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३२ रुपये, सब कुछ ठीक है और कछुए दौड़ रहे थे सदियों से : अशोक कुमार की कविताएँ


इन दिनों फेसबुक पर निरंतर लिख रहे अशोक कुमार की कविताओं ने ध्यान आकृष्ट किया है। इनकी कविताएँ एक आम आदमी की ज़िंदगी और उसके संघर्षों की कथा कहती हैं। यहाँ दिखता है दफ्तर से लौटा हुआ एक मध्यम वर्गीय आदमी या फिर बस की प्रतीक्षा में खड़ा एक ऊबा हुआ चेहरा, भीड़ में खोया हुआ अपनी पहचान को तरसता हाशिए पर पड़ा जीवन, एक उपेक्षित रिक्शा वाला, एक हारा हुआ किसान और ऐसे ही कई चेहरे । हमारी और आपकी रोज़मर्रा की जिंदगी को दिखाती यह कविताएँ उम्मीद जगाती हैं, आप भी पढ़िये। 

विपरीत समय में


जहाँ घड़ी की सूईयाँ चलते -दौड़ते हांफ जाती हैं
वहीँ समय दस्तक देता है किसी पेंडुलम की तरह
विपरीत समयमें तूफानी हवाओं को पीठ पर झेलना
बुजदिली नहीं बुद्धिमानी है
जब तुम बस या ट्रेन में चलते हुए
कोई भीड़ नहीं होते
होते हो निहायत अकेला एक आदमी
जिस की दिशा और  मंजिल अलग होती है .

विपरीत समय में तुम सिमटे  होते हो कागज के उस कोने में
जहाँ नहीं लिखे जाते कोई अक्षर
तुम बस स्याही बन भरे हुए होते हो उस कलम में
जिस से नयी इबारत लिखी जानी  बाकी है
विपरीत समय में .

कोल्हू के बैल उलटे नहीं चल रहे होते
विपरीत समय में
उल्टा तो सिर्फ यह  होता है
कि नहीं निकल रहे होते तेल
सरसों के पीसे जाने के बावजूद .

सही तो यह हो  कि लोग बदल दें घड़ियाँ अपनी
या फिर देखना बंद कर दें समय
क्योंकि समय उल्टा चल रहा होता है
विपरीत समय में .


३२ रुपये


(सन्दर्भ : योजना आयोग की रिपोर्ट -
३२ रुपये प्रतिदिन शहर में और
२६ रुपये प्रतिदिन गाँव में
कमानेवाला गरीब नहीं )
________
रिक्शेवाले को जब ३० रुपये भाडा दिया मैंने
तो यह बताना भी नहीं भूला
कि अब तुम अमीर होने से
२ रुपये ही दूर हो .
अगली कोई भी सवारी मिलेगी
और तुम हो जाओगे अमीर .
अमीर आज ही .

अपने पिचके गाल

और बुझी हुयी आँखों से
किसी अनबुझी पहेली को सुलझाने के
अंदाज में उसने मुझे देखा .
कहा कुछ नहीं .

जब मोची से मैंने

बनवाए अपने जूते और चप्पल
और उस पर पालिस करने को भी कहा
कि वह हो जाये अमीर आज
सिर्फ मुझसे ही .
कि उसे अमीर बनाने का श्रेय
कोई छीन न ले मुझसे .
मैंने उसे पालिस करने को कहा
ताकि मैं उसे अकेले ही दे सकूँ
३२ रुपये से ऊपर
और वह न रह जाये गरीब .

चलते चलते मैंने उसे उसके

अमीर होने की भी खबर दी
तो भी वह बुझा -बुझा ही रहा
जैसे मैंने किया हो
भद्दा सा मजाक .

जब मैंने टायर का पंक्चर बनानेवाले से

४० रुपये देते हुए देते हुए
कही यही बात
कि तुम एक ही ग्राहक से
आज हो गए अमीर
तो उसने पूछा मुझसे
और जाना योजना आयोग की रिपोर्ट
और यह भी कि यह संस्था सरकारी है.

टायर बनानेवाले ने सरकारी कर्मचारी मुझे जान

मुझसे कहा -
बाबूजी , हम गरीबों की गरीबी का
उड़ाया न करो मजाक .


सब कुछ ठीक है


खेतों में काम करते आदमी के लिये सब ठीक है

सडक पर गारे फेंटते आदमी के लिये सब सही है
जो चला रहा है रिक्शा ,खींच रहा है ठेले
घड़ी की रफ़्तार उसके साथ है .

सायकिल पर अख़बार बेचते आदमी की खबर भी

नहीं है किसी अखबार में ,
दूध के डिब्बे लिया आदमी
समय की नब्ज पकड़ चल रहा है तेज .

गरम लोहे पीटते आदमी के सांसो की धौंकनी

चल रही है अपनी रफ़्तार ,
दफ्तर जाते हुए आदमी की कलम भी
स्याही से है सराबोर .

सब कुछ ठीक है और सही भी

विधान सदनों में रोज गढ़ी जा रही हैं
कानून की ऋचाएं कि सब कुछ रहे ठीक- ठाक ,
लोग बहाएं पसीने
और भुगते जायें अपनी चमड़ी की स्वेद -ग्रंथियों से
बहे पसीने का हिसाब ,

सब कुछ ठीक ठाक है और सही भी अपनी जगह

बस पकड़ने के लिये दौड़ता आदमी
परेशान क्यों है ,
और सड़क पर धूप से तपता आदमी
अपनी प्यास से बदहवास क्यों है .


मेरे शहर में कौए


मेरे शहर में कौए  मर रहे थे
बर्ड - फ़्लू से ,
अख़बारों ने कर दी थी घोषणा,
उन्हें पक्का मुर्गों की बीमारी ही लगी है .

और कौए  गिर रहे थे
अचानक अपनी उड़ान से ,
गिर रहे थे
और तड़प तड़प कर मर रहे थे .

सरकार के पास उन्हें बचाने की
कोई योजना नहीं ,
और क्यों कर उन्हें बचाया जाय .

मेरे गाँव में आदमी के रंग से
उसकी बदसूरती बतानी हो ,
तो बताया जाता उसे 'काला  कौआ ',

जब किसी के कर्कश आवाज़ की तुलना हो ,
तो वही काला कौआ  ही याद आता था
हर किसी को .

लेकिन आँगन में बरतन मांजती सजनी को
हर सुबह इंतज़ार था
कौए के कांव- कांव करने का ,
हर सुबह वह उसके लिये
रात की बची रोटियाँ
फेंकती थी आँगन में .

खपरैल छत की मुंडेर पर बैठा
काला कौआ जब करता था कांव -कांव
सजनी खुश होती थी ,
शायद आएगा आज उसका साजन
परदेस से .

कौआ कभी साईबेरिया नहीं जाता था ,
साईबेरिया से आये पक्षियों के लौट जाने के बाद भी
वह यहीं रहता था .

कौआ विदेशी नहीं था ,
खांटी देसी था ,
कोई तो उसे बचाए ,
सजनी की खातिर ,
उस गाँव की खातिर
जहां आज भी कौए के बोलने का मतलब
किसी अतिथि के आने  से होता है .

उसे बचा लो उस अतिथि की खातिर .


वसंत



वसंत एक उतरा हुआ जामा था
आदमी ने अपनी त्वचा से उतारी थी
जमी हुई बर्फ की परत
और पेड़ अपनी खाल झाड़ रहे थे
एक औरत कोयल के साथ कूक रही थी वहीं

जहाँ आम अपनी मंजरियों से रस टपका रहे थे
यह निम्बोलियों के पकने का समय था

महुओं के टपकने का समय था
ठंड से बचे हुए आदमी के लिये
गरमी से लड़ने की तैयारी का समय था
पलाश के खिलने का समय था वसंत

गेहूँ की बालियों के पकने का समय था
वसंत एक साल बीत जाने का समय था

उम्र की गिनती का समय था.


उद्दण्डता '


उसकी भाषा समृद्ध न थी
इसलिये वह चुप था
वह मेरी साफ चमकीली पोशाक से सहम कर चुप था
मेरे भव्य घर की दीवारों से डर कर वह चुप था
मुझे बड़ा मानता था वह
इसलिये भी चुप था
मैं भी तो सहमा था उससे
जैसा वह मुझसे
मैं जानता हूँ
जिस दिन वह अपनी भाषा दुरुस्त कर लेगा
बोलेगा वह
और मेरी धज्जियाँ उड़ा देगा .


कछुए दौड़ रहे थे सदियों से '


कहानियों में कछुए चल रहे थे
खरगोश सोये थे
कछुए दौड़ जीत जाते थे
मगर मेरे पास जो कविता थी
उसमें कछुए दौड़ रहे थे सदियों से
इतिहास में नदी किनारे खींची गयी एक रेखा से

खरगोश चाक-चौबन्द थे
पेड़ के नीचे
सोते थे
मगर चौकन्ने थे

कछुए पहाड़ के पास खींची रेखा तक पहुँचना चाहते थे
अर्थशास्त्रियों की खींची रेखा को छूना भर चाहते थे
और इसलिये लगातार चल रहे थे
बिना सोये

खरगोश पहाड़ के पार थे
उस पेड़ के नीचे
सोये थे
जहाँ बरसती थी समृद्धि की शीतल छाँह

कछुए चल रहे थे सदियों से
लगातार
और कविता में वे अपनी नियति बदलना चाह रहे थे .




अशोक कुमार
जन्म तिथि : 29 सितम्बर 1967
सम्प्रति : कोल इंडिया की अनुसंगी इकाई सेन्ट्रल कोलफील्ड्स लिमिटेड के हजारीबाग क्षेत्र, हजारीबाग (झारखंड) चरही में वरीय प्रबन्धक (कार्मिक) के पद पर कार्यरत
मोबाइल: 08809804642
इमेल : 
ashok_cil@yahoo.in
            ak1021852@gmail. com







Poetry 9101617506144765155

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  1. गज़ब लेखन कौशल आज देखने को मिला....गहराई में जा कर भावुकता से लिखी कविताएं......वाह वाह..

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