दरकते आईने की आईनासाज़ी
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उपन्यास की कहानी बहुस्तरीय
है किसी एक जगह वह टिकती नहीं है वरन इस लिखंत की पढंत धीमे धीमे मन मस्तिष्क में
व्यापती है। अनामिका जी के अनुसार:
“कोई भी अच्छी कहानी या कविता यह प्रक्रिया’, कुछ
होने’ या ‘नहीं होने’ की प्रक्रिया, कहीं पहुँचने या नहीं पहुँचने की प्रक्रिया बहुत महीन ढंग से फोकस करती है। किसी
बिंब किसी मोटिफ़,किसी वक्रोक्ति,किसी चरित्र और किसी शिल्पगत औज़ार से फोकस करती है।”
आईनासाज़’ वास्तव में अनेक विधाओं का मिला जुला रूप है पत्र,यात्रा, मौखिक इतिहास और मिथक ,किंवदंतियाम और इतिहास के सूत्रों को बडी ही खूबसूरती से पिरोया गया है। एक लम्बे कल क्रम को साक्षी बनाकर लेखिका ने अनेक गाथाएँ एक साथ कह डाली हैं जैसे शायरों में कलाकारों में एक खास बात देखी है टूटते हैं तो कुछ देर की खातिर भरभरा कर टूट जाते हैं ,उसके बाद अपने टूटे कतरे जोडकर खुद ही खडे होते हैं" -(पृ.33)
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आईनासाज़’
उपन्यास को पढते हुए पहला प्रश्न मन में यही कौंधता है कि इतिहास से जुडने के
प्रयत्न के पीछे लेखिका की मंशा क्या है? बारहवीं
शती के मध्य से लेकर वर्तमान सदी
जिसके दो दशक बीतने को हैं - इतने
लम्बे समय में पाँव फैलाए हुए इस उपन्यास की रचना में क्या यह केवल एक लेखकीय
युक्ति है अथवा क्या कारण है कि इतिहास के
लम्बे समय को खँगालते हुए लेखिका ने ‘अमीर खुसरो’ को ही चुना ?
इतिहास
बताता है कि काल ने कितना छोडा है किंतु महत्वपूर्ण यह है कि अवशिष्ट में से भी हम
कितना उपलब्ध कर पाते हैं या करना चाहते हैं। इसका अर्थ यह है कि यह तो लेखक का
दृष्टिकोण है कि वह काल के उस प्रवाह में से क्या ,कितना और किसे चुनता हैं। इतिहास-व्यक्तियों या व्यक्ति विशेष के
प्रयासों और उपलब्धियों के साथ-साथ ही समाज के समवेत प्रयत्नों को और उसकी
उपलब्धियों को भी बताता है। समाज की शक्ति को उजागर करते हुए इतिहास मनुष्य के
भविष्य और उसकी शक्ति में विश्वास पैदा करता है । लेखिका के इतिहास की ओर देखने का
एक कारण यह भी है कि यह विश्वास ही वह तत्व है जो वर्तमान समय में चुक रहे मनुष्य
की रक्षा कर सकता है और उसे जीवन की नई जिजीविषा दे सकता है। पर अमीर खुसरो ही
क्यों? आखिर अमीर खुसरो के पास क्या जादुई
ताकत थी कि उस भयंकर अराजकता भरे संक्रमण शील दौर में लगभग पाँच राजशाहियों के
दरबार से ताल्लुक रखते हुए भी खुसरो अपनी लेखनी और शख्सियत को बेदाग बनाए रख
सके। बनती बिगडती सल्तनतें राजा-राजशाही
और उसकी समूची प्रवृति तथा इतनी राजशाहियों के बीच भी साफ शफ्फाक मन लिए अमीर
खुसरो का अपना व्यक्तित्व जो निरंतर ‘न काहू से बैर’ को अपनाए रखता है,
क्या यही वह
सूफी मन है जो लेखिका का आदर्श है जिसकी खोज में स्त्री सारा जीवन बिता देती है।
सूफी तरबीयत और स्त्री मन क्या एकमेक होना चाह्ते हैं ताकि मानवीयता अपने पाँव
पसार सके।
उपन्यास
में यह साफ देखा जा सकता है कि बीते अतीत की यह ट्रीटमेंट क्या है।किसकी तलाश में
लेखिका का कवि ह्रदय 1200 वर्षॉं के पूर्व इतिहास में जा भटकता
है।यह भी स्पष्ट है कि यह खोज एक व्यक्ति की नहीं मानव की सूफी प्रवृत्ति और समूचे
समाज और सामाजिक संबंधों की खोज है और कभी कभी
इतिहास के नाभिक पर स्थित एक व्यक्ति ही संपूर्ण स्थितियों पर हावी होता है। इसी व्यक्ति को तलाशकर लेखिका वर्तमान की ज़रूरत पूरा करती हैं।वास्तव में मनुष्य
एक ऐतिहासिक प्राणी है,वह इतिहास में जन्मता है और इतिहास
बनाता हुआ स्वयम इतिहास हो जाता है पर इतिहास में भटका लेखक मन मरजीवा की तरह वह सच्चे मोती चुन लाता
है जो मानवीय व्यक्तित्व का आदर्श है।
स्वयम
उपन्यास की पात्रा श्यामा जी के माध्यम से कहती हैं- ”जब भी हम किसी बिसरे हुए
कालखंड से कोई कहानी उठाते हैं, परछाईयाँ और आहटें पकडने का अजब खेल हमें खेलना होता है। यह
पेरक्रिया हाहाकार में डूबे समुंदर स्से मछलियाँ पकडने जैसी प्रक्रिया है। कई बार
मोबिडिक ‘ओल्डमैन एंड द सी’ या’ ‘चेम्मीन’ के मछुआरा नायकों की तरह हम अपनी कछार
खो देते हैं और डूबते हुए लगातार एक अतल में जा पहुँचते हैं। यह अतल एक मायावी
नागलोक की सुरंगों से गुजरता हुआ हमारे अपने भाषिक अवचेतन तक पहुँचा देता है जहाँ
सदियों से निजी या जातीय तकलीफें खूबसूरत बंदिनियों की शक्ल में निश्चेष्ट बैठी
मिलती हैं। जैसे डूबते को तिनके का सहारा वैसे अवचेतन में डूब चुकों को कलम का। इसी
कलम का तिनका उन अतल बंदिनियों को मुक्ति की राह दिखाता है जिन्हें दुख कहते हैं
।“(पृ.150) शायद यही कारण है कि स्त्री मन के अनेक
दुख रह-रहकर इस पूरी कथा में बिजली की तडप
से कौंध जाते हैं।
स्त्रीवादी विमर्श से जुडे समस्त मुद्दे यहाँ है लेकिन इस
उपन्याअस को केवल ‘फेमिनिज़्म’ तक सीमित कर देना इसकी कहन को ‘रिड्युस’ यानी कम
करके आँकना है क्योंकि वास्तविक चिंता मानवीयता की है, वही मानवीयता जो सूफी मन में छिपी है।
‘सूफी मन’ यही वह संज्ञा है जो मंशा
बनकर इस पूरे उपन्यास को परिचालित करती है । लेखिका ने वर्तमान समय और स्थितियों
को देखते हुए अमीर खुसरो और उनके माध्यम से सूफी दर्शन को चुनकर आज के समय की
चुनौतियो से दो चार किया है । इस पूरे उपन्यास में दो प्रश्न एक साथ उठते हैं एक
तो स्त्री की स्थिति और दूसरा आज के माहौल में हिन्दु मुस्लिम रिश्तों का दूसरे शब्दों में कहा जाए तो सांप्रदायिकता और
उसके प्रति हमारा दृष्टिकोण। आख्यान को इतिहास और इतिहास को आख्यान में बदलता हुआ
यह उपन्यास अमीर खुसरो के माध्यम से सूफीवाद की धर्मेत्तर आध्यात्मिकता को
खूबसूरती के साथ उपस्थित करता है । इतिहास की सामंती प्रवृत्ति से भिन्न ‘आईनासाज़’
इतिहास के उस सांस्कृतिक पक्ष की खोज है जहाँ संक्रमणकालीन समय में दो भिन्न
संस्कृतियाँ एक दूसरे मे समाहित हो रहीं थीं
और इसके नाभिक पर स्थित हैं अमीर खुसरो जिनका ब्व्यक्तित्व - व्यक्ति समाज
और इतिहास का वह पक्ष सामने रखता है जहाँ दो संस्कृतियों का श्रेष्ठ भाग एक
व्यक्तित्व में सँजो जाता है और वह व्यक्ति काल के लम्बे दौर में अमर हो जाता है
और जिसके माध्यम से इतिहास का वह पक्ष सामने उभरकर आता है जहाँ सूफी संतों का सामंजस्य
जीवन को प्यार और बेफिक्री से जीना सिखाता है । आखिर मनुष्य अपने जीवन में चाहता
क्या है? शाँति ,अमन, सूकून और कोई ऐसा साथी जो उसके मन का
हो जिसके साथ वह अपने सुख-दुख सब बाँट सके, जो
उसे सम्मान दे। उपन्यास के फ्लैप पर उकेरी गई ये पंक्तियाँ उपन्यास के सार को
अभिव्यक्त कर देती हैं।
’ज़िन्दगी एक सूफी सिलसिला इस तरह भी है
कि / चिराग से चिराग रोशन होता है मशाल से मशाल” और यह परस्पर संबंध जिस डोर से
बँधा है वह सभी लोग सूफी मन वाले हैं।
सच
कहा जाए तो यह सूफी मन अनामिका जी का स्वप्न है जो साफ आकाश वाली रात में तारों की
झिलमिलाहट की तरह बार बार झलक जाता है साथ ही वर्तमान समय में स्त्री की स्थिति और
समाज के अंतरवलयों में उसका स्थान - निरंतर प्रश्न बनकर लेखिका के मन में कौंधता
रहता है ।
प्रस्तुत
उपन्यास स्पष्ट तौर पर दो भागों में बंटा हुआ है एक और अमीर खुसरो के आख्यान से, दूसरे वर्तमान समय से। उपन्यास के आरंभ
में ही दो पत्र हैं एक सपना के नाम उसके मित्र सिद्धू का, दूसरा ललिता चतुर्वेदी का। यह दोनों पत्र ही इस
उपन्यास का वह सूत्र बिंदु हैं जिन पर उपन्यास का पूरा ढांचा खडा है। सूफी सिलसिला
और जीवन में किसी ऐसे अंतरंग कोने अहसास या व्यक्ति की तलाश जहाँ चित्त रम जाए
इसकी खोज पूरे उपन्यास में है ।लेखिका बडी ही खूबसूरती से कहती है कि ‘मार्क्सवाद
और ईश्वर यानी धर्म,दोनों में कोई परस्पर विरोध नहीं है ,क्योंकि दोनों की मूल तडप एक है –स्व की अनहद
का अनंत विस्तार –एक ही दोष है दोनों में जिससे दोनों को निजात पानी है
–‘श्रेष्ठता ग्रंथि का दोष ‘जो हूँ मैं ही हूँ और अंतिम सत्य मेरी ही जेब में है ‘
का अहसास ही शायद इन दोनों के ध्वंस का कारक बना”। यह अहँकार इन दोनों को भारी
पडा। इन दोनों को मिलाना लेखिका का यूटोपिया है वह कहती हैं कौन सूफी उभरेगा जो इन
दोनों झगडे हुए भाईयों को फिर से एक करेगा। इसी संदर्भ में लेखिका को सूफी संतों
के सिरमौर अमीर खुसरो बार बार याद आते है । यहाँ से उपन्यास का पहला खंड खुसरो को
समर्पित होता है। सपना द्वारा अमीर खुसरो का आख्यान पढकर खत्म करने और सिद्धू की ई
मेल से उपन्यास आरंभ होता है।सिद्धू की ई-मेल वर्तमान, इतिहास और मानव दृष्टिकोण का सार है।
सिद्धू
मध्य एशिया के उस क्षेत्र में है जो पूर्व और पश्चिम का सम्मिलन कहा जाता है| बगदाद और समरकंद घूमते हुए वह अपनी आत्मीय
मित्र सपना को याद करते हुए तथा मध्य एशिया के सूफी गढ पर टिप्पणी करते हुए यह
नहीं भूलता कि “पश्चिम केंद्रित जो इतिहास हमें पढाया जाता है,उसके अनुसार तो सभ्यता की प्रगति कुछ ऐसे हुई
कि प्राचीन यूनान के गर्भ से रोम जन्मा,रोम
के गर्भ से ईसाई यूरोप,ईसाई यूरोप से जन्मा रिनांसा,रिनांसा से एनलाईनमेंट या प्रबोधन,एनलाईनमेंट से जनतंत्र जन्मा और औद्योगिक
क्रांति जन्मी-दोनों परवान चढे अमरिका में जो मानवाधिकारों की स्वस्थ प्रसन्न
जन्मभूमि या डिज़्नीलैंड के रूप में दुनिया के आगे नमूदार है ।“ लेखिका की ये
पँक्तियाँ उस इतिहास बोध की चूलें हिला देती हैं जो बरसों से बूँद-बूँद कर इस
विश्व नागरिक के भीतर रिसता रहा है और जो उसके मन मस्तिष्क पर हावी है ।
इस इतिहास
बोध से परे जाकर सिद्धू बगदाद के भग्नावेशों को देखते हुए उस इतिहास का बोध करता है
जो सिल्क रूट पर रेशमी और नक्काशीदार संस्कृतियों के रूप में पनपा। जिसके पीछे
संघर्ष के लम्बे इतिहास के साथ विचारों,किताबों
,रिवायतों और मजहबों की आपसी गूफ्तगू भी शामिल
है ।जिसका सार यह है कि “जो दूसरी तरह का है,दुश्मन
है,यह धारण यूरोप एक लम्बे समय तक फैलाता रहा।अतीत
भविष्य के और लोक शास्त्र के गले मिले यह ज़रूरी है ।ज़रुरी है कि दुनिया के सारी
ज़ुबानों के शब्द मुल्कों और सरहदों के बीच की सरहदें मिटाते हुए सूफी जत्थों की
तरह आपस में दुआ सलाम करते दिखाई दें।आसमान में सात चाँद एक साथ ही मुस्कुराएँ”।
यह साँमजस्य स्थापित हो जाए यही भावना इस उपन्यास के मूल में है।
सपना शोध के सिलसिले में अपनी गाईड ,मेंटोर और मित्र - ललिता चतुर्वेदी द्वारा दिया
गया अमीर खुसरो पर लिखा गया एक उपन्यास पढती है जो उनके पिता ने लिखा था।
उपन्यास
यहीं से खुसरो का आख्यान कहता है। खुसरो की वंशबेल,पैदाईश,परवरिश और उनके व्यक्तित्व में पनपने
वाले समंन्वय का एक बडा कारण लेखिका यहाँ देती हैं कि वह अपने नाना के यहाँ पले थे
(यह ऐतिहासिक सत्य है) जो नवमुस्लिम थे, धर्मातंरण जैसे शब्द को छोडकर ‘नवमुस्लिम’ जैसा प्यारा सा
शब्द अनामिका जी की कलम से ही निकल सकता था। अमीर खुसरो के दरबारों से जुडने और
युद्धों में भाग लेने के ऐतिहासिक तथ्यों को लेखिका ने बडी ही खूबसूरती और तहज़ीब
के साथ आख्यान में जोडा है ।दिल्ली का सुल्तान गयासुद्दीन बल्बन,उसका भतीजा मलिक छज्जू,मलिक छज्जू का भतीजा बुगरा खान से बारी-बारी
खुसरो के जुडने और बल्बन के कलाप्रिय बडे बेटे सुल्तान मोहम्मद के साथ मुल्तान
जाने का जिक्र करते हुए अनामिका जी ने खुसरो की खूबसूरत टकसाली ज़बान या यों कहें
की हिन्दवी के बनने की दास्तान भी सुनाई है। हम सब हिन्दी से ताल्लुक रखने वाले यह
भली भाँति जानते हैं कि वर्तमान हिन्दी को बनाने में खुसरो का कितना बडा हाथ रहा
है ।यह ज़ुबान उन्हें मिली कहाँ से बंगाल से आकर मुल्तान जाने के प्रस्ताव पर जब
खुसरो औलिया से पूछते हैं तो औलिया खुसरो को कहते हैं “”वहाँ हो आओ। पंजाब में
पाँच ज़ुबानें पाँच दरियों की शक्ल में ठाठे मारती बह रही हैं ।बंगाल की मिठास से
बानी सींचकर आए हो,पंजाबियत से भी सींचो।आगे मैं देख रहा
हूँ अवध जाओगे, वहीं की बोली तुम्हारी शायरी में फारसी
का तबोताब,बाँग्ला की मिठास और पंजाबियत का सूफी
नूर पाकर ऐसी दमकेगी कि एक नई ज़बान पा लेगा ये हिंदोस्तां"।
उपन्यास
का गल्प एक दिलचस्प मोड वहाँ लेता है जहाँ अमीर खुसरो के आख्यान को लेखिका ने
पद्मिनी के आख्याने से जोडा है ।यहाँ
उन्हों ने खुसरो को मध्यस्थ की भूमिका में दिखाया है जो अलाऊद्दीन खिलजी के तम्बू
में जाकर उसको इस बात के लिए राज़ी करता है कि तबाही न कर अपने देश लौट जाए। लेकिन
वह पद्मिनी की एक झलक पाए बगैर हटने को तैयार नहीं । तब ध्वंस के खौफनाक मंजर से
बचने के लिए खुसरो पद्मिनी के पास यह संदेश लेकर जाते हैं कि वह दूर से अलाउद्दीन
को शीशे में अपना अक्स भर दिखला दे। अलाउद्दीन ने भरोसा दिया है कि फिर वह लौट
जाएगा। लेकिन पद्मिनी का अक्स देखकर वह बेलगाम हो गया और फिर एक मुठ्ठी राख ही
बची। जिसके लिए खुसरो खुद को दोषी मानते हैं ।और वे एक गहरे अवसाद में डूबे हुए
अपनी पति प्रिय पुत्री और समूची स्त्री जाति के प्रति जिस पश्चाताप का भाव रखते
हैं वह सूफी मन किस तरह दुखी है एक गलत निर्णय के कारण जबकि मंशा भलाई की थी यह
बहुत महत्वपूर्ण हो उठता है । एक लम्बी कवितानुमा रचना में अनामिका जी ने इस पूरे
प्रकरण को उपन्यास में संजोया है और यह कविता स्त्री मन का एक भरा पूरा विश्लेषण
है।
भाषा
एक औज़ार है उसे जिस मिठास से लेखिका बरतती हैं वह उनका अपना चरित्र भी है।अपने
पहले कविता संग्रह अनुष्टुप में अनामिका जी लिखती हैं” संगीत से ताल छंद प्रवाह,चित्रकला, मूर्तिकला
से बिम्ब,वास्तुकला से शिल्प और स्थापत्य,नाट्यकला से संवाद,कला जगत से विवरण लेकर कविता अस्मिता से जुडे
गंभीरतम सत्यों का संधान चाहती है। कविता चाहती है हमारे सपनों हमारी जातीय
स्मृतियों को अपना दूध पिलाकर हमेशा के लिए सुरक्षित कर देना”। (अनुष्टुप पृ.8) इसीलिए वे कविता में इन भावों को पिरोती हैं
शायद यह विश्लेषण इतनी खूबसूरती से गद्य में संभव नहीं था -”घुट्टी में पी ले
–/युद्ध में हारे-थके जिद्दी लुटेरे औरतों की गोद में यों शरण चाहते हैं / जैसे
पहाड की तराई में,लहरों में / पर उनको यह समझना चाहिए,कि कि औरत में तैर पाने की योग्यता /नदियों में
डुबकी लगाने / या पहाड पर चढ जाने की योग्यता से,
ज्यादा
विषम है।अर्जित करनी होती है योग्यता / धीरज से संयम से/ अक्षय सहिष्णुता से /औरत होना पडता है पहले,/जन्मों तक करनी पडती है प्रतीक्षा कि प्रेम और
जबर्दस्ती? / फट जाती है धरती ऐसे ही दुर्योगों से”।
पद्मिनी की अस्मिता का संघर्ष यहाँ उस पूरे
मध्ययुगीन बल्कि आज भी उस पुरुष के पौरुषत्व सामने तन कर खडी है जो स्त्री को
महज एक खिलौना समझना है या मनबहलाव की वस्तु जो स्त्री के सौंदर्य पर ज़बरन हावी
होना चाहता है उसे पा लेना चहता है सच पूछिए तो यह संदर्भ आज न जाने कितने ऐसे
किस्सों का अतीत और वर्तमान है जहाँ पुरुष ज़बरन स्त्री को पा लेना चहता है कभी
उसके सौंदर्य पर रीझकर कभी किसी अन्य कारण है जिसे वह प्यार का नाम देता है वह महज
लूट खसोट है बिना स्त्री का मन समझे उसे पा लेने का प्रयत्न मानवीयता के विरूद्ध
है एक भयंकर अपराध। खुसरो के चरित्र को दो अन्य चरित्र यहाँ एक विशेष धार देते हैं
एक तो उनकी पत्नी मैहरू दूसरे उनकी पुत्री कायनात। मैहरू का अर्धागिनी भाव खुसरो
के चरित्र को पूर्ण करता है वह पत्नी है पर उससे अधिक एक सचेत नारी। जो जानते है
कि पति की सत्ता से अलग उसकी भी इयत्ता है। खुसरो उसका जिक्र कुछ इस तरह करते
हैं-बहुत दिनों बाद गौर से मैंने अपनी मैहरू का चेहरा देखा।----इस उम्र में इतना
हुस्न !साँझ के सूरज का शाईस्ता ठहराव-कहीं कोई धधक कोई आग नहीं।ज़िंदगी के सब
रहस्य थोडा-थोडा समझकर नम हुईं वे समझदार आँखें,थोडे से खुले हुए आबदार होंठ जिनमें नूर का चश्मा सा बहता दिखाई दे
रहा था(पृ.43) कायनात खुसरो की शायरा और ज़हीन बेटी है जिस पर पिता के रूप में खुसरो
सौ जान से फिदा हैं ।चार बेटों के होते हुए भी कायनात खुसरो के जी का सूकून है।
बेटी के इस लाड दुलार को वही समझ सकता है जिसने बेटी के रूप में इस दुलार को पाया
हो ।उपन्यास में अनेक घटनाओं के धात व्याघात के बीच कायनात ईरान से आए युवकों के साथ गायब हो जाती है,जो निजाम पिया से मिलने आए थे और सूफी धर्म में
आस्था रखते हैं। जिनके विषय में पूरा
संदेह है (और अंत में यह संदेह सच भी निकलता है कि उन्हें नगर कोतवाल ने गायब
करवाया है। उपन्यास के पहले हिस्से का चरम वहाँ है जहाँ खोई हुई बेटी घर के
पिछवाडे एक सूफी संत के रूप में बैठी हुई मिलती है और पूरा परिवार उसे पाकर निहाल
हो जाता है सबसे बडी बात कोई भी उससे प्रेश्न नहीं करता कि वह कहाँ थी और इतना
लम्बा समय उसने कहाँ और किस तरह बिताया ? यह
सवाल न करना बेटी पर अटूट विश्वास और उस सम्मान का प्रतीक है जो हर नारी चाह्ती है
।
उपन्यास
का दूसरा खंड स्त्री का वर्तमान और समाज का वह चेहरा दिखाता है जो सांप्रदायिकता,हिंसा,ध्वंस
के बीच टूट चुका है साथ ही यह राह भी दिखाता है कि इस टूटे हुए मन और समाज के आईने
की आईनासाज़ी किस तरह की जा सकती है ।यथार्थ के बीच से उभरता हुआ आदर्श यहाँ है। यह
कथा है सपना और उसके परिकर में आने वाले
परिजनों और पुरजनों की उससे भी अधिक किसी महानगर के जाने माने विश्वविद्यालय के उन
कोनों की जहाँ दूरदराज़ कस्बे से आए विद्यार्थी शरण ढूँढते हैं । विश्वविद्यालयी
प्रेम ,राजनीति, ऎडहाक नौकरियाँ,अनिश्चित
भविष्य,गलाकाट स्पर्धा देश और विश्व की
राजनीति-विश्वविद्यालय की मानो पूरी रपट लेखिका ने यहाँ लिख दी है। किसी मेस या
पीजी में रहकर ये छात्र और छात्राएँ अपना समय तंगहाली और सपने देखने में बिताते
हैं।सपना इन्हीं विदयार्थियों में से एक है। पिता को असमय आतंकवादी हमले में खो
देने पर रिश्तेदारों के बीच जैसे तैसे कर पली हुई सपना महानगर में पढने आती है पर
मॉडलिंग का नाम लेकर किए जाने वाले देह व्यापार में फंस जाती है। जिससे उसे सिद्धू
के साथ साथ महिमा और विश्वविद्यालीय राजनीति करने वाले नेता शक्ति दा, उबारते हैं।शक्ति दा और सिद्धू की अपनी एक बैड
पार्टी है ‘सूफियाना’और इसका उद्देश्य था सगीत की शास्त्रीय और लोकप्रिय धारा से
जुडे नये कलाकारों का एक संयुक्त मोर्चा तैयार करना जो दुनिया की श्रेष्ठ कविताएँ
गाएँगे।“मानस यानी मनविंदर सिंह सिद्धू जो एक सामान्य किसान का बेटा है यहाँ पर
अफसर बनने का सपना लिए यू.पी.एस सी का अंतिम चांस का पेपर दे रहा है महिमा और वह
आपस में प्रेम करते हैं। महिमा और शक्ति दा बहन भाई हैं ।शक्ति दा विश्वविद्यालय
के नेता कुछ कुछ आध्यात्मिक,जापान
की बौद्ध संस्था सोकागाकाई से जुडे और राजनीति में अपनी पकड रखने के साथ साथ ऐसे
लोगों से भी वास्ता रखते हैं जो थियेटर एक्टिविस्ट,, तरह तरह के बेरोज़गार, चायवाले,मदारी चौकीदार और कुछ हद तक गुण्डे लोगों से
घिरे रहते हैं।शक्ति दा कहीं न कहीं महिमा के प्रति अनुराग रखते हैं पर महिमा को
उनके व्यक्तित्व में वह फाँक देखती है जो तमाम इस तरह के पुरुषों के व्यक्तित्व
अक्सर रहती है जो ‘पब्लिक फिगर’ होते हैं। सेक्स रैकेट से उबरने के बाद वे अपना
काम करवाने के लिए महिमा को जिस तरह का प्रस्ताव देते हैं महिमा उनसे बिदक जाती है
।ललिता जी के कह्ने पर सपना को उनके पडोस में रहने वाली वयोवृद्ध लेखिका के यहाँ
काम मिल जाता है। (न जाने क्यों यह वयोवृद्ध लेखिका कृष्णा सोबती की याद दिलाती
है) जिनके साथ रहते हुए सपना को घर पर रहंने का एहसास होता है ।यहीं सपना की
मुलाकात आदिवासी लेखिका सरोज किंडो और डॉ. नफीस से होती है जो सचमुच उसके मन का
गुईंयाँ और नफीस व्यक्ति है।
अनामिका जी लिखती हैं “स्त्रियों का कद तो बढा है,पर उस हिसाब से पुरुष ने ऊँचाई बढाई नहीं। स्त्री का गुईंयाँ बन सकने वाला पुरुष –धीरोदात्तपुरुष काफी कम हैं”(मन माँजने की ज़रूरत-पृ.27 )। इस धीरोदात्त पुरुष को सपना अपना जीवन साथी चुनती है साथ ही डॉ. नफीस का घर ,जहाँ वह कुछेक सामाजिक कार्यकर्ताओं और पढे लिखे अवकाश प्राप्त लोगों के सहारे समंवयवादी स्कूल चलाते हैं ,जो एक तरह से बेसहारा औरतों का आश्रयस्थल है जहाँ सरोज किंडो अपने बच्चों के साथ शरण पाती है लेखिका यहाँ एक ऐसा यूटोपिया रचती हैं जो आज के समय की ज़रूरत है और स्त्री मन का सपना भी है।
अनामिका जी लिखती हैं “स्त्रियों का कद तो बढा है,पर उस हिसाब से पुरुष ने ऊँचाई बढाई नहीं। स्त्री का गुईंयाँ बन सकने वाला पुरुष –धीरोदात्तपुरुष काफी कम हैं”(मन माँजने की ज़रूरत-पृ.27 )। इस धीरोदात्त पुरुष को सपना अपना जीवन साथी चुनती है साथ ही डॉ. नफीस का घर ,जहाँ वह कुछेक सामाजिक कार्यकर्ताओं और पढे लिखे अवकाश प्राप्त लोगों के सहारे समंवयवादी स्कूल चलाते हैं ,जो एक तरह से बेसहारा औरतों का आश्रयस्थल है जहाँ सरोज किंडो अपने बच्चों के साथ शरण पाती है लेखिका यहाँ एक ऐसा यूटोपिया रचती हैं जो आज के समय की ज़रूरत है और स्त्री मन का सपना भी है।
उपन्यास
में पुरुष का विश्लेषण भी कई नज़रियों से
किया गया है। सपना कहती है “पर मैं और मेरे जैसे हजार लडके लडकियाँ जिनका न कोई
प्रेमी था न हँसता खेलता घर परिवार,हमें
या तो घर रहकर कुछ दिन कोई छोटी मोटी नौकरी ढूँढनी थी या फिर वापिस अपने गाँव
कस्बे लौटकर ‘पुनर्मूषिको भव:’की स्थ्ति दोहरानी थी।‘लडकी दिखाई’ के हजार मारक
सिलसिले झेलने थे।और फिर किसी परम अनजान चटोर् डंटोर,मरखंड मुश्तंड बालबुद्धी पुरुष स्त्री को
स्वामी या प्राण प्रिया मानने का ढोंग करते हुए अपनी सारी ज़िन्दगी काट देनी
थी----बेमेल विवाह? बाप रे बाप!उससे तो अच्छा था सात जनम
अकेले काटना!”(पृ.134) बेमेल विवाह एक बहुत बडी त्रासदी जिसे
स्त्री या पुरुष दोनों में से कोई भी झेल सकता है पुरुष के लिए तो तब भी ‘अदर वे
आउट’ हो सकता है पर स्त्री ? मन
मरकर ऐसे संबंध को झेलने को मज़बूर होकर निरंतर घुटती रहती है ।अपनी एक कविता में अनामिका
जी अपनी एक सखी को याद करते हुए कहती हैं “जिसका पति इंसान नहीं आलू का बोरा था”
ऐसे संग साथ झेलने को मज़बूर औरत की ज़िंदगी का अदाज़ा लगाया ही जा सकता है पर ललिता
चतुर्वेदी के प्रसंग में क्या कहा जाए जहाँ आदर्शों को पालने वाला पति कुण्ठा
ग्रस्त पति इस हद तक कॉमपलेक्स का शिकार हो जाता है कि अधबौरा होकर ले देकर एक
पत्नी और बच्चों को ही गाली गलौच और हिंसा का शिकार बनाता है। ललिता चतुर्वेदी के
प्रसंग में उनका अपने पति के साथ जो संबंध है “”इसी को शायद कहते हैं :’वर्किंग
रिलेशनशिप’। हवा निकल भी गई तो पंक्चर पर पहिया चल रहा है टकदुमटक-जैसे देश का
वैसे संबंधों का। पिया मोर बालक हम तरुनी गै।“ ललिता जी उसी गरिमा से पति को झेलती
हैं जैसे कोई माँ अपने बिगडे हुए बच्चे को झेलती है। और यह भी कि यह पुरुषों की केन्द्रीय
समस्या है घर की खुँदक को घर में निकालना
चाहते हैं। जो झेल जाए उसी के हिस्से आता है लत्तम जुत्तम।(138) ललिता जी कुण्ठाग्रस्त पति को वैसे ही झेलती
हैं जैसे कोई माँ अपने बिगडैल बच्चे को। शायद यही मातृत्व भाव स्त्री को धरा की
तरह सहनशील और उर्वरा बना देता है ।
साथ
ही तमाम तरह की स्त्रियाँ भी इस उपन्यास में मौज़ूद है जो अपनी उपस्थिति से
स्त्रियों के उस वृहत्तर समाज को रचती हैं जो समाज के हाशिये पर धकेल दी जाती हैं
। एक ओर आदिवसी कवयित्री सरोज किंडो है जो ‘उपलब्ध’ का ठप्पा कग जाने के बाद
बलात्कार का शिकार हुई है। जिससे सपना श्यामा जी के यहाँ शरण पाती है।सरोज किसी ऐसे
सांसद के आउट हाउस में रहती थी जो उसके पिता का मित्र था उससे भी बढकर,वह लोकभीरु सा आदिवासी है जिससे उसके गंवई
संस्कारों का शुभ्र पक्ष विदा नहीं हुआ है पर उसके पति की आत्महत्या के बाद सांसद
के विपक्षियों और आलोचकों द्वारा सरोज को
बदनाम किया जाता है कि उसके दोनों बच्चे साँसद से हैं और वह चरित्रहीन है।
लाँछन से बचने के लिए लोकभीरु साँसद उसे आउट हाउस से बाहर कर देता है। यह संथाली
लेखिका अपनी कविताओं की वजह से बहुत चर्चित हो गई थी जिसकी वजह से कई नए लेखकों की
ईर्ष्य़ा का कारण थी अब उसे सोशल मीडिया पर बदनाम किया जाता है। अनामिका जी सरोज
किंडों के माध्यम से आदिवासी लेखिकाओं, समाचार
पत्र के संपादकों समवर्गीय लेखकोंमेंटोर –मेंटी, गुरु-शिष्य,निदेशक-अभिनेता, प्रकाशक-संपादक जैसे पारस्परिक सहयोगमूलक
संबंधों के बिगडने का जायज़ा लेती हैं साथ ही उनकी टिप्पणी है कि” देह या पसा जैसे
घोर भौतिक उपादान बीच में आते ही आपस के सराहना मूलक स्नेह की टाँय-टाँय फिस्स हो
जाती है ।--इतिहास गवाह है कि दूध धुले या दुधैले संबंधों में देह या पैसा खटास
पैदा करते ही हैं ।दूध में खटास पडेगी तो वह फटेगा ही (पृ.151)
यह पितृसत्तात्मक समाज स्त्री को देह से उपर कब
समझेगा –लेखिका की एक प्रमुख चिंता यह भी है ।सपना सरोज किंडो के प्रसंग में अदालत
जाती है और उसके साथ भूतकाल में हुए अपने
दैहिक शोषण की भी फाईल खुलवा कर केस करती हैं ।ये प्रसंग स्त्री शोषण ,बलात्कार, हिंसा
के विरूद्ध अदालतों की स्थिति का ब्यौरा बहुत कम शब्दों में बहुत सटीक ढंग से बयान करता है। इस पूरे प्रकरण
में दोनों स्त्रियों में से एक मुकद्दमा जीतकर अपराधियों को सज़ा दिलवा पाती है तो
दूसरी केस हार जाती है जिससे यह संदेश मिलता है कि अदालतों में विलंबिता के साथ
स्त्री के पक्ष में न्याय पाने की संभावना आधी ही है। दूसरी ओर डो. नफीस की मित्र
और पूर्व पत्नी (प्रकारांतर से लेस्बियन) ,जो
सृजनशील चित्रकार और फिजियोथेरेपिस्ट है – के माध्यम से स्त्री की सृजनशीलता,उसके मन में उभरने वाले बिम्बो और स्त्री
यौनिकता के साथ साथ अंतर्मन में कहीं जाकर स्त्री को विमुक्त कर देने का उपाय भी
सुझाया है ”शरीर से मन का जुडाव स्त्रियों में थोडा ज्यादा होता है इसलिए मन की
कुँठाएँ और चोटें अगर सृजनात्मक कामों के दौरान – जैसे चित्र बनाते ,नृत्य करते,गाना
गाते,कुछ लिखते पढते या किसी को प्रोत्साहित
करते हुए-दूर कर ली जाएँ तो मूलाधार से सह्स्रार तक रोशनी की एक उच्छ्ल नदी सी
बहने लगती है।अंग अंग में सचनुच कमल दल खिलने का आभास होने लगता है ।अजब तरह का
संगीत गूँजने लगता है नस नस में और स्त्री शरीर स्त्री मन स्त्री भाषा- सब मीरा के
घुँघरूओं और राबिया के रबाब की तरह आस – पास के पूरे परिवेश को एक ऊर्जस्वी स्पंदन
से भर सकते हैं ।“(पृ.173) यही वह सच्चाई है स्त्री को निरंतर याद दिलानी है कि वह केवल शरीर
नहीं है।---वह हर अराजक शक्ति से ऊपर है । उपन्यास का यह संदेश एक विराट फलक पर घटित होता है।
उपन्यास
की कहानी बहुस्तरीय है किसी एक जगह वह टिकती नहीं है वरन इस लिखंत की पढंत धीमे
धीमे मन मस्तिष्क में व्यापती है। अनामिका जी के अनुसार “कोई भी अच्छी कहानी या
कविता यह प्रक्रिया’, कुछ होने’ या ‘नहीं होने’ की प्रक्रिया, कहीं पहुँचने या नहीं पहुँचने की
प्रक्रिया बहुत महीन ढंग से फोकस करती है। किसी बिंब किसी मोटिफ़,किसी वक्रोक्ति,किसी चरित्र और किसी शिल्पगत औज़ार से फोकस करती है।”(मन माँजने की
ज़रूरत – पृ.48)
अनामिका जी ने यहाँ परत दर परत उस दुनिया को रचा है जो साफ सुथरी हो जहाँ मानवीयता साँस लेती हो, जहाँ स्त्री को अपना स्पेस मिले ,बराबरी का संबंध मिले,स्त्री को प्यार करने का दावा तो बहुत से लोग करते हैं पर उसे केवल प्यार नहीं, सम्मान मिले अन्यथा यह पितृसत्तत्मक समाज तो स्त्री की पिटाई में भी सहचर का प्यार होने का दावा करता है।परंतु ये सब केवल उपन्यास की बाहरी कहन नहीं है उससे बढकर यह भीतरी स्पर्श है ये मन और दुनिया का मिला जुला संसार है जो कहीं गहरे में धीरे धीरे भीतर उतरता है ।सच कहा जाए तो स्त्री के अंतर लोक और बाह्य लोक दोनों की गहरी पड ताल इसमें हुई है पर उसके माध्यम से यह पूरे समाज की जाँच परख है क्योंकि इस सृष्टि के मूल में स्त्री ही तो है वही है वह आद्याशक्ति जो इस पूरे समाज का केन्द्र है।स्त्री के मन की परतों को यदि एक एक कर उतारा जाए तो अंत में क्या बचता है शायद करूणा भरा मन या उसके आँसू या सम्मान पाने हकदार रोता हुआ उसका व्यक्तित्व। कुल मिला कर इस समाज के आईने में वे जगहें जहाँ कही भी स्त्री का अक्स बिगडा है वहीं वहीं पर लेखिका ने आईनासाज़ी की है।
अनामिका जी ने यहाँ परत दर परत उस दुनिया को रचा है जो साफ सुथरी हो जहाँ मानवीयता साँस लेती हो, जहाँ स्त्री को अपना स्पेस मिले ,बराबरी का संबंध मिले,स्त्री को प्यार करने का दावा तो बहुत से लोग करते हैं पर उसे केवल प्यार नहीं, सम्मान मिले अन्यथा यह पितृसत्तत्मक समाज तो स्त्री की पिटाई में भी सहचर का प्यार होने का दावा करता है।परंतु ये सब केवल उपन्यास की बाहरी कहन नहीं है उससे बढकर यह भीतरी स्पर्श है ये मन और दुनिया का मिला जुला संसार है जो कहीं गहरे में धीरे धीरे भीतर उतरता है ।सच कहा जाए तो स्त्री के अंतर लोक और बाह्य लोक दोनों की गहरी पड ताल इसमें हुई है पर उसके माध्यम से यह पूरे समाज की जाँच परख है क्योंकि इस सृष्टि के मूल में स्त्री ही तो है वही है वह आद्याशक्ति जो इस पूरे समाज का केन्द्र है।स्त्री के मन की परतों को यदि एक एक कर उतारा जाए तो अंत में क्या बचता है शायद करूणा भरा मन या उसके आँसू या सम्मान पाने हकदार रोता हुआ उसका व्यक्तित्व। कुल मिला कर इस समाज के आईने में वे जगहें जहाँ कही भी स्त्री का अक्स बिगडा है वहीं वहीं पर लेखिका ने आईनासाज़ी की है।
स्व.
राजेन्द्र यादव ने वर्षों पूर्व‘हँस’ के
संपादकीय ‘होना सोना खूबसूरत दुश्मन के साथ’ (जिस पर खूब बवेला भी मचा
था)लिखा था आखिर ये स्त्रियाँ चाहती क्या हैं? जिसका ठीक ठीक उत्तर इस उपन्यास में
मौज़ूद है। यह खोज धीरोदात्त पूर्ण पुरुष की
है । यह वह पुरुष है जो सूफियो का सा
ह्रदय रखने वाला ऊँच-नीच से परे, कथनी-करनी में एक, बनावट से दूर पाक-साफ और
पारदर्शी जीवन जीने वाला पर्दादारी न रखने वाला,साफ आचरण रखने वाला.किसी का बुरा नहीं चाहने वाला,मनुष्य
मात्र को भाई ,और जीव मात्र को करूणा का पात्र मानने वाला और स्त्री को पूरा
सम्मान देने वाला हो । तभी आज की सजग स्त्री उसका साथ दे पाएगी।स्त्री विमर्श के
इस लम्बे दौर में पुरुष की अच्छी लानत-मलामत हुई है। उसके दंभ गुरुर ,असभ्य आचरण
और स्त्री को अपने से हीन मानने तथा उसे उत्पीडित करने के ढेरों किस्से हमारे
सामने आए हैं ।अनामिका के साहित्य में उस पुरुष की खोज निरंतर चलती रही है जो
वास्तव में मानव कहलाया जा सके। अमीर खुसरो और डो.नफीस उसी खोज की देन हैं ।
अनामिका
जी का गद्य अपनी समस्त प्रकृति में काव्य है।उपन्यास में खुसरो के लिए कही गई उनकी
पंक्तियाँ हैं “ “अब जिस रूहानी दुनिया में रहता है ,वहाँ बातचीत की सहज भाखा कविता ही है”(पृ. 33)
दूसरी जगह वे किसी अन्य पात्र के माध्यम कहती हैं ‘ये तिरहुत प्रदेश की लडकियाँ इतना गा गाकर क्यों बोलती हैं”। लेखिका स्वयम तिरहुत प्रदेश की हैं और ये विशेषता जिसके व्यक्तित्व में सहज रूप से मौज़ूद हो उसकी भाषा काव्यमय होगी ही।
प्रस्तुत उपन्यास में भी उनकी भाषा का यही रूप देखने को मिलता है।उपन्यास में कई जगहों पर लेखिका की भाषा ठेठ कविता की भाषा बन जाती है । चित्रात्मकता इसका विशेष गुण है जैसे “सिद्धू की ओर से वाट्सएप पर सात तस्वीरें एक के बाद एक उतरती चली गईं, जैसे पक्षियों का कोई दल नदी किनारे उतरा हो।“(पृ.9)
लेखिका का कवि मन कहीं भी ठहर जाता है जैसे उपन्यास के पृ.14 और 15 पर चित्त और अवकाश की सुन्दर की कवितानुमा व्याख्याएँ – “कोई ऐसा अंतरंग कोना,एहसास या व्यक्ति भी कहाँ मिलता है जहाँ चित्त रम जाए जहाँ हम घर-बार कर लें ? ‘चित्त भी खूब खेलवाडी एहसास है –चिटपट का खेल इससे छूटता ही नहीं।जहाँ पाया वहीं चित्त लेट जाने को आतुर !”
इसी तरह ‘अवकाश कितना सुन्दर शब्द है !’आकाश से मिलता जुलता,’काश सा अनंत।अवकाश अपने भीतर झाँक लेने का,अपने दरवाज़े खटखटाने का और अगर वे लाख खटकाने पर भी न खुल पायें तो फिर खुद से दूर चले जाने का –उस अननंत में जिसे संसार कहते हैं ।----विरल है यह अवकाश जो दुबारा उडकर ,मधु लेकर घर लौटने की ऊर्जा मधुमक्खी के थके हारे डैनों में भरता है।“कहीं कहीं ठेठ सूक्ति वाक्य पाठक को ठिठका देते हैं और सोचने पर मज़बूर कर देते हैं “योजना बनाकर कोई जीवन की दास्तान किसी को सुना सकता है क्या?(पृ.-139) तथा “जो सबको अपने पास खींचे यानी ड्रा करे वह द्राईंग रूम’(145)),”चमडी, दाँत ,दाँत की चमक ,आँख की ज्योति चेहरे की लुनाई रीढ की एकतानता हड्डियों का लोच ,उम्र का लकड सुँघवा सबको ही लकडी सुँघाता है ।“(146), “शिक्षादीप्त स्त्री उतनी अकेली है जितनी कि ध्रुवस्वामिनी थी-रामगुप्तों का समाज है चँद्रगुप्त नज़र नहीं आते” (पृ.157) -‘एक बार विद्यार्थी जीवन में अमीर खुसरो की यह दास्तान पढी थी,और कल दुबारा पढकर खत्म की।इस बार ठहर ठहर, बचा बचाकर पढी,धीरे धीरे पढी, जैसे हम दूसरी बार प्रेम करते हैं ।“(प्र.9)अथवा छत ,बाथरूम और भंडार घर – औरतों का तीसरा फेफडा है।
उनकी भिंची हुई साँसे और थमे हुए आँसू एक वृहत्तर आयाम पा जाते हैं वहाँ ।चाँदनी और धूप की दो हथेलियाँ फैलाकर आसमान फफक पडे आँसू पौंछ देता है और हवा भिंची हुई साँसों में उडते हुए पंछियों का वितान भर देती है ‘।(पृ.160)
इसी तरह अकेलापन भी एक शराब ही है – कुछ दिन अकेले रह जाओ तो अकेले रहने में ही रस आने लगता है “पृ.167)जैसी अनेकानेक जीवन रहस्यों को खोलती और समेटती हुई कहन यहाँ मौजूद है ।जो पुस्तक के ठेठ समाजशास्त्रीय संदर्भों को भी उजागर करती हैं ।यह एक जाना मान तथ्य है कि किसी भी व्यक्ति की भाषा उसके व्यक्तित्व का महत्वपूर्ण हिस्सा होती है वही भाषा उसके साहित्य में भी ढल कर आती है। उपन्यास की भाषा में एक खास तरह की तरलता है।
यह भाषा कत्थक के तराने की तरह लोचदार भाषा है जो धीरे धीरे चक्करघिन्नियाँ लेती हुई अपनी चाल पकडती है और कहीं कहीं द्रुत विलम्बित भी हो जाती है जैसे खूब ठहर ठहर कर फुर्सत से स्त्रियाँ वाकये बयान करती हैं ।स्त्री भाषा की दृष्टि से इस उपन्यास को खास तौर पर देखा जाना चाहिए।
दूसरी जगह वे किसी अन्य पात्र के माध्यम कहती हैं ‘ये तिरहुत प्रदेश की लडकियाँ इतना गा गाकर क्यों बोलती हैं”। लेखिका स्वयम तिरहुत प्रदेश की हैं और ये विशेषता जिसके व्यक्तित्व में सहज रूप से मौज़ूद हो उसकी भाषा काव्यमय होगी ही।
प्रस्तुत उपन्यास में भी उनकी भाषा का यही रूप देखने को मिलता है।उपन्यास में कई जगहों पर लेखिका की भाषा ठेठ कविता की भाषा बन जाती है । चित्रात्मकता इसका विशेष गुण है जैसे “सिद्धू की ओर से वाट्सएप पर सात तस्वीरें एक के बाद एक उतरती चली गईं, जैसे पक्षियों का कोई दल नदी किनारे उतरा हो।“(पृ.9)
लेखिका का कवि मन कहीं भी ठहर जाता है जैसे उपन्यास के पृ.14 और 15 पर चित्त और अवकाश की सुन्दर की कवितानुमा व्याख्याएँ – “कोई ऐसा अंतरंग कोना,एहसास या व्यक्ति भी कहाँ मिलता है जहाँ चित्त रम जाए जहाँ हम घर-बार कर लें ? ‘चित्त भी खूब खेलवाडी एहसास है –चिटपट का खेल इससे छूटता ही नहीं।जहाँ पाया वहीं चित्त लेट जाने को आतुर !”
इसी तरह ‘अवकाश कितना सुन्दर शब्द है !’आकाश से मिलता जुलता,’काश सा अनंत।अवकाश अपने भीतर झाँक लेने का,अपने दरवाज़े खटखटाने का और अगर वे लाख खटकाने पर भी न खुल पायें तो फिर खुद से दूर चले जाने का –उस अननंत में जिसे संसार कहते हैं ।----विरल है यह अवकाश जो दुबारा उडकर ,मधु लेकर घर लौटने की ऊर्जा मधुमक्खी के थके हारे डैनों में भरता है।“कहीं कहीं ठेठ सूक्ति वाक्य पाठक को ठिठका देते हैं और सोचने पर मज़बूर कर देते हैं “योजना बनाकर कोई जीवन की दास्तान किसी को सुना सकता है क्या?(पृ.-139) तथा “जो सबको अपने पास खींचे यानी ड्रा करे वह द्राईंग रूम’(145)),”चमडी, दाँत ,दाँत की चमक ,आँख की ज्योति चेहरे की लुनाई रीढ की एकतानता हड्डियों का लोच ,उम्र का लकड सुँघवा सबको ही लकडी सुँघाता है ।“(146), “शिक्षादीप्त स्त्री उतनी अकेली है जितनी कि ध्रुवस्वामिनी थी-रामगुप्तों का समाज है चँद्रगुप्त नज़र नहीं आते” (पृ.157) -‘एक बार विद्यार्थी जीवन में अमीर खुसरो की यह दास्तान पढी थी,और कल दुबारा पढकर खत्म की।इस बार ठहर ठहर, बचा बचाकर पढी,धीरे धीरे पढी, जैसे हम दूसरी बार प्रेम करते हैं ।“(प्र.9)अथवा छत ,बाथरूम और भंडार घर – औरतों का तीसरा फेफडा है।
उनकी भिंची हुई साँसे और थमे हुए आँसू एक वृहत्तर आयाम पा जाते हैं वहाँ ।चाँदनी और धूप की दो हथेलियाँ फैलाकर आसमान फफक पडे आँसू पौंछ देता है और हवा भिंची हुई साँसों में उडते हुए पंछियों का वितान भर देती है ‘।(पृ.160)
इसी तरह अकेलापन भी एक शराब ही है – कुछ दिन अकेले रह जाओ तो अकेले रहने में ही रस आने लगता है “पृ.167)जैसी अनेकानेक जीवन रहस्यों को खोलती और समेटती हुई कहन यहाँ मौजूद है ।जो पुस्तक के ठेठ समाजशास्त्रीय संदर्भों को भी उजागर करती हैं ।यह एक जाना मान तथ्य है कि किसी भी व्यक्ति की भाषा उसके व्यक्तित्व का महत्वपूर्ण हिस्सा होती है वही भाषा उसके साहित्य में भी ढल कर आती है। उपन्यास की भाषा में एक खास तरह की तरलता है।
यह भाषा कत्थक के तराने की तरह लोचदार भाषा है जो धीरे धीरे चक्करघिन्नियाँ लेती हुई अपनी चाल पकडती है और कहीं कहीं द्रुत विलम्बित भी हो जाती है जैसे खूब ठहर ठहर कर फुर्सत से स्त्रियाँ वाकये बयान करती हैं ।स्त्री भाषा की दृष्टि से इस उपन्यास को खास तौर पर देखा जाना चाहिए।
आईनासाज़’
वास्तव में अनेक विधाओं का मिला जुला रूप है पत्र,यात्रा,मौखिक इतिहास और मिथक
,किंवदंतियाम और इतिहास के सूत्रों को बडी ही खूबसूरती से पिरोया गया है। एक लम्बे
कल क्रम को साक्षी बनाकर लेखिका ने अनेक गाथाएँ एक साथ कह डाली हैं जैसे शायरों
में कलाकारों में एक खास बात देखी है टूटते हैं तो कुछ देर की खातिर भरभरा कर
टूट जाते हैं ,उसके बाद अपने टूटे कतरे जोडकर खुद ही खडे होते हैं ।“-(पृ.33)
यह कथा केवल खुसरो की ही नहीं न जाने
कितने शायरों कथाअकारों की है। जिनका जिक्र कर पाना संभव नहीं। कुल मिलाकर उपन्यास
में निजाम पिया यानी निजामुद्दीन औलिया से लेकर खुसरो ,कायनात ,राबिया
फकीर, सुल्तान मोहम्मद की मलिका,सिद्दू,डॉ.
नफीस सपना श्यामा जी सब यही संदेश देते हैं कि “किसी भी मज़हब का मूल मक़सद ये ही है
कि अपने और दूसरे के बीच की सरहदें मिटा दे”।(पृ.61) नफीस और सपना का अंतर्धमीय विवाह शायद इसीलिए घटित होता है । चलते
चलते एक बात और-उत्तर आधुनिक आलोचना किसी भी कृति को उसके पाठ तक ही सीमित करती है
वह उसे उसके इतिहास, काल और लेखक से मुक्त मानती है।
परंतु
यदि किसी ने लेखक के व्यक्तित्व, बोली-बानी
यानी भाषा,कथनी और करनी को देखा परखा और जिया हो
और उसे कृति में झाँकता उसका उदात्त व्यक्तित्व दिखाई दे तो वह कृति को उससे मुक्त
नहीं कर सकता।
अनामिका जी की पंक्तियाँ हैं – “जो बातें मुझे चुभ जाती हैं /मैं
उनकी सुई बना लेती हूँ?/चुभी हुई बातों की ही सुई से
मैंने/टाँके हैं फूल सभी धरती पर” स्त्री जीवन की चुभन को मुलायमियता के साथ कागज़
पर उतार पाना इसीलिए संभव हो पाया है।
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राजकमल प्रकाशन
रचनाकार -अनामिका
मूल्य -250 रुपए (पेपरबैक)
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रचनाकार परिचय
निशा नाग
आधुनिक कविता, पत्रकारिता एवं आलोचना
में रुचि तथा विशेषज्ञता। जन्म दिल्ली। शिक्षा एम. ए. ,एम.फिल, तथा पी-एच.
डी.,दिल्ली विश्वविद्यालय \अनुप्रयुक्त
भाषाविज्ञान,विज्ञापन एवम जनसंचार में डिप्लोमा।
वर्षों से रेडियो से जुडी रही हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं जैसे जनसत्ता, हंस, कथादेश, पाखी, अनभै साँचा, प्रत्यय, प्रतिशीर्षक,
समकालीन साहित्य,संवेद, प्रगतिशील वसुधा, अलाव आदि में समसामयिक विषयों पर लेख,
कहानियाँ तथा समीक्षाएँ निरंतर प्रकाशित।
संप्रति दिल्ली विश्वविद्यालय के
प्रतिष्ठित कॉलेज मिरांडा हाउस में गत बीस वर्षों से प्राध्यापन।
पता:1- सी ,पॉकेट एफ,
एम.आई.जी.फ्लैट्स, हरीनगर, नई दिल्ली – 110064.
ई-मेल – nishanagpurohit@ gmail.com