी या नहीं…? कुछ
लोग आपस में शर्त लगाने लगे। कोई कहता- अगर पाज़ेब नहीं भीगी
तो मैं अपने चार जोड़ी घोड़े हार जाऊँगा….कोई कहता- अगर पाज़ेब भीगी..
तो मैं अपने तीन जोड़ी बैल हार जाऊँगा…। कोई कहता ज़रूरी नहीं, पूरी की पूरी पाज़ेब भीगे…. एक घूघरी भी भीगी तो हार-जीत होगी। जिसकी जैसी क्षमता
थी, वैसी आपस में शर्तें लगने लगी थीं। लोगों का उत्साह और बेसब्री चरम पर थीं।
क़दम दर क़दम बंजारन
और बंजारा बाँध की तरफ़ बढ़ रहे थे। बाँध और बंजारन के बीच की दूरी जैसे-जैसे घट रही
थी… वैसे-वैसे एक-एक बालिस उत्साह, बेसब्री और शर्तों का लगाना बढ़ रहा था। लोगों की
आँखें बंजारन के मत्स्य नयनों पर कम, पैरों की पाज़ेब और पाज़ेब में झूलती घूघरियों पर टिकी थीं। सोने की पाज़ेब और चाँदी की घूघरी थी। बंजारन के हर क़दम पर…छम..छम संगीत की
बरसात थी। ओह..होह....क्या उस संगीत की तारीफ़ में कहूँ.. और क्या सुनने वालों के कानों
के नसीब के बारे में…!
और जब बंजारन ने
बाँध पर धरने को पहला क़दम उठाया। थम गया संगीत। जाने कितनों की रुक गयी साँस। कितनों
की नहीं झपकी पलकें..! कितने रह गये देखते औचक..। पक्षी उड़ना छोड़ पेड़ों पर बैठ बंजारन
के क़दम को देखने लगे। चीलों को तो पेड़ों पर जगह ही नहीं मिली, वे आसमान में ठिठक कर
ही बंजारन की पाज़ेब और बाँध पर बहते पानी को देखने लगी।
और जब बंजारन का
उठा पहला क़दम नीचे बाँध पर धराया, तो लगा- क़दम बाँध की सतह पर नहीं, बल्कि पानी की
सतह पर ही रुक गया। वह क़दम दर क़दम आगे बढ़ने लगी। लोगों के मन में शर्तों पर लगे बैल,
घोड़े, गाय, भैंस और जाने क्या-क्या इधर-उधर होने लगे। शोर, उत्साह और बेसब्र ख़ुशी
के झरने बहने लगे। बाँध पर से बहते पानी की क्या मजाल की पाज़ेब की
एक घूघरी को छू भी ले..।
पगथली को छूते नदी
के शीतल पानी से बंजारन का रोआँ..रोआँ खिलने लगा। हवा में रोओं से झरती ग़ज़ब की ख़ुशबू
बह चली। बंजारे की बाँछे खिल कर आसमान हो गयी। भावना नदी के पानी में घुल कर बंजारन
की पगथली को धोने लगी। बंजारन की पाज़ेब की घूघरियों के स्वर
में नदी गुनगुनाने लगी।
कहते हैं- ऎसा प्रणवान
बंजारा फिर कभी नहीं हुआ। ऎसी बंजारन भी दुबारा नहीं जन्मी..। ऎसा बाँध भी फिर कहीं
किसी ने नहीं बँधवाया। उस बंजारे और बंजारन के प्यार की निशानी वह बाँध… आज भी कायम
है। बाँध का नाम भी ‘ बंजारा बाँध’ है। प्रेमी-प्रेमिका बंजारा बाँध की क़समें खाकर
साथ निभाने के वादे करते हैं।
बाँध तो दुनिया भर की नदियों पर अब भी ख़ूब बन रहे
हैं। पर उन्हें प्रेमी बंजारे नहीं, कम्पनियाँ बना रही है। अब पाज़ेब
और उसकी घूघरी के न भीगने की बात छोड़ो। घर, खेत और गाँव तक बचाना मुश्किल हो
रहा। वाकय समय बदल रहा। विकास की गंगा बह रही दिन-रात। डूब रहा सुख-चैन।
लेखक परिचय
सत्यनारायण पटेल
m-2 / 199, अयोध्यानगरी
(बाल पब्लिक स्कूल के पास)
इन्दौर-452011
म.प्र.
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आत्मकथ्य
मैं उस ख़ुशबू का
दीवाना हूँ, इसलिए लिखता हूँ।
मैं क्यों लिखता
हूँ..? पुरस्कार और सम्मान पाने के लिए..! किसी अय्याश धनपशु के मनोरंजन के लिए। नहीं,
इनमें से किसी के लिए भी नहीं। फिर..? आज वही प्रश्न अग्रज नासिरा शर्मा जी ने पूछा
है मुझसे, जो उन्नीस-बीस बरसों से पूछती आ रही है मेरी माँ- सोरम बाई। सोरम यानी ख़ुशबू।
जब भी देखती वह कुछ लिखते या पढ़ते मुझे। टोंकती अपनी मालवी बोली में- क्यों इनी किताब-कापी
में आँख फोड़ता है अब भी..? इतरी मगजपच्ची कोई और काम में कर.. तो दो पइसा आवे घर..।
बाल-बच्चा सुख से रय..। अब अधबुढ़ा हो गया.. अब किताब-कापी में आँख फोड़ने से मिले
कईं..!
मैं अपनी माँ को
नहीं दे सका ऎसा जवाब कभी कि वह न पूछे वही सवाल फिर कभी। दूँ भी तो कैसे..? माँ न देख सकी कोई स्कूल कभी,
न बाँची कोई किताब। बस बाँचती रही है पिचहत्तर-छिहत्तर साल से, अभाव के पन्नों पर, आँसुओं के रेलों-सी ज़िन्दगी। जबसे संभाला होश।
खटती रही खेत-माल में। जेठ, बसंत और आसाढ़ में। जब हुई थोड़ी और बढ़ी तो बढ़ा खटने
का दायरा भी। खेत में उगाती साग-भाजी। ज़मीन पर बैठ हाट में बेचती। क़स्बों की गलियों
में बेचती सिर पर टोपला रख। जब थी नानाजी की प्यारी बेटी। और जब बन गयी पिता जी की
दुल्हन। मेरी और तीन भाई-बहन की माँ। फिर दादी और नानी भी। तब भी करती है वही। माँ
की ज़िन्दगी की किताब में बरस दर बरस पलटे कितने ही पन्ने, लेकिन हर पन्ने पर लिखा था
काम वही।
माँ के पास हर बात
का होता दो टूक जवाब। उसके तर्क़ का अक़सर मेरे पास नहीं होता कोई जवाब। मैंने अनेक बार
कहा- माँ तूझे इस उम्र में खेत में न खटना पड़े। हाट-बाज़ार में साग-भाजी न बेचनी पड़े।
तुझे ही नहीं, तेरी उम्र में किसी को न करना पड़े काम, इसलिए लिखता हूँ।
-काम नी करूँ… साग-भाजी
नी बेचूँ.. तो लूण-तेल कहाँ से लाऊँ..? घर में दो गुलुप जलते हैं.. उनका बिल न भरूँ..
तो लाइन कट जाती है… छोटे वाले के भी दो बच्चे हैं…रात दिन हड्डी गलाता है..पर स्कूल
की फीस पूरी नी पड़ती है…खाद का पइसा नी देवाय..। तू कहता काम मत कर… सेहर में आकर
गेल्यो ( पागल ) हुई ग्यो कईं..? माँ कहती
एक साँस में और हाँपने लगती।
माँ जैसे सबकुछ गाँव
से सोच कर आती है कि मैं क्या कहूँगा.. तो वह क्या कहेगी..? कई बार मैंने कहा- तू मेरे
पास रह जा। गाँव मत जा।
वह कहती तो नहीं
ज़्यादा कुछ। पर देखती ऎसे कि मुझे अपनी आर्थिक हैसियत की चादर की सीमा नज़र आती। फिर
मैं सोचता रहता घन्टो।
मुझे याद आती ऎसी कई कंपनी जिनके करोड़ों रुपयों
के बिल माफ़ करती है सरकार। छूट देती करोड़ों रुपयों की जिन्हें।
मैं पूछना चाहता हूँ कि क्या देश चलाती है सिर्फ़
कंपनियाँ..? और क्या सिर्फ़ बोझ है देश की धरती पर करोड़ों माँ।
और सवाल सिर्फ़ बिजली,
पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य भर का भी नहीं है। है एक नागरिक के आत्माभिमान का भी। विकास
की अंधी दौड़ में, जाने किससे होड़ में… देशवासियों के स्वाभिमान को, सम्मान से ज़िन्दगी
जीने के अधिकार को, किसी दैत्य की तरह रौंद रहे हैं देश चलाने वाले..। क्यों..? मेरे
इस क्यों पर सुअरबाड़े के सफ़ेद सूअर मंद-मंद मुस्कराते हैं। उनकी मुस्कान छलनी करती
है मेरा कलेजा।
यदि आज भी पहननी
हो माँ को चप्पल। बचत करती है कुछ हाट तक। सुअरबाड़े में जाते सूअर बदल-बदल कर पहनते
हैं रोज गुत्शी का जूता..। आज भी अँदाज़ा लगाती है सही समय का माँ। सूरज को देखकर। और
सूअर ग़लत वक़्त बताता है राडो घड़ी में देखकर भी। क्यों है..? देश की मालकिन नंगे पैर..
फटी लूगड़ी और उसका नौकर, सेवक अपटूडेट है..! मेरे सीने में रायसीना से सैकड़ों गुना
ऊँचा पहाड़ है.., क्यों का पहाड़...? उन क्यों
के खोजता हूँ लेखन में उत्तर। पूछता हूँ नौकरों और सेवकों से सवाल। लेकिन सारे के सारे
ढीट, नहीं देते है कोई जवाब।
लिखता हूँ कि नौकरों
और सेवकों को उनकी ज़िम्मेदारी को बोध हो। और शायद इसलिए भी कि फिर कभी न हो 84, 92
और 2002 भी। न मेरठ हो, न मुंबई हो। न हो मुज़्ज़फ़्फर नगर। क्योंकि जब भी होता है ऎसा
कुछ। लाखों माँ रोती है ख़ून के आँसू।
मैं चाहता हूँ कि
लिखूँ ऎसा कुछ। जिसे पढ़कर सुधर जाये दुनिया भर के ठग। डाकू। हत्यारे। राजा। तानाशाह।
धनपशु । बल्कि उम्मीद करता हूँ कि वह व्यवस्था बदल जाये, जो करती है इन सभी को पैदा।
दुनिया के लिए अन्न उगाने वाला कभी न सोये भूखा। उसे न पीना पड़े अपमान का घूँट। कीटनाशक।
और सुख के झूले की बजाए न झूलना पड़े फन्दे पर कभी।
मैं इतना स्वार्थी
नहीं कि सिर्फ़ व्यक्तिगत वजहों के लिए लिखूँ या उन्हीं की बात करूँ ! मेरे व्यक्तिगत
फोड़ों, फफोलों और घावों से बड़े हैं, मेरी जन्म भूमि और देश के सीने पर लगे घाव। और
यह सब इसी आर्थिक सामाजिक अव्यवस्था की देन है। मेरी निजी और सामूहिक पीड़ा इसी से
उपजी है। मेरी निजी और सामूहिक ख़ुशी, सुख और मुक्ति इस अव्यवस्था के मलबे से ही निर्मित
होगी। मैं इस अव्यवस्था के क़िले के कंगूरे पर चढ़कर इठलाने के लिए नहीं लिखता हूँ।
मैं इस क़िले की नीव में बारूद बन दफ़्न होने की इच्छा से लिखता हूँ। शब्दों की चाबुक
मारता हूँ इस क़दर कि चाबुक के साथ चली आये उधड़कर अव्यवस्था की खाल भी। ताकि उसके ज़ख्म
पर देशी नमक मल-मल कर धो सकूँ विकार सभी।
मुझसे बर्दाश्त नहीं
होती ग़ैरबराबरी, और इस अव्यवस्था में बराबरी, समानता जैसे शब्दों की कब्र बन गये हैं
शब्दकोश ही। लिखता हूँ कि शब्द धड़क सके पूरी अर्थवत्ता के साथ। कि देखना चाहता हूँ
भोर की आँख में झिलमिल ख़ुशी। शाम न ढले सिसकती हुई। मेरे लिखने की है अनेक वजह। वक़्त
ही सुनायेगा कभी मेरे लिखने की दास्तान भी। मुझे तो सुनानी है अभी बेजुबानों की दास्ताने
बहुत। मैं कैसे कहूँ कि माँ के संघर्ष की ख़ुशबू बहती है मेरे ख़ून में लावा बन कर।
अपनी माँ, जन्म भूमि, बोली और भाषा के सम्मान के लिए लिखना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ
कि पेट पर गीला कपड़ा बाँध कर न सोए मेरे देश का भविष्य। मुझे पसंद नहीं है अपने भाइयों
का ख़ून बहाना। इसलिए चुनी बन्दूक की बजाए कलम। कलम पर न लगे कभी कलंक, इसलिए मैं बुलेट
से भी ज़्यादा ताक़त से शब्द दागता हूँ। मुझे बुलेट से ज़्यादा भरोसा शब्दों पर है अभी।
कोई मेरे भरोसे का इम्तहान न ले। क्योंकि जब भरोसा टूटता है, तो सिर्फ़ भरोसा नहीं टूटता
है। टूटता है तमाम मान्यताओं का क़िला भी। जिसमें क़ैद होती है सुन्दर दुनिया के सपने
की मासूम इच्छाएँ। मैं ऎसे क़िलों के एरन और ईंट को अनार दानों-सा बिखेर देना चाहता
हूँ.. तोप से नहीं, शब्दों से।
मैं कहना चाहता हूँ
कि न बारूद, और न ख़ून की घुले हवा में गँध। दशो दिशाओं की हवा में उड़े। सिर्फ़ और
सिर्फ़ माँ के हाथों बनी रोटी की, प्यार की। दुलार की। माँ के नाम और संघर्ष की ख़ुशबू
उड़ती रहे। क्योंकि उसमें घुली है इंसानियत की ख़ुशबू। मैं उस ख़ुशबू का दीवाना हूँ,
इसलिए लिखता हूँ।
Good reead
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