शहर में अकेला पलाश : विशेष की कविताएँ
विशेष उभरते हुए युवा कवि हैं. इधर उन्होंने अपनी कविताओं के विषय और उनमें मौज़ूद विविधता से लगातार ध्यान खींचा है और संभावना के नए स्वर के रू...
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विशेष उभरते हुए युवा कवि हैं. इधर उन्होंने अपनी कविताओं के विषय और उनमें मौज़ूद विविधता से लगातार ध्यान खींचा है और संभावना के नए स्वर के रूप में उभरे हैं. विस्थापन, महानगर का अकेलापन और युवा सपनों के कई आयाम इनकी कविताओं में मिलते हैं. समकालीन लेखन को ध्यान से पढ़ते हुए उनके अंदर अपनी ख़ुद की जमीन और शैली तलाशने की ललक भी दिखाई देती है और यही चाह उन्हें भविष्य की नयी आवाज़ के रूप में भी गढ़ेगी. आइए 2019 की शुरुआत इस नयी कलम को पढ़कर करें क्योंकि 'एक बेशकीमती दिन बचा रहता है कल के आने तक'.
जिन जंगलों से
गुजरोगे
विशेष चंद्र नमन
कि हवाओं में अब रोग ना लगे
कभी पाओ जो
जीवन की किताब
तो पूरे किताब
के
पुर्ज़े कर दो
उछाल दो हवाओं
में और भूल जाओ उन्हें
भूलोगे ना ?
कभी पाओ जो
मुट्ठी भर मिठास
तो हथेलियों के
चाँद बना
अँजोर लो
गुनगुना कर
हवाओं में उड़ा जाओ उन्हें
उड़ाओगे ना ?
कहीं पा जाओ गर
थोड़ी सी आग
तो हरी-हरी फुनगियों
को सोचकर
सिहर जाओ
ठिठुर जाओ
पत्तियों में
ठिठुरोगे ना ?
भूलना,
कि किताबों में इक लौट बचे
उड़ाना,
कि धरती को नई धूल मिले
ठिठुरना,
व्याकुल धैर्य
मेरी व्याकुलता
और तुम्हारे धैर्य के बीच
कितनी ही चीज़ें
बच जाती हैं
खुद को चुप
रखने की बेचैनी पाल सकता हूँ मैं
जैसे तुम पालती
हो न सुनने का रोग
सांस की स्थिर-
स्पंदित पटरियों पर, स्मृति की रेल भागती है
किसी छूट गए
स्टेशन की तरह दुःखती हो तुम
हम साथ- साथ जीते
हुए साधक हुए
ज़िन्दगी कभी
बेकार नहीं हुई, उदास हुई
कितनी ही
मुद्राएं ढूंढ निकाली हमने, उदासियों की अनुभूति के लिए
प्रेम में भ्रम
था, भ्रम से प्रेम था
एक वृत्त थे हम
भटकता मैं
परिधियों पर
तुम एकाग्र
मध्यबिंदु सी
त्रिज्याओं के
पुल कभी सधे ही नहीं हमसे
तुम और धैर्य बांधना
मैं व्याकुलता
के चक्राकार में मुड़ता रहूंगा, सूखता रहूंगा, तेरे करीब पहुँचूँगा,
दुःखों के लिए,
हमारे लिए ।
मौज़ूदगी
एक बेशकीमती
दिन बचा रहता है
कल के आने तक
हम बांसुरी में
इंतज़ार के पंख लपेट हवा को बुलाने से ज़्यादा कुछ नहीं करते
एक अनसुनी धुन
बची रहती है
हर फूंक से
पहले
तुम दीवार पर
लगे चित्र को देख मुस्कुराते हो
बेशक, तुम्हारी मुस्कुराहट चित्र
से परे दृश्य को ना देख पाने का एक अफ़सोस भर है
चित्र के पीछे
छिपी दीवार पर जमी मिट्टी को खुरचो
उग आने की जगह
निश्चित नहीं होती
वहां आखेट के
लिए सिर्फ तितलियाँ ही बचेंगी
तुम तीर चलाकर
किसी हवा को जख़्मी कर जाओगे, पत्तों से खून टपकेगा, तितलियाँ फ़रार हो जाएंगी मीलों दूर
उड़ने की ललक ही
अभेद रख पाती है देह को
शहर में अकेला पलाश
वह चुपचाप
छटपटाता है,
आये कोई;
ऐसे मुझे
बुलाता है
ज्ञान-मनोरंजन-व्याख्यान
के बाद;
जब होता है
थकान का प्रवेश मुझमें
तब मुड़ता हूँ
उसकी ओर
उसकी फटी-छिछली
पत्तियां
डोलती है, हवा
के बगैर
इधर – उधर
फिर टूटती जाती
है बिखर
अच्छी तरह
जानती है वो भी
डंठलों से
बगावत का हश्र,
पर कहीं भाता
है उनको टूटकर गिरना
कि उन जंग लगी-
मटमैली-अधमरी-सूखी पत्तियों को; शायद कोई उठाएगा,
फेंक देगा फिर
भले उसे तोड़-मरोड़ कर,
पर कुछ पल ही
सही, छू तो जायेगा
उसके खुरदुरे
जड़ और तने को जब मैं छूता हूँ,
तो, मोम सरीखा रक्त हाथों में
पिघलता है
कहता है कि मैं
फटा हूँ; इसलिए कि
धमनियों में आग
है जो, वह जला न दे मुझे भीतर
निकल आये बन
मोम सा
पिघल जाये तेरी
हथेलियों पर या इस धरा पर
पूछता हूँ उससे
मैं कि आ गया फागुन,
पर तेरी
डालियों में टेसू नहीं आये ?
कहता कि :
क्या करूँगा
मैं अकेला फूलकर,
आ भी जाते फूल
गर
कौन है आता इधर, उठाता नज़र,
तुम भी तो आये
अबर !
हैं अगल-बगल जो
वृक्ष मेरे
वे भी हैं
मुझसे बड़े
मैं मंझले आकार
का, डंठलों को ओढ़कर
करता हूँ खुद
में बसर,
मेरा नहीं है
ये शहर
हाँ, हैं तने में दो-चार खोंडर
रहते कुछ
गिरगिट वहां छिपकर;
ढूंढो उन्हें, पूछो उन्हें
अब वे हैं मेरी ख़बर
उन खोंडरों में
देखना तुम गौर कर
सुख मिलेंगे, दुःख मिलेंगे,
पूछे थे जो
सवाल तुमने
उनके उत्तरों
के संदूक मिलेंगे,
और थोड़ा तह तक
जाना
वहीँ तुम्हें
वह सिन्दूरी किंशुक मिलेंगे.
मैं फूलूँगा, मैं खिलूँगा, उम्रभर
पर अकेला फूलकर
किसको मिलूँगा ?
हो तुम्हें गर
देखना मुझमें है रंग
लगभग
सारे आसमान के
नीचे, एक दिन
शीशों के पर्दे
होंगे
तुम, लगभग देख लोगे पूरा आसमान
बाजों की हल्की
उड़ान
तुम, लगभग महसूस करोगे
अपनी पेशानी पर
बारिश की टपकन, किरणों की चुभन
पूरी पृथ्वी के
ऊपर, एक दिन
रूई के खेत
होंगे
तुम, लगभग पोंछ लोगे छलकते खून
तौलते रह सकोगे, ज़ख्मों को, सांस रहते तक
तमाम शहर की
सड़कों पर, एक दिन
दौड़ेगा कोई
खूँखार जानवर
रेंगेगा भयानक
अजगर
तुम भी दौड़ोगे, फुफकारोगे,
लगभग बचा लोगे
मनुष्यता को निगलने से, खींचकर उनकी अंतड़ियों से
किसी दिन, पसीजेगा शीशा : खून टपकेगा
: मैं समझूँगा लगभग बारिश
महकेगी रूई मैं
सूँघूँगा लगभग गुलाब
दम्भ भरेगी
मनुष्यता: मैं भरूँगा: किसी दिन और
कवि परिचय
विशेष चंद्र नमन
श्री गुरु तेग
बहादुर खालसा कॉलेज, दिल्ली विवि से इसी वर्ष गणित में स्नातक
7654214505
पता : राजधनवार, गिरिडीह, झारखंड, 825412
वर्तमान पता -
निरंकारी कॉलोनी, नई दिल्ली,110009
बहुत सुंदर कविताएं. इन कविताओं में एक नयापन है..
ReplyDeletemst hai vishu
ReplyDeleteनयापन है,अनूठापन है,अनोखापन है....
ReplyDeleteसभी रचनाएं शानदार हैं; विशेषकर विशेष जी की "व्याकुल धैर्य" मुझे बहुत अच्छी लगी।
अतिसुन्दर विशेष ।।
ReplyDeleteAdbhut hai aapki....kavitayen.
ReplyDeleteLovely
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