Loading...

तुम्हारी यादें हरी घास सी हैं - गौरव गुप्ता की कविताएँ

गौरव गुप्ता नए संभावनाशील कवि हैं जो सहज, सरल शब्दों में अपनी बात कहते हैं और वह मन को छू जाती है। पिछले महीने हुए मुक्तांगन- कविता कोश काव्य पाठ में उनकी अभिव्यक्ति को श्रोताओं ने बहुत सराहा। मुम्बई में हुए लिट फेस्ट में गौरव की कविता पांडुलिपि को प्रथम पुरस्कार  दिया गया है। साहित्य की राजनीति से दूर चुपचाप लिख रहे गौरव जैसे कवि इस पूरे परिदृश्य में एक सुकून, एक सकारात्मक उम्मीद देते हैं कि कविता को अभी लंबा सफ़र तय करना। आशा है कि वह अभी अपनी लेखनी को और मांजेगे, नए बिम्ब, नए विषयों के साथ कविता का अपना नया वितान गढ़ेंगे। इन्हीं शुभकामनाओं के साथ पढ़िए नवोदित कवि गौरव गुप्ता को। आपकी टिप्पणी उन्हें आगे और बेहतर लिखते रहने के लिए प्रोत्साहित करेगी।




1. अवसाद के दिन और उसके बाद"

बड़े से घर के छोटे से कमरे में रहा
ठीक वैसे ही रहा 
मेरा मन, मेरे शरीर में

सन्नाटे के शोर में कभी
तो कभी शोर के सन्नाटे में

बन्द कर देता था 
खिड़की ,दरवाजे किसी अज्ञात के भय से
और बन्द रखी मन की खिड़कियां
हर अनजान से 
मुझे अपने एकांत में किसी और का
ताकना - झाँकना पसन्द नही
कभी कभी खुद का भी नही

भूल गया था प्रेम करना 
छूना किसी की नर्म तलहथी को
भूलने लगा था बात करने के तौर तरीके
उठने , बैठने का सलीका

समंदर में तूफान उठने के पहले की 
ख़ामोशी थी उस रोज 
फूट कर रोया, ख़ुद के घुटनों पर
और बह गये दीवार, खिड़कियां, दरवाजे
एक खाली वीरान खेत मे
खुले आसमान के नीचे पाया
रोशनी को छूते ही 
लगा घाव भर रहे हैं..
उसने मेरे सख्त हाथों को
अपने हाथों में ले लिया था
लगा सब कुछ अब ठीक हो जायेगा

मैं अब छोटे से घर के बड़े से कमरे में रहना लगा हूँ
जहाँ ना दीवारे हैं, ना खिड़कियां, ना दरवाजे , ना छत
बिना किसी रोक टोक के आते जाते लोग
मुस्करा दिया करते हैं,
जैसे मुझे वर्षो से जानते हो
दीवार ना होने के कई फायदे हैं,
खिड़कियों और दरवाजे की जरूरत नही होती
खिड़की और दरवाजे ना हो 
तो कुछ भी छिपाने का प्रयोजन नही होता
हम बेवजह की कई जिम्मेदारियों से बच जाते है..
जिम्मेदारी बोझ है, जब तक वह जिम्मेदारी है...
बोझ मन को जंजीरो में बांधता है, 
और जंजीरो में बंधा मन भय से भरा होता है
भय से भरा मन आसपास दीवारें बनाता है,
और दीवारों में खिड़कियां और दरवाजे रहने आ जाते है
और फिर एक अवसाद का धुँआ उस कमरे को धीरे धीरे भरने लगता है

दम घुटने से पहले , फूट कर रोना जरूरी है
इसके बिना बाढ़ नही आएगी
और बाढ़ के बिना ना दीवारे टूटेंगी, ना ही खिड़कियां , ना दरवाजे…

********************************************************
2. खाली आलमारी , उदास अखबार

पिता को बूढ़े होते देख रहा,
अब अख़बार को आँखों से सटाकर पढ़ते है,
चाय बिना चीनी के पीते है,
अब आँखे लाल नही होती
मेरी गलतियों पर।
माँ के चेहरे पर थकावट दिखती है,
सीढियाँ चढ़ने के बाद 
बैठ जाती है ,साँस भरने को
अब दवाईयाँ उनकी खिड़कियों पर रखी मिलती हैं
बहन के विदा होते ही
एक कमरा खाली हो गया घर का
अब सुबह और शाम 
नही आती बर्तनों की आवाज
चाय के जले बर्तन को,
चम्मच से नही खखोरता कोई
अब उसके कमरे की खाली आलमारी में
घर के पुराने अख़बार रखे जाते है।
उसकी कुछ यादें , दे दी गईं उसी को
जो कुछ बची उसको ,
माँ ने बन्द कर दिया सन्दूक में।
घर अब सिमट कर 
कमरा हो रहा…

********************************************************

3. नीला कोट

खूंटे पर टंगा  हैं पिता का नीला कोट
कहते थे इसी कोट में ब्याह लाये थे माँ को
बड़ी बहन के ब्याह में भी यही कोट पहना था
और मेरे ब्याह के समय भी

बहुत जिद के बाद भी
कभी नया कोट नहीं पहना उन्होंने
गहरा नीला रंग मलिन हो गया
पर कोट पर लोहा होता रहा
और कंधे पर चढ़ जाता था
बड़े शान से ये  नीला कोट

कमर झुकने के बाद भी
सिर  सीधा रहता था , और
आँखों में चमक बनी रही 
जैसे असंख्य सपने चमक रहे हो
मैं उनकी आँखों में दवा डालने के बहाने
निहार लिया करता हूँ उन सपनों को
जिसे पूरा करने की कोशिश चुपके चुपके करता रहा
धीमी चाल उनकी आदत थी
वो कहते थे, 
इससे लड़खड़ा कर गिरने से बचा जा सकता है

एक रोज उनके मृत्यु के बाद
मैंने वही  नीला कोट पहना
और  महसूस कर रहा था
कंधे पर एक अदृश्य छुअन
जैसे पिता हर उदास समय में रख देते थे मेरे कंधे पर हाथ 
फिर सब कुछ ठीक हो जाता था 

सब ने कहा ,
मैं बाबू जी जैसा दिखने लगा हूँ इस नीले  कोट में
और मैं अपनी आँखों मे  वही चमक  महसूस  रहा हूँ

********************************************************
4. मेरी प्रेमिका

मेरी प्रेमिका एक मात्र हमसफ़र है 
मेरे जीवन की
मैं चलते - चलते थाम लेता हूँ 
उँगलियाँ उसकी
जैसे किसी अनजान सफर पर
थाम लेता था, माँ की ऊँगली
खो जाने के डर से...
पिता के मृत्यु के बाद
मेरी गलतियों को सुधारने
का जिम्मा उसने ले लिया
कभी गुस्सा होकर
तो कभी प्रेम से
मुझे एहसास दिलाती है कि
मुझे सफ़र जारी रखना है
मेरे घर के हर कोने में 
दर्ज़ है उसकी उपस्थिति
माँ की पुरानी आलमारी से
लेकर पिता की काठ की कुर्सी तक
उसके स्पर्श को पहचानते है
नल की टपटप
बर्तन की खन खन
पर्दे के हटते ही ,झांकती सुबह की धुप
सब उसका ही गुणगान करते है।
मेरे बगीचे के फूल भी खिलने से
मना कर देते है
जिस दिन वह उदास 
कमरे में ख़ामोशी से आँसू बहाती है
उसकी खिलखिलाहट सुन
गिलहरी की दौड़ शुरू हो जाती है।
वह मेरे जीवन के
हर रिक्त स्थान को
अपने मौजूदगी से भर देती है
बिना एहसास दिलाये 
कि वो ऐसा कर रही है…

********************************************************
5. कैसे लिखूं मैं प्रेम गीत?

इस गर्मी की तपती धरती पर
बैठे नंगे बदन
जब अन्नदाता ही मांगे रोटी 
तो बोलो ,प्रिये
कैसे लिखू मैं बसन्त के प्रेम गीत
लिखता रहा जो प्रेम पत्र
इस सर्दी  अलाव के काम आये,
सड़कों पर सोये अधनंगे लोगों  के
जिन शब्दो ने कल तक मुझे जिन्दा रखा था
जलकर उसकी तपिश ने
जिंदा रखा उन्हें,
जिनकी गूंगी आवाज
लँगड़ी सड़कों से होकर,
बहरी संसद तक कभी नही पहुँची
इस बारिश में बहती झोपड़ियाँ
जिसमें बह गये गाढ़े सपने
सड़क पर तंबू ताने जब वो
बना रहे है उम्मीद के चूल्हे पर
सरकारी सान्त्वना की भात
तो बोलो, प्रिये
कैसे लिखूं मैं बसंत के प्रेम गीत

जंगलों में ,बड़े मशीनों के धुँआ को
काले हाथो से छाठते
ढूंढ रहे है अपने घरों को
और पाते है
एक रिक्त स्थान,
जहाँ हुआ करती थी
उनकी अपनी भाषा, संस्कृति और समाज
अधमरे से लेट गये है, जो इस धरती पर
गुजरता हूँ बीनने कुछ प्रेम फूल इन जंगलों में
तलवे पर चिपकते उनके लाल रक्त
जकड़ ले रहे है, मेरी आत्मा को
घिर जा रहा अवसाद से
तो बोलो प्रिय
इस उदास मौसम में
कैसे लिखू मैं बसन्त के प्रेम गीत

********************************************************

6. काका दुःखी है..

काका दुःखी है
उनका गाँव शहर हो रहा
बिजली की तारें जब से दौड़ी है आसमान में
लालटेन किसी कमरे में दुबका पड़ा है
रोज शाम को उठते है काका
पेंदी में तेल भरने को
फिर निराश बैठ जाते है अहाते में
भक्क से जलता बल्ब 
कहते है, उनकी आँखें चुभती है
सड़क अब भींगता है
पर बिना खुश्बू के
तारकोल की सड़कें 
जलाते है पैर उनके
चप्पलें बांधती है सांसे उनकी
भागे भागे फिरते है

ठंड में नही जलता घूरा
नही लगता कोई बैठक
सन्नाटा पसरा दुआर पर
काका बीनते है पनियाई आंखों से 
कुछ किस्से जब गाँव सिर्फ गाँव था
दुआर का कुआँ सूना पड़ा है
बाल्टी दूर उल्टी पड़ी है
अब नही लगता औरतों का झुण्ड
नही होती हंसी ठिठोली खींचा तानी
सभ्य हो गये है सब 
और गम्भीर भी
बच्चे नही खेलते आस पास
महँगे खेल कमरे तक रखते हैं उनको
रिश्तों में लक्ष्मण रेखाएँ खिंच आयीं हैं 
सब अपने अपने घेरे में सुरक्षित हैं 

रेलगाड़ी से चलकर
आ रहे नये नये
रहन - सहन
नयी - नयी 
बोली - भाषा
काका, उन्हें नही पहचानते
वो काका को नही पहचानते
दोनों चुप्प हैं  और पसरा है सन्नाटा

कल आये थे कुछ शहरी
भूखी आंखों से देख रहे थे खेत को
कहते है धुँआ फेंकता चिमनी लगेगा
आसपास पक्के मकान बनेंगे
पगडंडियों को ईंट से छुपा दिया जायेगा
बड़ी गाड़ियां सरपट दौड़ेंगी
हस्पताल , इस्कूल सब खुलेगा
तस्वीर बदल जाएगी गाँव की

काका दुःखी है
उनका गाँव अब उनका नही रहेगा
गाँव ,शहर हो जायेगा
शहर शहरी लोगों का होगा
काका अकेले रह जाएंगे गाँव मे

यूँ ही टटोलते समय को
विदा हो लेने के इंतजार में

********************************************************

7. तुम्हारी  यादें हरी घास सी है

जो मेरे मन के जमीन पर
बेमौसम उग आया करती है...

तुम्हारी यादें गौरैये का झुंड है
जो हर ढलते शाम में
मेरे नींद के घोंसले में आ जाया करती है

तुम्हारी यादें सीधी जाती सड़क पर
उल्टी यात्रा है
जो बेवजह है , पर खूबसूरत है

तुम्हारी यादें एक घाटी है
जो दो पहाड़ो को जोड़ती है
जैसे मैं और तुम..

तुम्हारी यादें 
हिमाचल के पर्वतो पर उड़ते बादल है
जो बरस जाते है मेरी आँखों से अचानक

तुम्हारी यादें 
सेमर की रुई है
जिसे मैं अपने खुली हथेलियों पर रख छोड़ता हूँ
बेपरवाह उड़ने को

तुम्हारी यादें गर्म चाय सी  है
जो मेरे मन के प्याले में भरी रहती हैं  हमेशा
जिसे तुम सिरहाने रख छोड़ जाती हो अक्सर

तुम्हारी यादें
धूप सी छलांग है 
जो तय करती है पलक झपकते मीलों दूरियाँ

तुम्हारी यादें 
एक खूबसूरत सफ़र है
जिसे मंजिल तक पहुंचने की जल्दी नही..

********************************************************

8. प्रेम में

प्रेम में चढ़ना नही होता पहाड़
ना ही होता हैं किसी खाई में कूदना
यह कोई प्रतियोगिता नही हैं
जिसमें अव्वल आने की ज़िद हो

प्रेम में सबसे बेहतर का चुनाव नही करना होता
ना ही कोई समीकरण याद करना होता
ना ही लेना होता है किसी गणितीय प्रमेय का सहारा
प्रेम कोई विज्ञान का विषय भी नहीं
जिसमें रसायनों का सही सही मिलाना हो जरूरी

प्रेम में होता है,
बस प्रेम करना
थाम लेना हथेलियाँ एक दूसरे की
टिका देना हौले से एक दूसरे के कंधे पर सिर
चुपचाप ताक लेना एक दूसरे को
मुस्कराकर चल पड़ना किसी अनजान सड़क पर

प्रेम में भौगोलिक दूरियाँ नही रखती कोई जगह
मीलों दूर किसी की याद में 
अनायास ही
रुंध सकता हैं गला
हो सकता हैं मन बेचैन
उठ सकता हैं शांत जल में हिलोर
डूब सकता है मन का किनारा
फूट सकती है कोई सख्त चट्टान
धरती भेद अंकुरित हो सकता हैं कोई पौध
भर सकता है गर्मियों में सूखा तालाब

प्रेम में बिन पतझड़ झड़ सकते हैं पत्ते
बिन बसन्त खिल सकता हैं अमलतास 
प्रेम में कोई हो सकता, मन के बेहद पास

एक ओस की बूंद गिरते ही भीग सकता है मन
प्रेम में बहुत कोशिशों की जरूरत नहीं होती।

********************************************************

लेखक परिचय 




नाम - गौरव गुप्ता (जी के गौरव)
चकिया, पूर्वी चंपारण बिहार - 845412
मोबाइल नं- 8826763532

दिल्ली विश्वविद्यालय से राजनीतिक शास्त्र से स्नातकोत्तर

वर्तमान में सिविल सर्विसेज  की तैयारी 

Voice of millennials 3007175907264945325

Post a Comment

  1. बहुत अच्छी लगीं कविताएँ। भविष्य के लिए अशेष शुभकामनाएँ।

    ReplyDelete
  2. कविताएं बहुत अच्छी और एक नयापन लिए हुए हैं, एक एक कविता अहसास जगाती है..

    ReplyDelete
  3. बिलकुल अलग, ताज़ादम कविताएँ। जीवन के बेहद क़रीब। कितना कुछ है आसपास जिसे लिखा जा सकता है। कवि की संवेदनशीलता स्पष्ट झलक रही है। शुभेच्छाएँ।

    ReplyDelete
  4. Neela kot or tumhari yadein Kavita ne to barbas aansu la diye aankho me .....Hal hi me bichhde Papa ko khone ka yakeen shayad aa bhi Jaye lekin aansuon pr Mera kabhi bs nhi chalega....
    Bahut Sundar kavitayein ...thank you...

    ReplyDelete

emo-but-icon

Home item

Meraki Patrika On Facebook

इन दिनों मेरी किताब

Popular Posts

Labels